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नर्क से हरिशंकर परसाई बोल रहे हैं, ध्यान से सुनिए!

समाज की नब्ज टटोलकर व्यंग्य को हथियार बनाने वाले परसाई की वर्षगांठ पर विशेष

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अगर आजादी के बाद के हिंदुस्तान को समझना चाहते हैं. समझना माने सच में समझना. कोई एकेडमिक चर्चा नहीं. हिंदुस्तान जैसा है वैसा. यानी अपनी तमाम विविधता, विसंगतियों, विडंबनाओं में लिपटा हिंदुस्तान. जिंदा, धड़कता हिंदुस्तान. इस देश की नब्ज टटोलनी हो तो सैकड़ों, हजारों किताबों की जगह आप एक लेखक की चंद किताबें भी उठा सकते हैं. दुनिया उन्हें हरिशंकर परसाई के नाम से जानती है.

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जन्म से करीब साल भर पहले 22 अगस्त 1924 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में जन्मे परसाई. शायद इसीलिए वो हमेशा संघ की विचारधारा से दूर और 'आगे' रहे! उन्होंने लिखने की जो शैली अपनाई, थी तो वो व्यंग्य. जिसे कई बार हास्य-व्यंग्य भी लिख दिया जाता है. लेकिन परसाई की कलम का पैनापन इतना तेज था कि सब उधेड़ कर रख देता था. जिसके लिए जो बात कही जा रही है, ऐसा हो ही नहीं सकता कि वो पढ़े और प्रतिक्रिया न दे. या तो वो जार-जार रोता होगा, गुस्सा होता होगा, परसाई को गालियां देता होगा. या फिर कभी ऐसा भी होता होगा कि उसे ये पढ़ के हंसी आती होगी. बाद में किसी खाली दिन, अचानक दिमाग की दीवारों से परसाई की लिखी कोई लाइन टकरा जाती होगी और दरवाजे खुल जाते होंगे. इस बात के कि कि वो हास्य तो था ही नहीं. सिर्फ दिखता हास्य था.

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परसाई अपने लेखन में वाकई अद्भुत थे. उन्होंने इस समाज की, सियासत की, आस्था की, धर्म की इतनी परतें खोलीं कि कभी-कभी उन्हें भगवान मान लेने का दिल करने लगता है. हालांकि, भगवान कहलाया जाना कम से कम परसाई को तो कभी गवारा न होता. यकीन नहीं आता तो जरा ये पढ़िए-

दीवाली पर मैं लक्ष्मी-पूजन नहीं करता. न मेरे घर की दीवारों पर भद्दे अक्षरों में ‘श्री लक्ष्मीजी सदा प्रसन्न रहें’ लिखा है. पूजा अपनी प्रकृति से मेल ही नहीं खाती. किसी की पूजा करेंगे, तो या तो उसका नुकसान होगा या अपना. लक्ष्मीजी अब इस मुहल्ले में आती भी हैं तो दूर से मेरी नेमप्लेट पढ़कर सड़क के उस बाजू हो जाती हैं.
हरिशंकर परसाई के व्यंग्य ‘लिटरेचर ने मारा तुम्हें’ का अंश
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लेखक ज्ञानरंजन कहते हैं कि परसाई को मैटिनी आइडल कहा जा सकता है. प्यार और भक्ति के समंदर के बीच परसाई ने अपनी धारदार खड़ी बोली में इस भारतीय समाज की अनगिनत पेंटिंग बना डालीं. और ये कितना सच मालूम होता है. परसाई ने इमरजेंसी देखी तो उस पर लिखा. राजनीति के गिरते स्तर से परेशान हुए तो उस पर कलम चलाई. साधु-संतों के पाखंड और झूठे अध्यात्म को उभरते देख उनका पर्दाफाश किया. आप चाहें तो परसाई को डॉक्टर कह लीजिए, जिसका हाथ हमेशा समाज की नब्ज पर रहा. चाहे तो सफाई कर्मचारी भी कह लीजिए, जिसने इस देश-समाज के कचरे और गंदगी को साफ करने की पुरजोर कोशिश की. लेकिन किसी भी कीमत पर परसाई को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

उनका रचना संसार इतना बड़ा है, इतना समृद्ध है कि उसमें बार-बार लौटना होता है. कुछ मोती तुरंत हासिल हो जाते हैं, कुछ मोतियों के लिए डुबकी गहरे लगानी होती है. परसाई के कई व्यंग्य भी इसी तरह काम करते हैं. शुरू में कुछ हंसी मजाक लग सकता है लेकिन जब समझ जाएंगे तो दिल रोने-रोने जैसा हो जाएगा. कैसे, समझते हैं 'सदाचार के तावीज' के इस अंश से---

