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दिनकर, जिनकी ओजपूर्ण कविताएं आज भी रगों में जोश भर देती हैं 

क्‍या दिनकर की कविताएं आज भी लोगों के दुख-दर्द और निराशा के बीच आशा की किरण दिखलाने की क्षमता रखती हैं?

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देशभक्‍त‍ि में सनी कई रचनाओं को लोगों की रगों तक उतारने वाले रामधारी सिंह 'दिनकर' को राष्‍ट्रकवि का दर्जा हासिल है. कई कालजयी रचनाओं की अनमोल धरोहर देने वाले इस महाकवि की आज पुण्यतिथि है. इस बहाने उनके जीवन और कुछ बेहद चर्चित रचनाओं पर गौर करना जरूरी है.

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जीवन-परिचय (23 सितंबर, 1908- 24 अप्रैल, 1974)

बिहार के बेगूसराय जिले (तब के मुंगेर) के सिमरिया गांव में किसान परिवार में जन्‍म. जब ये 2 बरस के थे, तब इनके पिता का देहांत हो गया. 13 साल की अवस्‍था में विवाह हुआ, 15 साल में मै‍ट्रिकुलेशन की परीक्षा पास की. अपने प्रांत में हिंदी में सबसे ज्‍यादा नंबर लाने पर भूदेव स्‍वर्ण पदक पुरस्‍कार मिला. 1932 तक पटना कॉलेज के छात्र रहे. इतिहास से बीए ऑनर्स किया.

पहले स्‍कूल टीचर बने, फिर 1942 तक सब-‍रजिस्‍ट्रार. 1947 में बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग में डिप्‍टी डायरेक्‍टर बने. पोस्‍ट ग्रेजुएशन किए बिना ही अपनी प्रतिभा के बूते कॉलेज में लेक्‍चरर नियुक्‍त हुए. 12 साल तक राज्‍यसभा सदस्‍य रहे, फिर भागलपुर विश्‍वविद्यालय में कुलपति बने. इसके बाद केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय में हिंदी सलाहकार मनोनीत हुए.

दिनकर की प्रमुख कृतियां: एक नजर में

कविता संग्रह

  • रेणुका (1935) : देशभक्‍त‍ि से सनी क्रांतिकारी कविताओं का संग्रह
  • धुंधार (1938)
  • कुरुक्षेत्र (1946): प्रबंध काव्‍य. युद्ध-शांति, हिंसा-अहिंसा जैसे विषयों पर विचार
  • रश्मिरथी (1952): महाभारत के नायक कर्ण के जीवन पर आधारित खंडकाव्‍य
  • उर्वशी (1961): महाकाव्‍य

गद्य संग्रह

  • मिट्टी की ओर (1946)
  • अर्धनारीश्‍वर (1952)
  • धर्म, नैतिकता और विज्ञान (1959)
  • भारतीय एकता (1970)
  • विवाह की मुसीबतें (1974)
दिनकर ने छात्र रहते हुए स्‍वाधीनता संघर्ष को बहुत करीब से देखा. तब राष्‍ट्रवाद, आजादी, समाजवाद, साम्‍यवाद जैसी चीजें हवा में बहुतायत में घुली हुई थीं. जाहिर है कि इनके लेखन पर इन चीजों का असर पड़ना ही था.

इनकी कृतियों की कुल तादाद करीब 60 है, जिनमें 33 काव्‍य और 27 गद्य ग्रंथ हैं. गद्य में ज्‍यादातर निबंधों का संकलन है. दिलचस्‍प बात यह है कि करीब 20 साल कविताएं लिखने के बाद गद्य की ओर इनका झुकाव हुआ.

1959 में पद्मभूषण की उपाधि दी गई. 1973 में उर्वशी के लिए ज्ञानपीठ पुरस्‍कार मिला.

