ADVERTISEMENTREMOVE AD

अगर नंबर के चक्कर में पड़ी होती, तो कहीं की न रहती: गुल पनाग

मैं सपने देखने की हिम्मत रखती थी

Updated
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

बात 1997 की है. मैं पटियाला में लड़कियों के सरकारी कॉलेज में पढ़ रही थी, क्योंकि तब मेरे ब्रिगेडियर पिता की पोस्टिंग वहीं थी. मेरा फर्स्ट ईयर का रिजल्ट बस आया ही था. मेरे अच्छे नंबर नहीं आए थे, हालांकि मुझे ऐसे रिजल्‍ट का आभास पहले से था.

आमतौर पर आपके प्रयास और नतीजों के बीच बिल्कुल सीधा संबंध होता है. लेकिन स्थिति इसलिए गड़बड़ा गई, क्योंकि पढ़ाई के मामले में मेरी छवि एक ‘अव्वल स्टूडेंट’ की थी.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

रिजल्ट से स्वाभाविक तौर पर मेरे पिता निराश थे, क्योंकि उनका ध्यान हमेशा मेरी पढ़ाई पर रहता था. वो चाहते थे कि मैं बेहतर करूं, जिससे कि एक आत्मनिर्भर और सफल इंसान बन सकूं. वो अक्सर मजाक में कहते थे कि अगर मैं पढ़ाई में अच्छा नहीं करूंगी, अपने पैरों पर खड़ी नहीं होऊंगी, तो वो मेरे साथ वही करेंगे, जो देश की हमारी तमाम बहनों के साथ होता है, मतलब मेरी शादी करा देंगे.

नतीजों का दिन और शाश्वत सवाल

रिजल्ट के दिन वो डाइनिंग रूम में आए. किसी बात को लेकर वो पहले से उखड़े थे. मां और मैं अपनी सांसें रोके खड़े थे, तभी उन्होंने पूछा कि रिजल्ट आ गया? जवाब सुनकर वो आपे से बाहर हो गए और बोले, “अगर तुम अच्छे से अपना काम नहीं करोगी, तो जो पहला नौजवान अफसर 'हां' करेगा, उसी से मैं तुम्हारी शादी करा दूंगा.'' (वैसे कई अफसर इसके लिए तैयार थे)

पिताजी की चेतावनी अब मजाक नहीं, बल्कि गंभीर धमकी थी. मैं बुरी तरह से घबरा गई. कई दिनों तक सोई तक नहीं. मैं और ज्यादा मेहनत कर अच्छा रिजल्ट ला सकती थी. (जैसा कि मैंने बाद में किया भी, जब मैं मास्टर की डिग्री हासिल कर रही थी. खैर वो एक अलग कहानी है) लेकिन मैं ऐसा नहीं चाहती थी.

मेरा सवाल था कि आखिर ऐसा क्यों है कि अच्छे नंबर ही जिंदगी में अपने पैरों पर खड़ा होने, आत्मनिर्भर बनने और आखिरकार सफल होने का एकमात्र रास्ता है?

क्यों? क्यों? क्यों?

सवाल आज भी प्रासंगिक है.

सेकेंड ईयर के क्लास के कुछ हफ्ते हुए होंगे. मैं एक ऐसे मेमने की तरह घूम रही थी, जिसे पता हो कि वो बूचड़खाने में जाने ही वाला है. तभी एक दिन मेरे इकनॉमिक्स के प्रोफेसर ने मेरी वाद-विवाद की क्षमता को देखते हुए मेरा सिलेक्शन इंटर कॉलेज डिबेट के लिए कर लिया. इसकी एक वजह यह थी कि हमारा स्टार डिबेटर बीमार था. खैर, वाद-विवाद प्रतियोगिता मैं जीत गई. इसके बाद ये सिलसिला चल पड़ा और मैंने कई पब्लिक स्पीकिंग इवेंट में जीत हासिल की.

अब मेरे अंदर आत्मविश्वास आ चुका था, अच्छा लगने लगा था. लेकिन अभी भी इस सवाल का जवाब मुझे नहीं मिला था कि मैं कैसे आत्मनिर्भर बनूंगी?

मेरा मतलब है कि अगर मैं अच्छे नंबर भी लाती हूं, तो मेरा विकल्प क्या होगा? दिल्ली में कटऑफ पहले से ही असंभव-सा था. मैं उन लोगों के साथ कैसे मुकाबला कर सकूंगी, जिन्होंने जेएमसी जैसी जगहों से वही कोर्स किया था, जैसे कि मेरे बचपन की दोस्त और बेहद सफल बिजनेस और फाइनेंस जर्नलिस्ट ईरा दुग्गल ने?