एक राज्य में हल्ला मचा कि भ्रष्टाचार बहुत फैल गया है. राजा ने एक दिन दरबारियों से कहा, “प्रजा बहुत हल्ला मचा रही है कि सब जगह भ्रष्टाचार फैला हुआ है. हमें तो आज तक कहीं नहीं दिखा. तुम लोगों को कहीं दिखा हो तो बताओ.” दरबारियों ने कहा, “जब हुजूर को नहीं दिखा तो हमें कैसे दिख सकता है.” राजा ने कहा, “नहीं, ऐसा नहीं है. कभी-कभी जो मुझे नहीं दिखता वो तुम्हें दिखता होगा. जैसे मुझे बुरे सपने कभी नहीं दिखते पर तुम्हें तो दिखते होंगे!” कुछ दिन बाद राजा के आदेश पर विशेषज्ञ ने जांच की और उन्हें ढेर सारा भ्रष्टाचार मिला. राजा ने कहा,, विशेषज्ञों, तुम कहते हो कि भ्रष्टाचार सूक्ष्म है, अगोचर है और हर जगह है. ये गुण तो ईश्वर के हैं. तो क्या भ्रष्टाचार ईश्वर है विशेषज्ञों ने कहा, हां महाराज! अब भ्रष्टाचार ईश्वर हो गया है. इसके बाद राजा ने एक साधु के सुझाव पर सदाचार के तावीज बनवाने का कारखाना खुलवा दिया ताकि उन्हें पहनकर सब भ्रष्टाचार से तौबा कर लें हालांकि इसका कोई फायदा हुआ नहीं.
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एक ऐसे दौर में जब कामयाबी के लिए किसी भी शॉर्टकट को अक्सर मान्यता दे दी जाती है और उस तक पहुंचने के रास्तों पर चर्चा नहीं होती, परसाई ने अपने व्यंग्य ‘पगडंडियों का जमाना’ में क्या मारक लिखा है--"लगता है आम सड़कें अब भविष्य के पुरातत्ववेत्ताओं को ही मिलेंगीं. वह निष्कर्ष निकालकर बताएगा कि उस जमाने में इस देश में आम सड़कें तो थीं पर कोई उन पर चलता नहीं था. सब पगडंडी पकड़ते थे."

प्रेमचंद देश के सबसे बड़े कहानीकार माने जा सकते हैं. जिन्होंने अपने वक्त की कहानियों को दस्तावेज की तरह सामने रखा. उन्हीं प्रेमचंद की एक तस्वीर है. बड़ी पुरानी. अपनी पत्नी के साथ. जिसमें उनका फटा जूता दिख रहा है. परसाई की नजर से ये जूता चूक नहीं पाता. वो लिखते हैं--

प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है. दाहिने पांव का जूता तो ठीक है पर बायें जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से उंगली बाहर निकल आयी है. चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं है. तुम्हारा जूता कैसे फट गया? मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज को ठोकर मारते रहे हो. कोई चीज जो परत-दर-परत सदियों से जमती गयी है. तुम क्या पांव की उंगलियों से उसकी तरफ इशारा कर रहे हो जिसे ठोकर मारते मारते तुमने जूता फाड़ लिया.
व्यंग्य ‘प्रेमचंद के फटे जूते’ का अंश
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हरिशंकर परसाई की लेखनी में जितना तेज था, वो आसानी से बड़े सरकारी पदों पर तमाम सुख-सुविधाओं के बीच जिंदगी बिता सकते थे. लेकिन उन्होंने वो नहीं चुना. जहां जो गलत लगा, उसकी बखिया उधेड़ने में परसाई ने देर नहीं लगाई. परसाई की कलम हमारे वक्त का आईना है और यकीन मानिए कि उसमें हम बहुत बदसूरत नजर आते हैं. 1982 में परसाई को उनके व्यंग्य संग्रह- विकलांग श्रद्धा का दौर के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. परसाई की लिखी किताबों में- वैष्णव की फिसलन, सदाचार का तावीज, रानी नागफनी की कहानी, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, भोलाराम का जीव अहम हैं. पूरी जिंदगी अपनी लेखनी से समाज और देश को कुछ कहने और बदलने की कोशिश करता रहा ये रचनाकार 10 अगस्त 1995 को हमारे बीच से चला गया.

चलते-चलते उनके व्यंग्य मैं नर्क से बोल रहा हूं! से वो शुरूआती अंश जो आपको कुछ सोचने पर मजबूर कर देगा--

हे पत्थर पूजने वालों! तुम्हें जिंदा आदमी की बात सुनने का अभ्यास नहीं, इसलिए मैं मरकर बोल रहा हूं. जीवित अवस्था में तुम जिसकी ओर आंख उठाकर नहीं देखते उसकी सड़ी लाश के पीछे जुलूस बनाकर चलते हो. जिंदगी भर तुम जिससे नफरत करते रहे उसकी कब्र पर चिराग जलाने जाते हो. मरते वक्त तक जिसे तुमने चुल्लू भर पानी नहीं दिया, उसके हाड़ गंगाजी ले जाते हो. अरे, तुम जीवन का तिरस्कार और मरण का सत्कार करते हो. इसीलिए मैं मरकर बोल रहा हूं. मैं नर्क से बोल रहा हूं.

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