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अपना मुल्‍क छोड़ने का दर्द क्‍या होता, इन रिफ्यूजी से पूछिए

क्या आप निशानी के तौर पर अपने मकान की चाबियां लेंगे, जिसे कभी आप ‘घर’ कहा करते थे. 

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एक घर को बनाने में इंसान अपनी जिंदगी भर की कमाई लगा देता है. अगर आपको सपनों का ये घर छोड़ना पड़े, तो आप पर क्या बीतेगी, ये कल्पना करके भी आपको दुख होगा. लेकिन क्या कभी आपने किसी रिफ्यूजी के दर्द के बारे में सोचा है? उसे सिर्फ घर ही नहीं, अपना पूरा देश, अपनी पहचान, अपने रिश्तेदार और अपनी संस्कृति तक छोड़नी पड़ती है.

जब वो अपना देश छोड़ने का फैसला करता है, तो क्या सोचता होगा. अपने साथ वो घर की कौन सी निशानी ले जाना चाहेगा.

क्या आप निशानी के तौर पर अपने मकान की चाबियां लेंगे, जिसे कभी आप घर कहा करते थे. आप परिवार के लोगों की तस्वीरें पैक करेंगे, जो आपके खुशी के पलों की याद दिलाएगा. या आपके सर्टिफिकेट और पेपर, जो आपके जीवन के दस्तावेज हैं? क्या आप खूबसूरत कढ़ाई किए हुए तकिए के कवर को ले जाएंगे? आप अपने पीछे क्या छोड़ेंगे?

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रिफ्यूजी अपने घर की कई ऐसी चीजों को अपने बैग में पैक करके बॉर्डर को क्रास करते हैं, जो उनके जीवन की कहानी बताते हैं. उन्हें अपने पुराने घर की याद दिलाते हैं, जिसे उन्होंने तिनका-तिनका जोड़कर बनाया था. हमने कुछ ऐसे ही परिवारों से जानना चाहा कि वो अपने साथ क्या लेकर आए थे, जब उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा. 

महादेव आडवाणी

अक्टूबर 2013 में 42 साल के महादेव आडवाणी अपनी पत्नी के साथ पाकिस्तान में होने वाले धार्मिक अत्याचार से बचने के लिए भारत भागकर आए थे. आश्रय की तलाश में वो लोग हिंदू बहुसंख्यक देश भारत आए. महादेव और उनके जैसे कई शरणार्थियों के पास कोई और विकल्प नहीं है, क्योंकि उनकी नई जिंदगी की यात्रा एक कठिन समस्या है. भक्त महादेव अपने साथ सिंधी में लिखी गीता की एक प्रतिलिपि लेकर आए थे.

मैं वहां से श्रीमद्भगवद्गीता लेकर आया. मैंने अपने बच्चों से कहा था, यही हमें आगे रास्ता दिखाएगा. मुझे हिंदी नहीं आती है, मै सिर्फ सिंधी पढ़ सकता हूं.  

महादेव की 37 साल की पत्नी अपने बड़े से ट्रंक से निकालकर कढ़ाई वाले तकिए और कंबल के कवर का कलेक्शन दिखाती हैं. भागली कहती हैं, ''जब हमलोग आ रहे थे, तो मेरी ननद और मां ने इसे अपने पास रखने के लिए दिया था.''

‘’ये कवर मुझे मेरी बहन, मेरी मां, मेरे अंकल और आंटी याद दिलाते हैं. ये मुझे सिंध की याद दिलाते हैं, मेरे घर की याद दिलाते हैं. मेरा देश जहां, मैं पैदा हुई, जो मेरी जन्मभूमि है, उसकी यादें ताजा कराते हैं ये कवर. 

महादेव की बड़ी बेटी दर्शना अपने स्कूल का सर्टिफिकेट दिखाती है, जो 15 अक्टूबर 2012 का है. वो जब भारत आई थी, उस वक्त वो सिर्फ 11 साल की थी. ये सर्टिफिकेट उसे उसके स्कूल की याद दिलाता है, जो सिंध के टांडो अल्लाहियर में था.

मेरे घर से स्कूल की दूरी सिर्फ आधे घंटे की थी, मेरे पिता मुझे स्कूटर से स्कूल छोड़ने जाया करते थे.

दर्शना की 13 साल की बहन जैशती आडवाणी के सोने के बैंड से पता चलता है कि उसे तब पहना था, जब वो काफी छोटी थी. वो बताती है- मैंने हाल ही में इसे अपनी उंगलियों के हिसाब से फिट कराया है.