सवाल था कि ये अच्छे मार्क्स दरअसल मुझे कहां ले जाएंगे? सफलता की ओर? मेरे अंदर संदेह था.

0

मैं सपने देखने की हिम्मत रखती थी

बाकी दूसरे तमाम लड़कों की तरह, जो कि पायलट बनना चाहते हैं और उन तमाम लड़कियों की तरह, जो ब्यूटी क्वीन बनना चाहती हैं. मेरे अंदर भी इसको लेकर एक विचार था. एक पायलट बनने का और एक ब्यूटी क्वीन बनने का भी. ये दोनों ही क्षेत्र पागलों की तरह अच्छे मार्क्स की मांग नहीं करते थे.

ये सही है कि पायलट बनने के लिए एक इंसान को काफी पढ़ना पड़ता है, जैसा कि मैंने बाद में किया भी, लेकिन कम से कम तब आप वो पढ़ रहे होते हैं, जिसमें आपकी दिलचस्पी होती है.

मुझे ये भी पता था कि पायलट बनने के लिए काफी सारे पैसे की जरूरत होती है, क्योंकि:

  • पटियाला फ्लाइंग क्लब मेरे घर के बिल्कुल पास था.
  • मेरे कजिन ने वहां से ट्रेनिंग ली थी और वो तब जेट एयरवेज के साथ था, सफल और अपने पैरों पर खड़ा.
जहां तक ब्यूटी के क्षेत्र की बात थी, तो वहां भी खर्चे थे, लेकिन तुलनात्मक रूप से कम. वैसे मैं एक पायलट के रूप में काम तो करना नहीं चाहती थी, सिर्फ एक पायलट बनना चाहती थी. ऐसे में अपने घर की बेहद साधारण आर्थिक स्थिति को देखते हुए पायलट बनने की बात करना भी उचित नहीं था. यही सोचकर मैंने अपना दूसरा विचार रखा. ब्यूटी कॉन्टेस्ट में हिस्सा लेने का विचार.

मेरे पिता ऐसे विचारों को लेकर बेहद खुले दिमाग के थे. उन्होंने कहा- क्यों नहीं? शायद तब तक वो भी ये विचार बना चुके थे कि पढ़ाई मेरे वश की बात नहीं है. शुक्र है कि उन्होंने मुझे सपोर्ट कर दिया.

उन्होंने कहा, “तुम फिट हो” (वे मुझे बचपन से ही हर रोज दौड़ लगवाते थे)

“तुम अच्छा बोल सकती हो” (कॉलेज की तरफ से पब्लिक स्पीकिंग में मेरी जीत की वजह से मेरा आत्मविश्वास बढ़ता गया था)

“और तुम्हें पता है कि खुद को कैसे मैनेज करना है” (ये फौजी वातावरण में हुई मेरी परवरिश की वजह से संभव हो सका था)

“मुझे लगता है कि तुम्हारे लिए इस क्षेत्र में अच्छी संभावनाएं हैं”

मेरे प्रोफेशनल फोटो और मेरी ड्रेस के लिए उन्होंने अपनी बचत को खाली कर दिया. (जबकि मैं अपने फेमिली अल्बम से ही अपने कुछ फोटो भेजने की तैयारी कर रही थी) तब मेरा एक गाउन 17 हजार रुपये का आया था, जो कि पिता की हाथ में तब मिलने वाली सैलरी से सिर्फ 1 हजार रुपये कम का था. इस तरह से उन्होंने मेरी मां और मुझे ‘मिशन मिस इंडिया’ के लिए तैयार कर दिया.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

किस चीज के लिए और क्यों ग्रेजुएशन?

क्या होता, अगर मेरे पेरेंट्स मेरी सोच को सपोर्ट नहीं करते? क्या मैं अपनी जिंदगी में कुछ कर पाने में सफल होती? जो कि मुझे खुद को संतोष देता? शायद हां, या फिर शायद नहीं. जवाब कहीं एक विकल्प और मौजूदा चीजों के बीच में है.

तब हममें से ज्यादातर लोग कॉलेज को स्कूल के विस्तार के तौर पर देखते थे. एक ऐसी चीज के तौर, पर जिसे करना ही होता था. चीजें आज भी बहुत ज्यादा अलग नहीं हैं.

ग्रेजुएशन आज भी एक नए हाई स्कूल की तरह है, जिसके बिना एक शख्स को शिक्षित नहीं समझा जाता है. डिग्री की अनिवार्यता और विषय पर बहुत की कम सोच-विचार किया गया है. इसी वजह से आश्चर्य की बात नहीं है कि हमारे इतने सारे ग्रेजुएट रोजगार के योग्य नहीं हैं.

