दो जहानों की सुंदरता और विविधता से अपनी झोली गर एक ही दिन में भरनी हो तो दक्षिण स्पेन से मोरक्को के बीच घूम आना चाहिए. भूमध्य सागर के रास्ते जिब्राल्टर की चट्टान की झलक पाने की कोशिश करते हुए घंटे भर में यूरोप से अफ्रीका और उसी रात वापस यूरोप पहुंचा जा सकता है. चूंकि यात्रा में कई अंतरदेशीय पड़ाव हैं, कम वक्त में टूर ऑपरेटरों की मदद लेना ही बेहतर.
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दोनों देशों के टूर ऑपरेटर बड़ी दक्षता से साथ मिलकर काम करते हैं. दिक्कत बस ये कि चंद घंटे बिताने के लिए भी मोरक्को की सरकार पूरा वीजा वसूलती है और चूंकि लौटकर वापस स्पेन ही आना होता है इसलिए यहां के लिए भी मल्टीपल एंट्री वीजा की दरकार. इन जहाजों पर बकायादा ड्यूटी फ्री दुकानें भीं होती हैं जो केवल उसी दौरान खुली होती हैं जब जहाज चल रहा हो.
हमारी यात्रा स्पेन की सांस्कृतिक राजधानी ‘सेविया’ से शुरू होनी थी. तय समय पर सुबह के धुंधलके, स्टॉप पर सहयात्री पहले से इंतजार करते मिले, आधे से ज्यादा अमरीकी और बाकी दूसरे यूरोपीय देशों से. तरीफा तक की यात्रा सबके साथ 18 सीटों वाली बस में, उतरने तक सब ऐसे घुले-मिले जैसे बरसों की पहचान हो.
तरीफा यानि हवाओं का जन्मस्थल. स्पेन में उत्तर की ओर जाने वाली हवाओं की अठखेलियां इसी शहर से शुरु होती हैं. शहर में दोनों तरफ खड़े विंड मिल जैसे इन हवाओं की शरारतें कैद करने को तैनात. तरीफा से छोटे-बड़े फेरी, जहाज और स्टीमर हर आधे घंटे में मोरक्को के टैंजीयर्स के लिए निकलते हैं.
यूं तो जहाज में बैठने को साफ-सुंदर कुर्सियों का मुकम्मल इंतजाम है लेकिन बाहर समुद्र की हिलोरें और ठंढीं हवाएं इतनी तन्मयता से अपनी ओर खींचतीं हैं कि लगभग सारे यात्री डेक पर खड़े, समुद्र और आसमान के घुल-मिल गए नीलेपन को निहारने में मगन दिखे. जो सज्जन सिर झुकाए लैपटॉप में व्यस्त थे उन्होंने भी उतरने से पहले उदासीनता की सफाई दे डाली, “काम के सिलसिले में महीने में तीन-चार बार आना-जाना हो जाता है”. यूं उस ओर रोज आने-जाने वालों की भी कमी नहीं, लेकिन उनके लिए निचली मंजिल पर गाड़ी समेत घुस आने का भी प्रावधान है.
गंतव्य, सुसज्जित नाट्य मंच पर नए परदे के उठने जैसी अनुभूति ले आया. तरीफा से टेंजीयर्स तक शांत-गंभीर हिलोरें लेती लहरें किनारे पर पहुंचते ही छुट्टियों में घर लौटे बच्चों सी मचलने लगीं हैं. किनारे पर उनके गहरे नीले रंग में हरापन भी झलक आया. हमारे आगमन से उदासीन टैंजीयर्स, सफेदी की चादर ओढ़े चुपचाप खड़ा मिला. एक ओर भूमध्य सागर तो दूसरी ओर एटलांटिक महासागर के मुहाने पर बसा ये पहाड़ी शहर मोरक्को की ग्रीष्म कालीन राजधानी भी है.
अगवानी को संतरी सी मुस्तैदी लिए राशिद भाई तैयार थे, हरी टोपी और भूरे धारीदार चोगे में. आगे के चार-छह आड़े-तिरछे दांतों के अलावा पोपला मुंह लेकिन उत्साह ऐसा कि मिनट भर में छूत लग जाए.
शहर की भूल भुलैया में हमारी दिन भर की सैर कराने की जिम्मेदारी थी सो उनकी एक्स रे सी नजरों ने 16 लोगों की पीठ पर नंबर का ठप्पा सा लगा दिया था जैसे. यूरोपीय और अमेरिकनों की टोली में भारतीय चेहरे देखते ही किलक पड़े, “मेरा नाम शाहरुख खान है और मेरे भाई का नाम शम्मी कपूर”, उन्होंने अपनी तीन इंच की मुस्कान ने आड़े-तिरछे सारे दांत खोल दिए.
अमरीकी और यूरोपीय साथी आंखे फाड़े इस नई दुनिया को निहारते रहे और हम, टीम के इकलौते भारतीय, कौतुक से उनका उतावनापन देखते खड़े रहे. स्थानीय बच्चे अपनी पारंपरिक पोशाक में गधे लिए खड़े थे. एक यूरो देकर चाहे उनके सजे-धजे गदहों के साथ तस्वीर खिंचा लो या दो यूरो देकर ऊंट की सवारी कर लो. ऊंट तक तो फिर भी ठीक लेकिन गधे के साथ तस्वीर के ऑफर पर भारतीय हंसे ना तो क्या करे भला.
टैंजीयर्स को अपना नाम टैंजरीन यानि संतरे से मिला. रोमन मिथकों में उनके देवता हरक्यूलिस ने संतरे की चोरी कर यहां छुपने की जगह ढूंढी थी. हरक्यूलिस की 4500 साल पुरानी गुफा, मिथक से इतर भी रोमन साम्राज्य की निशानियां समेटे, अपना आकर्षण अब तक सहेजे हुए है.
टैजीयर्स जब रोमन साम्राज्य के अधीन था, रोमन सैनिक इस गुफा से पत्थर काट उसका इस्तेमाल अनाज और ऑलिव पीसने की चक्की बनाने के लिए किया करते. गुफा की छत और दीवारों पर उन पत्थरों को काटे जाने के निशान अभी भी मौजूद हैं. गुफा के मुहाने पर जिस ओर सागर दस्तक देता है वो अफ्रीका के नक्शे के समान नजर आता है.
समृद्ध देशों से आए सैलानियों के लिए मुस्लिम बहुल अफ्रीकी देश की तंग गलियों और बाजारों से होकर गुज़रना ही सैर का सबसे अनूठा अनुभव होता हो. छोटी दुकानें, महंगे अंतरराष्ट्रीय ब्राडों की नकल वाले सामान, मसालों, ऑलिव और खजूर के ढेर के बीच बैठे आवाज लगाते दुकानदार और सैलानियों के पीछे-पीछे दूर तक चलते आते फेरी वाले. हमारे लिए सब-कुछ परिचित माहौल में लौट जाने सा था. पैसों के मामले में टैंजीयर्स में बड़ा समभाव है, यूरो, डॉलर, दिरहम किसी में भी मजे में खरीद फरोख्त की जा सकती है.
उम्मीद के मुताबिक लंच के लिए राशिद भाई संकरी गलियों के बीच खालिस मोरक्कन रेस्तरां में ले गए. पारंपरिक संगीत के बीच टमाटर सूप और चिकन कबाब. फिर मोटी सूजी, चिकन और सात सब्ज़ियों को डाल कर पकाया गया मेन कोर्स कुसकुस (Couscous) और सलाद और आखिर में कुकीज के साथ मिंट टी. खाने के बीच संगीत रुका और बेली डांसर को भी लाया गया. लंच के समय नृत्य थोड़ा अटपटा तो लगा लेकिन 35 मिनट में हमें मोरक्को के लोक और स्वाद दोनों परोसे जाने का इससे बेहतर तरीका शायद दूसरा ना हो.
राशिद भाई हर पड़ाव पर अपनी टोली के लोगों की गिनती करना नहीं भूलते, यूं भी जिन संकरी गलियों के बीच हमारा रास्ता तय था, अगर टोली से बिछड़ते तो ढूंढ पाना नामुमकिन ही होता. एक के बाद एक कई कॉलोनियों के बीच से गुजरते हुए जैसे हम इतिहास के जर्जर पन्नों को सावधानी से पलट रहे थे. ऐसे पन्ने जिन्हें शायद हम जैसे सैलानियों के लिए ही सहेज कर रखा गया था.
बलिश्त भर के रास्तों के दोनों ओर बसी यहूदी और एंडालूसियन बस्तियां वक्त के अंतराल पर बार-बार दोहराई गईं उस क्रूरता की कहानी कहती रहीं जब किसी सनकी-ताकतवर राष्ट्रध्यक्ष के फैसले पर उन्हें अपना बसा बसाया घर छोड़ रातों रात नए आश्रय की तलाश में भागना पड़ा. यूं हर नई पीढ़ी में कुछ परिवार बेहतर जिदगी की तलाश में इन गलियों को छोड़ गए लेकिन कुछ अनचीन्हा देख पाने को हमारी तलाशती नजरों की तसल्ली के लिए गलियों में बंद कुछ परिवार अब भी मौजूद थे. नानबाई की दुकान, नीले-सफेद रंग के दरवाजे और उनके बाहर सूनी आंखों से देखते बुजुर्ग.
सैलानी के तौर पर वक्त की कछार पर छूट गए अवशेष ही हमें हासिल होते हैं. इतिहास की आस्था, धर्म, हिंसा, व्यभिचार, वैभव, विश्वास, एक समय बाद सबको टूरिस्ट स्पॉट बन कर एकसार हो जाना है.
नुक्कड़ की चहल-पहल वाले रेस्तरां हमारा आखिरी पड़ाव थे जहां घूमने का समय देकर राशिद भाई हमें वापस पोर्ट की ओर ले चले. इस बार पैदल. तब एहसास हुआ कि इतने घंटे घूम-घाम कर हम वहीं पहुंच लिए जहां से सुबह निकले थे. हमारे झोले में स्थानीय सजावटी सामानों की सौगात थी और ढेर सारे चीन्हे-अनचीन्हे अनुभव. राशिद भाई एक-एक को गर्मजोशी से विदा करते हाथ हिलाते रहे. शहर शांत था और सागर अपनी ओर पुकारता. दिन खत्म होने को था लेकिन गर्मी की शाम जिद्दी बच्चे सी घर लौटने को तैयार ना थी.
हमें फिर जिब्राल्टर की चट्टान को ढूंढते यूरोप की जमी पर वापस पहुंचना था. लेकिन लौटते वक्त जाने क्यों डेक पर खड़े होने का मन नहीं किया. भीतर अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे ही शीशे के इस पार से सागर की बातें सुनते रहे.
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