देश के प्रमुख त्योहारों में से एक मकर संक्रांति आज देशभर में मनाई जा रही है. तिथि के हिसाब से ये त्योहार 13, 14 या 15 जनवरी को पड़ता है. यह इस बात पर निर्भर करता है कि सूर्य कब धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है.
इस साल की मकर संक्रांति इसलिए भी खास है, क्योंकि प्रयागराज में कुंभ महापर्व की शुरुआत भी इसी से हुई है.
इस दिन से सूर्य की उत्तरायण गति की शुरुआत होती है, इसी वजह से इसको 'उत्तरायणी' भी कहते हैं. आइए जानते हैं, भारतीय समाज में आखिर क्यों मकर संक्रांति का इतना महत्त्व है.
जुड़ी हैं कई पौराणिक कथाएं
कहा जाता है कि इस दिन भगवान विष्णु ने असुरों का संहार कर लंबे समय से देवताओं और असुरों के बीच जारी युद्ध के समाप्ति की घोषणा की थी. साथ ही सभी असुरों के सिरों को मंदार पर्वत में दबा दिया था. इस तरह यह दिन बुराइयों और नकारात्मकता को खत्म करने का दिन भी माना जाता है.
यह भी कहा जाता है कि गंगाजी को धरती पर लाने वाले राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए इस दिन तर्पण किया था. मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी राजा भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं. इसलिए मकर संक्रांति पर देश भर में कई जगहों पर गंगा किनारे गंगा सागर में मेला लगता है.
यशोदा जी ने जब कृष्ण जन्म के लिए व्रत किया था, तब सूर्य देवता उत्तरायण हो रहे थे और उस दिन मकर संक्रांति थी. कहा जाता है तभी से मकर संक्रांति व्रत का प्रचलन शुरू हुआ.
महाभारत में भी इसी दिन का उल्लेख किया गया है, क्योंकि भीष्म पितामह ने मकर संक्रांति के दिन प्राण त्यागे थे और मोक्ष प्राप्त किया था. इससे पहले वे बाणों की शैया पर कष्ट सहते हुए उत्तरायण का इंतजार करते रहे.
मान्यता है कि दक्षिणायन अंधकार की अवधि है, इसलिए उस वक्त मृत्यु होने पर मनुष्य को मुक्ति नहीं मिलती. वहीं, सूर्यदेव का उत्तरायण होना शुभ माना जाता है, क्योंकि यह प्रकाश की अवधि होती है. इसलिए भीष्म पितामह ने शरीर त्याग करने के लिए इसी दिन को सबसे उपयुक्त माना.
इस पर्व से जुड़ी एक पुरानी मान्यता यह भी है कि इस दिन भगवान सूर्य अपने बेटे शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाया करते हैं. चूंकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, इसलिए इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है.
पर्व एक, मनाने की विधियां अनेक
भारत के अलग-अलग प्रदेशों में मकर संक्रांति के पर्व को अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है. हर प्रांत में इसका नाम और मनाने का तरीका अलग-अलग होता है.
आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक में इसे केवल संक्रांति कहा जाता है और तमिलनाडु में इसे पोंगल पर्व के रूप में मनाया जाता है. पंजाब और हरियाणा में इस समय नई फसल का स्वागत किया जाता है और संक्रांति से एक दिन पहले लोहड़ी पर्व के तौर पर मनाया जाता है.
वहीं असम में बिहू के रूप में इस पर्व को उल्लास के साथ मनाया जाता है. ऐसी मान्यता है कि मकर संक्रांति के दिन गंगा, यमुना और सरस्वती के त्रिवेणी संगम, प्रयाग में सभी देवी-देवता अपना स्वरूप बदलकर स्नान के लिए आते हैं. इसलिए मान्यता है कि इस दिन गंगा और दूसरी पवित्र नदियों में स्नान करने से सभी कष्टों का निवारण हो जाता है.
अलग-अलग पकवानों का स्वाद
अलग-अलग प्रांतों और मान्यताओं के हिसाब से इस पर्व के पकवान भी अलग-अलग होते हैं, लेकिन उत्तर भारत में दाल और चावल से बनी खिचड़ी इस पर्व की प्रमुख पहचान बन चुकी है. खासतौर से गुड़ और घी के साथ खिचड़ी खाने का विशेष महत्व है.
इसके अलावा, मकर संक्रांति के पर्व में तिल और गुड़ का भी बेहद महत्व है. इस दिन सुबह जल्दी उठकर तिल का उबटन लगाकर स्नान किया जाता है. इसके अलावा तिल और गुड़ के लडडू और इनसे बने कई तरह के पकवान भी बनाए जाते हैं और एक-दूसरे को भेंट किये जाते हैं.
बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में दही-चूड़ा और तिल के पकवान खाने और खिलाने का रिवाज है.
दान-पुण्य का महत्व
मान्यता है कि मकर संक्रांति के दिन किया गया दान सौ गुना बढ़कर दान करने वाले के पास वापस आता है. इसलिए भगवान सूर्य को अर्घ्य देने के बाद पूजन करके घी, तिल, कंबल और खिचड़ी का दान किया जाता है. इस दिन गंगा तट पर दान करने की विशेष महिमा है.
ये भी पढ़ें - मकर संक्रांति 2019: तिल के लड्डू खाने के फायदे जानते हैं आप?
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)