नंबर गेम से दूर अपनी क्षमता पहचानिए

वक्त आ गया है कि हम हायर एजुकेशन को एलिमेंट्री एजुकेशन के तौर पर देखना बंद करें. ये वक्त की जरूरत है. आधे-अधूरे मन से हासिल की गई डिग्री से आगे भी जिंदगी है. ऐसी डिग्री जो कई बार कोई काम नहीं आती. सच तो ये है कि इस सोच की वजह से पहले से ही संसाधनों के लिहाज से मुश्किलों में फंसे हायर एजुकेशन सिस्टम पर दबाव और बढ़ता है.

ये महत्वपूर्ण है कि आप खुद को उस भूलभुलैया से अलग करें. सिर्फ अच्छे नंबर का पीछा कर आप एक बनी-बनाई लकीर पर चलते हैं. इससे आप डॉक्टर, इंजीनियर, एमबीए या फिर वकील बनने की सोचते हैं. इस रास्ते पर ढेर सारे असंतुष्ट लोग बिखरे पड़े हैं.

दो चीजें होती हैं:

पहला- लोग जिस करियर में रह जाते हैं, उसमें वो बहुत खुश नहीं होते हैं और जो कुछ उन्होंने करियर में चाहा था, वो हासिल नहीं कर पाते हैं. इस वजह से खुद से निराश रहते हैं कि उन्हें अपने करियर में पसंद के मामले में दूसरे विकल्प को अपनाना पड़ा.

दूसरा- जॉब मार्केट में मांग और आपूर्ति का जो समीकरण है, वो बहुत ही उलझा हुआ है. आखिरकार हमें कितने इंजीनियर और डॉक्टर चाहिए? और कितने इंजीनियरिंग डिग्री होल्डर अपने ट्रेड में काम कर रहे हैं? हमें ऐसे लोग चाहिए, जिनके पास वोकेशनल स्किल हो. एक समाज के रूप में हमें वोकेशनल एजुकेशन और उनकी क्षमताओं को सम्मान देने की शुरुआत करनी चाहिए.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

जीवन में क्या जरूरी है?

एक दूसरी जिस चीज पर सोचने की जरूरत है वो ये कि जब हम मार्क्स पर फोकस कर रहे होते हैं तो क्या हम अपने युवाओं को ये बता पा रहे हैं कि बाकी और क्या चीजें सफलता के लिए जरूरी है? एक समग्र व्यक्तित्व? एक वैल्यू जजमेंट सिस्टम? अच्छे मार्क्स की दौड़ में कहीं हम एकपक्षीय व्यक्तित्व वाले इंसान का निर्माण तो नहीं कर रहे?

एक समाज तब बहुत अच्छा करेगा अगर उसके उत्साही लोग डिग्री से आगे सोचने लगें और उस स्किल को हासिल करने की सोचें, जो उनके काम की है. आइए उस भूख को पैदा करें. उस सोच को वापस लाएं. सफलता आपके पीछे आएगी. और यहां तक कि अच्छे मार्क्स भी. मैंने चार साल पहले मास्टर डिग्री करते हुए पहले से बहुत अच्छा स्कोर किया, क्योंकि अब आगे पढ़ने का मेरा फैसला एक सोच के साथ था. इसके लिए मेरे अंदर जिज्ञासा और भूख थी. तब मेरे ऊपर डिग्री लेने के लिए कोई सामाजिक या पेरेंट्स की तरफ से दबाव नहीं था.

आज की तारीख में कई सारे ऐसे करियर हैं, जिनमें ‘अच्छे मार्क्स’ की परंपरागत सोच की जरूरत नहीं है. ये अच्छा विचार हो सकता है कि हम अच्छे मार्क्स की जरूरत पर सवाल उठाएं. क्या अच्छा मार्क्स ही पैसा है? संतुष्टि है? या खुशी है? थोड़ा समय लीजिए और सोचिए कि अंतिम क्या है? और मत भूलिए कि मार्क्स भी अंत का एक जरिया है, तो क्यों न उसके ही अंत की ओर बढ़ें.

आगे से हर चीज पर सवाल करें, क्योंकि जब आप सवाल करेंगे तभी बेहतर चुनाव कर सकेंगे !

(गुल पनाग एक एक्टर, पायलट, राजनेता, एंटरप्रेन्योर और बहुत कुछ हैं. ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं. क्विंट इसके लिए जिम्मेदार नहीं है.

ये भी पढ़ें- DU Admission: कॉलेजों ने जारी की पहली कटऑफ लिस्ट, यहां देखें

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें