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अरुंधती रॉय, हमारी उपन्यासकार हमें लौटा दो

अरुंधती रॉय सिर्फ एक लेखिका और एक्टिविस्ट ही नहीं, गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स की यह लेखिका फिल्मों में भी नजर आई है.

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दिल्ली के नॉट-सो-पॉश इलाके में एक दस बाई दस का कमरा. किताबों, कपड़ों और इसी तरह के बाकी सामान से भरा हुआ. असल में यह कोई कमरा नहीं बस एक जगह है जिसमें रखे फर्नीचर और सामान की वजह से इसे कमरे का नाम दे दिया गया है. एक ऐसा कमरा, जिसमें खास लगने वाली कोई चीज नहीं.

सांई बाबा और बग्स बनी को मिलाकर बनाए किसी चरित्र जैसी दिखती एक महिला(इन विच एनी गिव्स इट दोज़ वन्स  के ओरिजिनल स्क्रीनप्ले के मुताबिक) अपनी किताब से नजर उठा कर पूछती है कि ‘डायालेक्टिक मटीरियलिज्म’ को हिंदी में क्या कहेंगे. ‘द्वंदात्मक भौतिकवाद’, हंसते हुए वह खुद ही अपने सवाल का जवाब भी दे देती है. उसके चारों तरफ उड़ते सिगरेट के धुंए के छल्ले उसके बारे में काफी कुछ बता जाते हैं.

प्रदीप किशन की 1989 की टीवी फिल्म इन विच एनी गिव्स इट दोज़ वन्स  की खास बात यही नहीं थी कि उसने सिनेमा के कई रिवाजों को तोड़ा था, खास यह भी था कि उस फिल्म की बेहतरीन स्क्रिप्ट को (उस समय) उनकी पत्नी ने लिखा था और उस चरित्र को परदे पर जिया भी था जिसका जिक्र ऊपर किया गया है.

पर हम आज हम उसे स्क्रिप्ट राइटर (मालगुड़ी डेज़) या अभिनेत्री (मैसी साहिब) के तौर पर याद नहीं करते.

हम उसे एक लेखिका और एक्टिविस्ट के तौर पर ही जानते हैं. और आज उसका जन्मदिन है. तो हम अरुंधती रॉय को जन्मदिन की शुभकामनाएं देते हुए बात शुरु करते हैं.

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रॉय ने अपना पहला और अब तक का एकलौता उपन्यास ‘गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ 1997 में पब्लिश किया था. एक परिवार के इर्द-गिर्द बुनी गई इस कहानी में जितनी भावनाएं हैं उतनी गहराई भी. घर के अंधेरे कोनों को तलाशती हुई यह कहानी रिश्तों के तिलिस्म और आस-पास के इतिहास को समेटती हुई एक परिवार के उलझे-बिखरे अतीत के रोजनामचे को खोल कर रख देती है.

एक तरह से गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स  हमारी रोजमर्रा की ख्वाहिशों का मिला-जुला किस्सा है. एक ऐसा किस्सा जो इंसान की कोशिशों और इरादों की बात करता है.

व्यावहारिक तौर पर यही कहना सही होगा कि इस सब की शुरुआत तभी हुई जब सोफी मोल एमीनेम आई. शायद ये सच है कि एक दिन में सब कुछ बदल सकता है, कि कुछ दर्जन घंटे आपकी पूरी जिंदगी का नतीजा बदल सकते हैं. और जब ऐसा हो - तो एक जले हुए घर के बचे हुए मलबे में से जांच के लिए निकाली गई एक घड़ी, एक एकलौती तस्वीर या फिर झुलसे हुए फर्नीचर की तरह उन कुछ घंटों को भी वक्त के खंडहर से बाहर निकाल कर उनकी जांच की जानी चाहिए. उन्हें बचाकर रखना चाहिए. हिसाब रखना चाहिए. छोटी-छोटी घटनाएं, आम चीजें, पहले तोड़ कर फिर बनाई हुई. नए अर्थ दे कर दोबारा जिंदा की गईं. अचानक ये सब एक नई कहानी का ताना-बाना बुन देती हैं.
गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स, अरुंधती रॉय
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हमेशा से एक दिन को इतिहास में कारण और कार्य के इर्द-गिर्द लिखा जाता रहा है. बिना घटनाओं के कोई दिन इतिहास में दर्ज नहीं हो सकता. रॉय अपने उपन्यास में इस मान्यता को बड़ी खूबसूरती से खारिज कर देती हैं.

सोफी मोल, वह चरित्र जिसकी मृत्यु से किताब शुरू होती है, वाकई जब एमीनेम आती है तो वह घटनाओं का ऐसा पहिया घुमा देती है जिसका उसे खुद अंदाजा नहीं होता.

पर यह कहना, कि यह सब सोफी मोल की मौत से शुरू हुआ, यह इसे देखने का बस एक नजरिया भर है. यह भी तो कहा जा सकता है कि दरअसल यह सब हजारों साल पहले ही शुरू हो गया था. मार्क्सवादियों के आने से बहुत पहले. अंग्रेजों के मलाबार पर कब्जा करने से पहले, पुर्तगालियों के आने से पहले, उससे भी पहले जब वास्को डि गामा यहां आया था या फिर जमोरिन ने कालीकट को जीता था. उससे भी कहीं पहले जब बैंगनी कपड़े पहने तीन सीरियाई पादरियों को पुर्तगालियों ने मार दिया था और समंदर में तैरती उनकी लाशों पर सांप लिपटे हुए मिले थे और दाढ़ियों में सीपियां उलझी थीं. यह भी कहा जा सकता है कि ये उस से भी पहले हुआ था जब ईसाईयत नाव में सवार हो कर आई और पूरे केरल में ऐसे फैल गई जैसे चाय के कप में पड़े टी-बैग से चाय फैलती है. कि ये तब शुरू हुआ जब प्यार के नियम बनाए गए थे. नियम, जो ये बताते हैं कि किसे प्यार किया जाना चाहिए, कैसे किया जाना चाहिए और कितना किया जाना चाहिए. और वो भी, निराशावाद की हद तक व्यावहारिक इस दुनिया में व्यावहारिक कारणों से...
गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स, अरुंधती रॉय
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इसके अलावा द ब्रीफिंग नाम की एक लघुकथा ही एक और फिक्शन है जिसे अरुंधती ने लिखा है.

यह कहानी अल्पाइन रीजन के सबसे बड़े किले के बारे में एक टूरिस्ट गाइड द्वारा पढ़े जाने वाले लेख की तरह लिखी गई है. हैप्सबर्ग परिवार ने 19वीं सदी में फ्रांस की क्रांति से शुरू हुए साम्राज्यवाद विरोधी, क्रांतिकारी बदलावों को रोकने की कोशिश में इस किले को बनवाया था.

यह कहानी एक रुपक की तरह लिखी जाने के बावजूद क्लाइमेट चेंज, आतंक के खिलाफ (एजेंडा-आधारित) युद्ध और हमारी रोजमर्रा की जिंदगी पर कब्जा करते कॉरपोरेट की साफ और सटीक रुपरेखा खींचती है.

खूबसूरती. हम दिन-रात इसके बारे में बात कर सकते हैं. क्या है खूबसूरती? किस के पास यह तय करने का हक है? दुनिया के असली रखवाले कौन हैं, या यूं पूछें कि असली दुनिया के रखवाले कौन हैं? क्या वे चीजें जिनकी हम कल्पना नहीं कर सकते, जिन्हें नाप नहीं सकते, जिनका विश्लेषण नहीं कर सकते, जिन्हें प्रदर्शित या पैदा नहीं कर सकते, असली हैं? क्या उनका अस्तित्व भी है? क्या ये हमारे दिमाग के किसी ऐसे किले में छिप कर रहती हैं जिस पर कभी हमला ना किया गया हो? जब हमारी कल्पनाएं खत्म हो जाएंगी, तब क्या यह दुनिया भी खत्म हो जाएगी? क्या कभी किसी तरह हम जान भी सकेंगे?
द ब्रीफिंग, अरुंधती रॉय

जैसा कि शुरूआत में कहा था, हम अरुंधती के राजनीतिक लेखन के बारे में बात नहीं करेंगे. तो आखिर में आपको बताते चलें कि कुछ दिनों से यह सुनने में आ रहा है कि अरुंधती एक और उपन्यास पर काम कर रही हैं. हमें तो बेसब्री से इंतजार है उनके नए उपन्यास का. आपका क्या खयाल है?

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