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खेत में फसल से एक किसान की गुफ्तगू

एक बनते हुए किसान की डायरी का एक खास पन्ना.

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मौसम की मार क्या होती है, तुमसे बेहतर कौन जान सकता है ? माटी में पल बढ़कर तुम हमारे आँगन -दुआर में खुशबू बिखरते हो. भण्डार को एक नई दिशा देकर बाजार में पहुंचकर हमारे कल और आज के लिए चार पैसे देते हो लेकिन ऐसा हर बार हो, यह निश्चित तो नहीं है न !

आज सुबह हल्के कुहासे की चादर में अपने खेत के आल पर घुमते हुए जब तुम्हें देख रहा हूँ तो मन करता है कि तुमसे खूब बातचीत करूं, दिल खोलकर, मन भरकर. तुम्हारी हरियाली ही मुझे हर सुबह शहर से गाँव खींच ले आती है. धान के बाद अब तुम्हारी बारी है.

मक्का, अभी तो तुम नवजात हो. धरती मैया तुम्हें पाल-पोस रही है. हम किसानी कर रहे लोग तो बस एक माध्यम है. यह जानते हुए कि प्रकृति तुम्हारी नियति तय करती है लेकिन बतियाने का आज जी कर रहा है तुमसे.

महाभारत के उस संवाद को जोर से बोलने का जी करता है- आशा बलवती होती है राजन ! घर के पूरब और पश्चिम की धरती मैया में हमने 18 दिन पहले तुम्हें बोया था.

एक बनते हुए किसान की डायरी का एक खास पन्ना.
पूर्णियां, बिहार के चनका गांव में मक्का की नई फसल. (फोटो: गिरींद्र नाथ झा)
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आज तुम नवजात की तरह मुस्कुरा रहे हो. मैंने हमेशा धान को बेटी माना है, इसलिए क्योंकि धान मेरे लिए फसल भर नहीं है, वो मेरे लिए ‘धान्या’ है. धान की बाली हमारे घर को ख़ुशी से भर देती है. साल भर वो कितने प्यार से हमारे घर आँगन को सम्भालती है. आँगन के चूल्हे पर भात बनकर या दूर शहरों में डाइनिंग टेबल पर प्लेट में सुगंधित चावल बनकर, धान सबका मन मोहती है.

वहीं मेरे मक्का, तुम किसानी कर रहे लोगों के घर-दुआर के कमाऊ पूत हो. बाजार में जाकर हमारे लिए दवा, कपड़े और न जाने किन किन जरूरतों को पूरा करते हो, यह तुम ही जानते हो या फिर हम सब ही. बाबूजी अक्सर कहते थे कि नई फसल की पूजा करो, वही सबकुछ है. फसल की बदौलत ही हमने पढ़ाई-लिखाई की. घर-आँगन में शहनाई की आवाज गूंजी. बाबूजी तुम्हें आशा भरी निगाह से देखते थे. ठीक वैसे ही जैसे दादाजी पटसन को देखते थे. कल रात बाबूजी की 1980 की डायरी पलट रहा था तो देखा कैसे उन्होंने पटसन की जगह पर तुम्हें खेतों में सजाया था.

वे खेतों में अलग कर रहे थे. खेत उनके लिए प्रयोगशाला था. मक्का, आज तुम्हें उन खेतों में निहारते हुए बाबूजी की खूब याद आ रही है. बाबूजी का अंतिम संस्कार भी मैंने खेत में ही किया, इस आशा के साथ कि वे हर वक्त फसलों के बीच अपनी दुनिया बनाते रहेंगे और हम जैसे बनते किसान को किसानी का पाठ पढ़ाते रहेंगे.

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एक बनते हुए किसान की डायरी का एक खास पन्ना.
चनका गांव में आलू का खेत. एक महीने में तैयार हो जाएंगे आलू. (फोटो: गिरींद्र नाथ झा)

पिछले साल मौसम की मार ने तुम्हें खेतों में लिटा दिया था. तुम्हें तो सब याद होगा मक्का! आँखें भर आई थी. बाबूजी पलंग पर लेटे थे. सैकड़ों किसान रो रहे थे. लेकिन हिम्मत किसी ने नहीं हारी.

हम धान में लग गए. मिर्च में लग गए...आलू में सबकुछ झोंक दिया... आज खेत में टहलते हुए , तुम्हें देखते हुए, बाबूजी के ‘स्थान’ को नमन करते हुए खुद को ताकतवर महसूस कर रहा हूँ. एक तरफ तुम नवजात होकर भी मुझसे कह रहे हों कि ‘फसल’ से आशा रखो और दुसरी तरफ बाबूजी कह रहे हैं किसानों को किसानी करते हुए हर चार महीने में एक बार लड़ना पड़ता है, जीतने के लिए.

(लेखक गिरींद्र नाथ झा, बिहार के किसान, ब्लॉगर और पत्रकार हैं)

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