सवाल उठता है कि दिनकर ने उस दौर में जो कविताएं लिखीं, क्‍या वे आज के दौर में भी प्रासंगिक हैं? क्‍या उनकी रचनाएं उन समस्‍याओं को सुलझाने का माद्दा रखती हैं, जो आज हमारे सामने मुंह बाए खड़ी हैं? क्‍या उनकी कृतियां आज भी लोगों के दुख-दर्द और निराशा के बीच आशा की किरण दिखलाने की क्षमता रखती हैं?

इन तमाम सवालों के जवाब ढूढने के लिए हम दिनकर की कुछ कविताओं पर एक बार फिर से नजर डालते हैं.

आज दुनिया के ज्‍यादातर देश नीतिगत तौर पर अमन-चैन के पक्ष में हैं. लेकिन दिलचस्‍प बात तो यह है कि उनमें से कई देश तो शांति कायम करने के लिए ही युद्ध या इस जैसे तरीकों का सहारा ले रहे हैं. अपने पास-पड़ोस की स्‍थ‍िति भी ज्‍यादा जुदा नहीं है.

ऐसे में दिनकर की ये कविता इशारों-इशारों में बहुत साफ संदेश दे रही है.

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समर शेष है....

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो,

किसने कहा, युद्ध की बेला चली गयी, शांति से बोलो?

किसने कहा, और मत वेधो ह्रदय वह्रि के शर से,

भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?

तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान.

फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले!

ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!

सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,

दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है.

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,

ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार.

वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है

जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है

देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है

माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है

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पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज

सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?

तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?

सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?

उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में

समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा

और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा

जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा

धारा के मग में अनेक जो पर्वत खड़े हुए हैं

गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं

कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे

अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे

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समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो

शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो

पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोड़ेंगे

समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर

खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं

गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं

समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है

वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल

विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना

सावधान हो खड़ी देश भर में गाँधी की सेना

बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे

मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध.

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आजादी के 72 साल बाद भी देश के किसानों की हालत में अभी भी ज्‍यादा बदलाव नहीं आया है. कुछ प्रांतों के समृद्ध किसान जरूर खुशहाल हैं, लेकिन ज्‍यादातर भागों के किसान आज भी बदहाली से उबरने के इंतजार में हैं. अगर कोई शक हो, तो हाल के किसान आंदोलनों को याद कर लीजिए.

अनाज उपजाने वाले ‘धरती के भगवान’ की सूरत तब से लेकर अब तक कितनी बदली है, इसका अंदाजा इस कविता को पढ़कर लगाया जा सकता है.

हमारे कृषक

जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है

छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है

मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है

वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है

बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं

बंधी जीभ, आँखें विषम गम खा शायद आँसू पीते हैं

पर शिशु का क्या, सीख न पाया अभी जो आँसू पीना

चूस-चूस सूखा स्तन माँ का, सो जाता रो-विलप नगीना

विवश देखती माँ आँचल से नन्ही तड़प उड़ जाती

अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती

कब्र-कब्र में अबोध बालकों की भूखी हड्डी रोती है

दूध-दूध की कदम-कदम पर सारी रात होती है

दूध-दूध औ वत्स मंदिरों में बहरे पाषान यहाँ है

दूध-दूध तारे बोलो इन बच्चों के भगवान कहाँ हैं

दूध-दूध गंगा तू ही अपनी पानी को दूध बना दे

दूध-दूध उफ कोई है तो इन भूखे मुर्दों को जरा मना दे

दूध-दूध दुनिया सोती है लाऊँ दूध कहाँ किस घर से

दूध-दूध हे देव गगन के कुछ बूँदें टपका अम्बर से

हटो व्योम के, मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं

दूध-दूध हे वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं.

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दुनिया के अन्‍य देशों के बीच भारत की छवि सहनशील राष्‍ट्र की है. इस इमेज की वजह से कूटनीतिक तौर पर देश को नुकसान भी उठना पड़ा है. ये ठीक है कि बुद्ध और महावीर के इस देश ने सहनशीलता, क्षमा, दया, करुणा जैसे मानवीय मूल्‍यों के दम पर ही ‘विश्‍वगुरु’ का दर्जा हासिल किया. लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि उन गुणों की अधि‍कता कहीं हमारी कमजोरी तो नहीं बनती जा रही है?

