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136 साल बीत गए, भारतीय कला जगत के पापा अब भी पिकासो हैं

कला का नाम आते ही आंखों के सामने पिकासो की तस्वीर घूम जाती है.

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अगर अमृत पान का सौभाग्य मिला होता, तो पाबलो पिकासो की उम्र आज 136 साल होती. जरा सोचिये, जयंती या पुण्यतिथि तो प्रेरणा देने की वजह होती है. आप इसे बहाना भी कह सकते हैं. महान कलाकारों और बुद्धिजीवियों को याद करने का बहाना, जिन्होंने किसी न किसी रूप में हमारी जिंदगी पर अपनी छाप छोड़ी है. कला का नाम आते ही आंखों के सामने पिकासो की तस्वीर घूम जाती है.

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उनकी तस्वीरों का संग्रह, अक्सर उन्हें एक चंचल और अभिमानी व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करते हैं. दरअसल, उनकी सबसे अधिक याद दिलाती है धारीदार ब्रेटन टी शर्ट, जिसे पारम्परिक रूप से फ्रेंच नाविकों के लिए डिजाइन किया गया था. इसके अलावा स्पैनिश कलाकार में अव्यवस्थित गंभीरता भी थी, जिसे, आलोचक जॉन बरगर की किताब, “The Success and Failure of Picasso” में बखूबी उकेरा गया है.

नाकामी? राजनीतिक विचारधारा के चश्मे से देखा तो कला की आलोचना की जा सकती है. निश्चित रूप से बरगर की सोच में कुछ मुद्दे सही थे. लेकिन कलात्मक रूप से पिकासो अपने समय की परीक्षा में उत्तीर्ण थे और निश्चित रूप से अब तक के महानतम कलाकारों में शुमार हैं.

आउटपुट हो या थीम, एक कामयाब कलाकार के रूप में रचनात्मकता के हर पहलू में वो प्रशंसनीय हैं. उदाहरण के लिए, जब मैंने मशहूर फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल से उनकी प्रतिभा के बारे में जानना चाहा, तो उन्होंने कहा,

पिकासो एक दायरे में बंधे हुए नहीं थे. अपनी कलाकृतियों, मूर्तिकला, मिट्टी के पात्र बनाने की कला, और प्रिंट के अलावा वो थियेटर की पृष्ठभूमि भी डिजाइन करते थे. उनकी कलात्मकता बेहद व्यापक थी.
श्याम बेनेगल, फिल्म निर्माता
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इस व्याख्या से मुझे भारतीय संदर्भ में पिकासो की प्रासंगिकता समझ में आती है. निश्चित रूप से भारतीय कला के आधुनिकीकरण में उनके प्रभाव की व्याख्या करने वाले अनगिनत शोध हैं. एफ एन सूजा ने महान कलाकार से काफी कुछ सीखा है.

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पिकासो की Les Demoiselles D’Avingnon और सूजा की Young Ladies in Belsize Park के बीच समानताएं इसका पक्का सबूत हैं. इसके अलावा सूजा ने पिकासो की कला में विविध रंगों, ज्यामितीय आकारों तथा चेहरे के भावों को प्रमुखता से जोड़कर निखारने की कोशिश की.

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विडम्बना है कि सूजा के मित्र और एक समय दुश्मनागत पालने वाले एम एफ हुसैन को भारत का पिकासो कहा जाता है. Guardian ने हुसैन के लिए अपनी श्रद्धांजलि में लिखा था, “the barefoot Picasso of India.” 1947 में आरम्भ हुए बॉम्बे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट मूवमेंट में सूजा और हुसैन, दोनों शामिल थे. उन दिनों उनके आपसी सम्बंधों में खटास थी. बाद में उनके बीच एकतरफा मेलमिलाप हुआ. हुसैन ने आपसी मतभेदों को कैनवस की जंग से अलग रखना उचित समझा था.

सुनकर अजीब लगता है, लेकिन अक्सर महान कलाकारों के अपने समकालिकों से मतभेद होते हैं. पिकासो और साल्वाडोर डली के रिश्ते भी ऐसे ही थे. उन दोनों के सम्बंधों में कला के रूप, शैली और उस समय की राजनीति की वजह से इस कदर मतभेद पनपे कि डली ने पिकासो की मानसिकता को विकृत करार दे डाला.

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अब हुसैन और पिकासो की तुलना के विषय की ओर लौटते हैं. क्या वो इस तुलना से चिढ़ते थे या उन्हें कोई बात चुभ गई थी? हुसैन को उनके दोस्त और यहां तक कि उनका बेटा ओवैस भी भारत का पिकासो या कभी-कभार भारत का एंडी वारहोल कहते थे. इसपर उनकी राय थी:

हो सकता है कि वो सही हों. लेकिन मैं पिकासो की नकल नहीं करता. मेरी कला भारतीय मिट्टी से उपजती है, न कि पश्चिमी स्रोतों से.
ओवैस,
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सबूत के तौर पर हुसैन ने जमीन नामक पेंटिग का जिक्र किया, जो इन दिनों दिल्ली के नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट में रखी है. हालांकि हुसैन ने ये भी माना कि 1990 में भोपाल गैस त्रासदी पर बनाई उनकी तस्वीर भोपाल पिकासो की मशहूर युद्ध-विरोधी तस्वीर Guernica से प्रेरित थी.

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“महान तस्वीरों को दूसरे चित्रकार की आंखें ही समझ सकती हैं,” हुसैन का कहना था.

“रेमब्रांट की The Night Watch से मैं काफी प्रभावित था... लिहाजा आप ये नहीं कह सकते कि मुझपर सिर्फ पिकासो का असर था. अन्यथा मैं सिर्फ नकलची बनकर रह जाउंगा. है कि नहीं?”

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तो क्या इसे स्पष्ट जवाब समझा जाए? हुसैन पर पिकासो का असर था या नहीं?

लंदन के टाटा आर्ट गैलरी में आयोजित मैराथन सवाल-जवाब सत्र के दौरान एम एफ गुसैन ने औपचारिक आलंकारिक कला पर ऐतराज जताया था. उनका मानना था कि ये कला पिकासो की कला के विपरीत नीरस और व्याख्यात्मक है.

थोड़ा ठहरकर और ‘सपाट नजरों से मुझे देखते हुए’ उन्होंने जवाब दिया था, “मैं मानता हूं कि उन्होंने मुझ समेत अनगिनत कलाकारों को प्रेरणा दी. उनसे मैंने चित्र बनाने का जज़्बा और प्रासंगिकता के अलावा शोमैनशिप सीखा. लेकिन अगर आप मुझसे उस समय के क्यूबिज्म या ब्लू पीरियड की नकल करने के बारे में पूछते हैं, तो मैं कहूंगा कि आप सतही बात कर रहे हैं. अगर आप ध्यान से मेरे कार्यों का अध्ययन करें, तो अक्सर मैं चेहरे की विशेषताओं को यथावत रखता हूं, उन्हें विकृत नहीं करता.”

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भारतीय कला प्रेमियों को पिकासो की तस्वीरें विदेशी संग्रहालयों में ही देखने को मिलेंगी. उनमें बार्सिलोना तथा पेरिस में पिकासो म्यूजियम सबसे मशहूर हैं.

भारत में 2002 से पिछले वर्ष तक कुछेक पिकासो शो आयोजित हुए हैं. इनका आयोजन दिल्ली के NGMA और वधेरा आर्ट गैलरी में हुआ है. वोल्लार्ड सूट को, जिसने पिकासो की 100 तस्वीरों की प्रदर्शनी लगाई थी, एक बार आर्ट डीलर तथा पब्लिशर एम्ब्रॉइस वोल्लार्ड ने प्रायोजित किया था और ये सेरवान्तेस इंस्टीट्यूट में आयोजित की गई थी.

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पिकासो की एक पेंटिग मुंबई में मुकेश अम्बानी के घर एन्तीलिया में भी देखी बताई जाती है, लेकिन न तो इसके शीर्षक का पता चला और न ही इसकी मौजूदगी की पुष्टि हुई. गैलरी के मालिकों का मानना है कि कुछ ही भारतीयों के पास पिकासो की पेंटिंग मौजूद है. जरूरी नहीं कि ये पेंटिग मशहूर हों. ये सामान्य चित्र हो सकते हैं, जिनकी कुछ ही प्रतियां उपलब्ध हों.

भारत से एक और सम्बंध: साल 1990 में इस्माइल मर्चेंट तथा जेम्स आइवरी ने फिल्म सर्वाइविंग पिकासो बनाया था, जिसकी पटकथा रूथ प्रावर झाबवेला ने लिखी थी और एंथनी हॉप्किंस ने पिकासो की भूमिका निभाई थी. ये फिल्म एक संघर्षरत चित्रकार के निजी जीवन पर आधारित थी, जिसकी शिकायत थी कि चोरों से उसके घर से कपड़े तो चोरी कर लिये, लेकिन उसकी बनाई पेंटिंग्स छोड़ दीं! ये फिल्म मर्चेंट-आइवरी की बेहतरीन फिल्मों में से नहीं थी, लेकिन एक अलग विषय पर बनी थी.

भारत में उनकी विरासत विशाल है. उस विश्व प्रसिद्ध शख्सियत के पोस्टर और प्रिंट चुनिन्दा संग्रालय बूटिक्स में ही उपलब्ध हैं. विन्सेंट वान गॉग के Sunflowers और पिकासो के Don Quixote के पोस्टर अक्सर उच्च वर्गीय भारतीयों के घरों में देखने को मिल जाते हैं.

बताने की आवश्यकता नहीं, कि थोड़ा हो, या अधिक, सूजा और हुसैन पर पिकासो का असर था या नहीं.

(लेखक एक फिल्म आलोचक, फिल्म निर्माता, थियेटर निर्देशक तथा सप्ताहांत में एक चित्रकार भी हैं.)

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(ये आलेख सर्वप्रथम 25 अक्टूबर, 2015 को प्रकाशित हुआ था. पाबलो पिकासो की पुण्यतिथि पर द क्विंट ने इसे फिर से प्रकाशित किया है.)

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