हम जहां रहते हैं, हम बहुत सारे सोने के आभूषण पहनते हैं, अगर आप ऐसा नहीं करते हैं, तो इसे बुरा माना जाता है.

शादी के जोड़े की कहानी

अमीना खातून 16 साल की थी, जब उनकी शादी 26 साल के अमानुल्‍ला से हुई थी. उन्होंने शादी में नीले रंग का खूबसूरत जोड़ा पहना था. ये परंपरागत बर्मीज पोशाक दो बार विस्थापित हो चुका है, अमीना अपने साथ ये शादी का जोड़ा बांग्लादेश से भारत में ले आई थी.

‘’अपनी शादी के कपड़े न तो बेचते हैं, न ही किसी को देते हैं. इसके साथ हमारी कई यादें जुड़ी हुई हैं.’’ 

उस साल रमजान के पवित्र महीने के दौरान अमीना के परिवार ने म्यांमार छोड़ दिया था. अमीना के सबसे छोटे बेटे 22 साल के हुसैन जोहर का कहते हैं, ''मुझे याद है कि वो रमजान था, क्योंकि मां और पापा ने अपना सहरी तुरंत खत्म किया था.''

हुसैन ने अपने कई डाक्‍यूमेंट एक फोल्डर में बड़े करीने से संभालकर रखा है. इस फोल्डर में से एक पेपर निकालते हैं, जो उनका बर्थ सर्टिफिकेट है. जन्म प्रमाण पत्र बर्मीज में लिखा है, जो हुसैन नहीं पढ़ सकते हैं.

‘’मैं बर्मीज नहीं जानता हूं, लेकिन मैं अपनी मां से मेरे डॉक्यूमेंट में मेरा नाम और मेरा डेथ ऑफ बर्थ दिखाने को कहता हूं.’’

हुसैन के बड़े भाई अली ने इतने सालों के बाद भी अपनी उपलब्धियों के प्रमाण पत्र को बड़े जतन से संभालकर रखा है.

इन सर्टिफिकेट को देखकर मैं अपनी स्कूल की यादों को ताजा रखता हूं. ये मुझे स्कूल के पुराने दिनों, मुझे मेरे टीचर और दोस्तों की याद दिलाते हैं. 

अली की बहन तस्‍मीदा ने बांग्लादेश में प्राइमरी शिक्षा हासिल की थी. वो बांग्लादेश प्राइमरी बोर्ड का सर्टिफिकेट दिखाती है. एक विषय के अलावा सब में उसे A+ मिला था.

बांग्लादेश का खाना और वहां के लोग म्यांमार की तरह थे. वो मिनी म्यांमार था. वहां अपने देश की याद भी नहीं आती थी. बांग्लादेश में भाषा की भी कोई दिक्कत नहीं थी.
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तिब्बत के तेंजिंग वांगदू

80 साल के तेंजिंग वांगदू तिब्बत के बारे में घंटों तक बात कर सकते हैं. मंजनू का टीला में अपने घर में बैठे तेजिंग कहते हैं, ''मैं वहां पैदा हुआ था, मैंने वहां पढ़ाई की थी, मैं 22 साल का था जब यहां आया.''

हमारे माता-पिता चाहते थे कि हम सभी तिब्बत छोड़ दें, लेकिन वो पीछे रह गए और हमें एक-एक करके छोड़ दिया. मैं बहुत दुखी था, कि मुझे अपने माता-पिता को पीछे छोड़ना पड़ा. 

डेढ़ घंटे की बातचीत के दौरान वांगदू उठते हैं और टहलते हुए अपने कमरे से अपने हाथ में कुछ लेकर आते हैं. वो बताते हैं कि ये चीज वो अपने साथ तिब्बत से लेकर आए थे.

ये चाकू क्यों?

‘’यात्रा खतरनाक थी और अनिश्चितता से भरी हुई थी. मुझे इस बात का यकीन नहीं था कि मैं जीवित रहूंगा और कब तक जीवित रहूंगा? मैं निशानी के तौर पर अपने साथ बहुत कुछ नहीं ला सकता था. उस पल में, केवल एक चीज जो मायने रखती थी कि मुझे जीवित रहना है इसलिए यह चाकू लेकर आया.’’

(ये आर्टिकल पहली बार 2017 में पब्लिश किया गया था. वर्ल्ड रिफ्यूजी डे के मैके पर क्विंट के आर्काइव से निकाल कर इसे द्वारा पब्लिश किया गया है.)

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