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बच्‍चों को सेहतमंद बनाने के 6 बेहतरीन नुस्खे

अपने बच्चों को एक बेहतर, सेहतमंद और खुशहाल भविष्य देने के लिए हम कुछ छोटे, लेकिन अहम कदम उठा सकते हैं.

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बच्चे हमारा भविष्य हैं और हमारी उम्मीद भी. लेकिन हमारे यही बच्चे सेहतमंद नहीं हैं. हमारे देश में 43 फीसदी बच्चे कम वजन के हैं, जो सभी विकासशील देशों में सबसे ज्यादा है. साथ ही दुनिया में मोटापे के शिकार बच्चों की दूसरी सबसे बड़ी तादाद हमारे देश में है. और तो और, एनीमिया, विटामिन बी12 और विटामिन डी की कमी के शिकार बच्चे भी हमारे यहां काफी ज्यादा हैं.

ये एक जटिल समस्या है और इसे दूर करने के लिए सभी संबंधित एजेंसियों और सरकारी संस्थाओं को कदम उठाने होंगे. लेकिन इस दौरान कुछ चीजें हैं, जो माता-पिता, स्कूल और समाज बदल सकते हैं. इनमें बड़ी चीजें हैं हमारा रवैया और जागरूकता.

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अपने बच्चों को एक बेहतर, सेहतमंद और खुशहाल भविष्य देने के लिए हम कुछ छोटे, लेकिन अहम कदम उठा सकते हैं. एक परिवार या समाज के तौर पर जो कदम उठा सकते हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण 6 बातें यही हैं:

1. ना कहना सीखें

यूरोपीय यूनियन में किशोरों में मोटापे की बढ़ती समस्या को समझने के लिए वहां पांच साल तक एक अध्ययन किया गया, जिसका नाम था ‘आई, फैमिली’. इस अध्ययन ने माता-पिता को संदेश दिया है, ना कहना सीखें.

अगली बार जब आपका बच्चा किसी आईपैड, चिप्स के पैकेट, कोला या चॉकलेट के लिए आपको तंग करे, तो आप दृढ़ता के साथ 'नहीं' कहें. अध्ययन के मुताबिक, बच्चों को भविष्य में कार्डियो-मेटाबोलिक सिंड्रोम से बचाने का यही तरीका है. इस सिंड्रोम से ग्रस्त बच्चे मोटापा, डायबिटीज, दिल की बीमारियों या फैटी लिवर के शिकार हो सकते हैं.

2. बच्चों को खेल-कूद के लिए बढ़ावा दें

पिछले पांच वर्षों से फैटी लिवर का शिकार होने वाले बच्चों की तादाद बढ़ती गई है. ये होता है हाइपरइन्सुलिनीमिया की वजह से, जिसमें शरीर की मांसपेशियां इन्सुलिन से प्रतिक्रिया करना बंद कर देती हैं और जरूरत से ज्यादा बन रहे इस हॉर्मोन का बोझ लिवर पर आ जाता है.

इसलिए जरूरी है कि बच्चों की उम्र के मुताबिक उनकी मांसपेशियों की मजबूती बढ़ाई जाए जिसके लिए बेहतर तरीका है खेल-कूद. इसलिए हर दिन कम से कम 90 मिनट तक बच्चों के खेल-कूद को हर चीज पर प्राथमिकता दें.

3. खाना पकाना सिखाएं

दुनियाभर में इस बात को माना जा रहा है कि बच्चों को 4 साल की उम्र से ही खाना पकाने के काम में शामिल करना चाहिए और इसे स्कूल के पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए.

अगर बच्चे ये सीखेंगे कि आटे में कितना पानी डालने के बाद वो रोटी बनाने लायक होता है, या कैसे एक चम्मच भर दही हल्के गर्म दूध में डालने से वो आठ घंटे के भीतर दही बन जाता है, तो इससे उनकी कल्पनाशीलता को भी बढ़ावा मिलेगा.

4. विज्ञापनों के प्रभाव में न आएं

चिली जैसे दक्षिण अमेरिकी देशों में बच्चों के लिए पैकेटबंद उत्पादों के विज्ञापन नहीं दिखाए जा सकते. दूसरी तरफ हमारे देश में टीवी स्क्रीन पर मम्मियां अपने बच्चे को कॉर्न सीरप या दूध में प्रिजर्वेटिव भरे पाउडर डालकर पिलाती हैं और बताती हैं कि कैसे इस वजह से उनके बच्चों की याददाश्त या कद बढ़ा है.

हम तो ज्यादातर समय कोला, चिप्स, इंस्टैंट नूडल्स वगैरह बेचने के लिए अपने सेलेब्रिटीज को भी जिम्मेदार नहीं मानते और इन प्रोडक्ट के लुभावने विज्ञापनों और गुनगुनाने लायक जिंगल्स के प्रभाव में आ जाते हैं.

फूड इंडस्ट्री की हरसंभव कोशिश होती है कि हम उनके रेडीमेड प्रोडक्ट्स खरीदें, लेकिन कुछ सोचें या पकाएं नहीं. काफी हद तक हमारा ‘कोलाकरण’ हो चुका है. इसलिए जब तक विज्ञापनों के लिए रेगुलेशन नहीं बनते, बच्चों को विज्ञापन के फायदे-नुकसान सिखाने की जिम्मेदारी माता-पिता और स्कूलों की है.

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5. शराब को ना कहें

अपने 16 साल या 18 साल के बच्चे का परिचय शराब से कराने में कुछ भी अच्छा नहीं है. इसकी बजाय आपको उन्हें गैर-संक्रामक रोगों से बचने के उपाय बताने चाहिए. शराब, तंबाकू, कमजोर खुराक और कसरत की कमी गैर-संक्रामक रोगों का खतरा बढ़ाने वाले चार कारक हैं.

बाकी तीन को तो हमने खतरा मान लिया है, लेकिन शराब को सामाजिक स्वीकार्यता मिलती जा रही है. इसे बदलने की जरूरत है और इसमें मीडिया और समाज को सक्रिय भूमिका निभानी होगी.

6. बराबरी को बढ़ावा दें

घर पर लड़के-लड़की के साथ होने वाले व्यवहार भी उनकी सेहत पर प्रभाव डालते हैं, जो हम समझ नहीं पाते, लेकिन लंबी अवधि में उन्हें महसूस कर सकते हैं. जब हम गांवों में देखते हैं कि छोटी-छोटी लड़कियां स्कूल से आकर यूनिफॉर्म पहने ही कपड़े धो रही हैं, जबकि लड़के खेत में क्रिकेट खेल रहे हैं, तो समझ लेना चाहिए कि कहीं न कहीं हम अपने घरों में भी ऐसा ही कुछ कर रहे होते हैं.

पापा टेलीविजन चैनल बदलते हैं, खाना पकाने का काम न के बराबर करते हैं और अपने गैजेट्स में डूबे रहते हैं, जबकि मां पूरी जिम्मेदारी के साथ घर के रोजमर्रा के काम पूरा करती हैं. ऐसा करके हम अपने बच्चों को ऐसा समाज नहीं दे रहे, जहां पुरुषों और महिलाओं में कोई अंतर न हो. इसे समझें और जितनी जल्दी हो सके, बदलें.

(स्रोत: ब्लूमबर्ग क्विंट)

(रुजुता दिवेकर भारत की दिग्गज न्यूट्रिशन और एक्सरसाइज साइंस एक्सपर्ट हैं. इस लेख में छपे विचार उनके हैं और क्विंट की उनसे सहमति जरूरी नहीं है.)

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