बच्चा पूछता है, 'मॉम, क्या मैं बारिश में खेलने जाऊं?', 'क्या मैं आइसक्रीम खा लूं?' 'क्या मैं अपने दोस्तों के साथ ट्रैकिंग पर जाऊं?', इन सब सवालों के लिए मां का क्या जवाब होगा, हम सभी जानते हैं. मां जरूर कहेगी 'नहीं' और बच्चा मायूस हो जाएगा. लेकिन बार-बार 'नहीं' सुनकर कभी-कभी बच्चे में कुछ नकारात्मक बदलाव होने लगते हैं.
सावधानी के साथ जरूरी है सजगता
मां हमेशा अपने बच्चों के लिए सर्वश्रेष्ठ चाहती हैं, इसलिए वे उनकी सुरक्षा के प्रति बहुत सावधान रहती हैं. उनका पूरा ध्यान इस बात पर रहता है कि उनके बच्चे सेहतमंद रहें, सही खाना खाएं, समय पर सोएं, स्कूल में अच्छा परफॉर्म करें. उनकी सावधानियों की सूची अंतहीन है. बार-बार डॉक्टर के क्लीनिक में जाने से बच्चे के पूरे विकास में भी बाधाएं आती हैं. जहां एक तरफ ज्यादातर मां बच्चों की शारीरिक सेहत के प्रति बहुत सावधान होती हैं, तो वहीं दूसरी तरफ वो बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर ज्यादा ध्यान नहीं देतीं. अपनी सावधानी में मां इस कदर मशगूल हो जाती हैं कि यह भूल जाती हैं कि उनके व्यवहार का बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है.
क्या कहता है बच्चों का मनोविज्ञान
तेजी से बदलते मौसम देख मां चिंतित हो जाती हैं. उनके पास केवल एक विकल्प बचता है और वो है अपने बच्चों की दैनिक गतिविधियों को नियंत्रित करके उन्हें सेहतमंद आहार के लिए मजबूर करना. इसके लिए उन्हें खाने-पीने की कई चीजों को न कहना पड़ता है. बार-बार 'न' सुनने का बच्चों के मनोविज्ञान पर क्या असर पड़ता है और बार-बार मना करने पर बच्चों के संपूर्ण विकास और उनके व्यक्तित्व पर क्या असर पड़ेगा, इस बारे में आइए, मनोवैज्ञानिक की राय जानें.
बच्चे बहुत संवेदनशील होते हैं. वो अपने माता-पिता को देखकर सीखते हैं, जिससे उनके व्यक्तित्व का विकास होता है. अपने माता-पिता से बार-बार ‘न’ सुनकर बच्चे झूठ बोलने या फिर अपने माता-पिता से चीजें छिपाने लगते हैं. इससे उनके आत्मविश्वास को नुकसान पहुंचता है और वे सामाजिक रूप से अलग रहने लगते हैं. इन चीजों से मां और बच्चे के बीच संबंध खराब हो सकते हैं, इसलिए यह जरूरी है कि मां को एहसास हो कि असली समस्या बच्चे की मांग नहीं, बल्कि उनका कमजोर प्रतिरोधी तंत्र है, जिस वजह वे बार-बार बीमार पड़ते हैं.”डॉ. सपना जरवाल, मनोवैज्ञानिक
डॉ. सपना के मुताबिक, मां बच्चों को ‘न’ इसलिए कहती है कि वो उनके संपूर्ण विकास के लिए फिक्रमंद होती हैं. कामकाजी माताओं के बच्चे कई बार उनकी निगरानी के बिना खाते-पीते हैं, जिस कारण माताओं के लिए यह सुनिश्चित करना बहुत मुश्किल हो जाता है कि उनके बच्चे को सभी जरूरी पोषक तत्व प्राप्त हों.
बच्चों को न करें उपेक्षित
स्टडी से पता चला है कि जो बच्चे अपने माता-पिता से लगातार उपेक्षित रहते हैं, वो स्वभाव से बहुत ज्यादा इंट्रोवर्ट हो जाते हैं. उनमें आत्मविश्वास की कमी और असुरक्षित व्यक्तित्व होता है. कई बच्चे निर्णय लेने में सक्षम नहीं होते, क्योंकि वे यह तय नहीं कर पाते कि वे जो कर रहे हैं, वह सही है या गलत. उनका सामाजिक कौशल काफी खराब होता है और बड़े होने पर अपने प्रोफेशनल लाइफ में टीम के अच्छे सदस्य नहीं कहलाते.
अक्सर मां मेरे पास अपने बच्चों के स्वास्थ्य के प्रति चिंतित अवस्था में आती हैं, क्योंकि उनका बच्चा अनियमित आहार लेता है और अक्सर बीमार पड़ जाता है. मांओं को हर चीज के लिए अपने बच्चों के पीछे भागना पड़ता है और फिक्रमंद मां होने के कारण उन्हें कई सारी चीजों के लिए न कहना पड़ता है.”डॉ. नीति देसाई, न्यूट्रिशनिस्ट
डॉ. नीति देसाई के मुताबिक बार-बार ‘न’ कहने से बच्चों के व्यवहार पर नकारात्मक असर पड़ सकता है. अनियमित आहार लेने की आदत अधिकतर बच्चों में समय के साथ बदल जाती है और बाद में उनके आहार में जरूरी पोषक तत्व शामिल हो जाते हैं. तब डाइनिंग टेबल पर आहार को लेकर डांट-डपट की संभावनाएं भी खत्म हो जाती हैं.
आहार अच्छा तो व्यवहार अच्छा
सबसे अच्छा समाधान यह है कि बच्चों को ऐसा मल्टीविटामिन/मल्टीमिनरल सप्लीमेंट दिया जाए, जो उन्हें कुछ पोषक तत्वों का 100 प्रतिशत आरडीए प्रदान करे, जो न केवल आहार में अनुपस्थित पोषक तत्वों की कमी को पूरा करे, बल्कि बच्चे की प्रतिरोधी क्षमता का भी विकास करें. मजबूत बच्चों की मां को कम चिंता होती है, इसलिए खुशमिजाज, सकारात्मक और मजबूत बच्चे का विकास होने दीजिए.
अच्छा प्रतिरोधी सिस्टम सेहतमंद शरीर के साथ सेहतमंद दिमाग भी देता है. इसलिए स्वयं में बदलाव करें और 'यस मॉम' बनकर अपने बच्चों में मजबूत प्रतिरोधी शक्ति का विकास कर उन्हें आजादी के साथ विकसित होने से न रोकें.
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