दिनकर की ये कविता आज भी हर देशवासी को आंदोलित करने के लिए काफी है.

शक्ति और क्षमा

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल

सबका लिया सहारा

पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे

कहो, कहाँ, कब हारा?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष

तुम हुये विनत जितना ही

दुष्ट कौरवों ने तुमको

कायर समझा उतना ही.

अत्याचार सहन करने का

कुफल यही होता है

पौरुष का आतंक मनुज

कोमल होकर खोता है.

क्षमा शोभती उस भुजंग को

जिसके पास गरल हो

उसको क्या जो दंतहीन

विषरहित, विनीत, सरल हो.

तीन दिवस तक पंथ मांगते

रघुपति सिन्धु किनारे,

बैठे पढ़ते रहे छन्द

अनुनय के प्यारे-प्यारे.

उत्तर में जब एक नाद भी

उठा नहीं सागर से

उठी अधीर धधक पौरुष की

आग राम के शर से.

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि

करता आ गिरा शरण में

चरण पूज दासता ग्रहण की

बँधा मूढ़ बन्धन में.

सच पूछो, तो शर में ही

बसती है दीप्ति विनय की

सन्धि-वचन संपूज्य उसी का

जिसमें शक्ति विजय की.

सहनशीलता, क्षमा, दया को

तभी पूजता जग है

बल का दर्प चमकता उसके

पीछे जब जगमग है.

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प्रेम की भाषा इंसान ही नहीं, पशु-पक्षी या कोई सूक्ष्‍मजीव भी आसानी से समझ लेता है. इसका चेहरा भले ही वक्‍त के साथ थोड़ा-थोड़ा बदलता है, पर एहसास तो शाश्‍वत ही है. दिनकर की इन पंक्‍त‍ियों पर जरा गौर फरमाइए...

प्रेम

(1)

मंत्र तुमने कौन यह मारा

कि मेरा हर कदम बेहोश है सुख से?

नाचती है रक्त की धारा,

वचन कोई निकलता ही नहीं मुख से.

(2)

पुरुष प्रेम संतत करता है, पर, प्रायः, थोड़ा-थोड़ा,

नारी प्रेम बहुत करती है, सच है, लेकिन, कभी-कभी.

(3)

फूलों के दिन में पौधों को प्यार सभी जन करते हैं,

मैं तो तब जानूँगी जब पतझर में भी तुम प्यार करो.

जब ये केश श्वेत हो जायें और गाल मुरझाये हों,

बड़ी बात हो रसमय चुम्बन से तब भी सत्कार करो.

(4)

प्रेम होने पर गली के श्वान भी

काव्य की लय में गरजते, भूँकते हैं.

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वॉट्सऐप पर शादी-विवाह और पति-पत्‍नी के मधुर रिश्‍ते पर चुटीले कमेंट की भरमार देखने को मिलती है. ऐसे में दिनकर के सेंस ऑफ ह्यूमर को क्‍या हल्‍के में लिया जा सकता है.

(1)

शादी वह नाटक अथवा वह उपन्यास है,

जिसका नायक मर जाता है पहले ही अध्याय में.

(2)

शादी जादू का वह भवन निराला है,

जिसके भीतर रहने वाले निकल भागना चाहते,

और खड़े हैं जो बाहर वे घुसने को बेचैन हैं.

(3)

ब्याह के कानून सारे मानते हो?

या कि आँखें मूँद केवल प्रेम करते हो?

स्वाद को नूतन बताना जानते हो?

पूछता हूँ, क्या कभी लड़ते-झगड़ते हो?

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चलते-चलते...

देखिए, पत्रकारों को दिनकर की ये नसीहत कितने काम की है:

जोड़-तोड़ करने के पहले तथ्य समझ लो,

पत्रकार, क्या इतना भी तुम नहीं करोगे?

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