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भरतपुर अभयारण्य:पक्षियों की खूबसूरत दुनिया में निगाहें थम जाती हैं

सैलानियों की सबसे ज्‍यादा भीड़ ‘पेंटेड स्टोर्क्स’ की कॉलोनी के सामने जमा होती है.

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सुबह की हवा में हर रोज बढ़ती नमी को देखते हुए सूरज देव ने अपना अलार्म क्लॉक भले ही थोड़ा आगे की ओर सरका लिया हो, भरतपुर के केवलादेव घना राष्ट्रीय पक्षी अभ्यारण्य में सुबह की सुगबुगाहट अभी भी अपने समय से ही शुरू हो जाती है. पार्क के गेट और टिकट खिड़की के खुलने का समय छह बजे है और उसके पहले ही वहां कैमरा और दूरबीन टांगे सैलानियों की कतार लग चुकी होती है.

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टिकट से ज्‍यादा होड़ रिक्शा लेने की होती है, क्योंकि पार्क के दोनों ओर के 11 किलोमीटर का सफर सरकारी मान्यता वाले रिक्शे या फिर किराए पर ली गई साइकिल पर बैठकर ही पूरा किया जा सकता है.

पहले दिन नाश्ता निबटाकर आठ बजे पहुंचने की गलती की, तो अंदर जाने वाले रिक्शों के लिए इंतजार करते सूरज सर पर चढ़ गया था. तभी दूसरे दिन हम गेट खुलने के पहले ही पहुंच कतार में शामिल हो गए.

ये अरण्य दो नामों की वजह से जाना जाता है. पहला, पक्षी वैज्ञानिक डॉ. सालिम अली का, जिनके अथक प्रयासों से ये पार्क वो शक्ल ले पाया, जिसके चलते हर साल लाखों सैलानी यहां खिंचे चले आते हैं. दूसरा, केवलादेव यानी भगवान शिव, जिनका मंदिर पार्क के दूसरे छोर पर है.

डॉ. सालिम अली के नाम का टूरिस्ट इंटरप्रटेशन सेंटर पार्क के गेट से चंद मिनटों की दूरी पर है, जहां ज्‍यादातर सन्नाटा पसरा रहता है. दूसरे छोर पर बने एतिहासिक केवलादेव मंदिर तक पहुंचने वाले सैलानियों की तादाद भी ज्‍यादा नहीं होती. हालांकि पार्क के बाकी का हिस्सा सैलानियों की चहल-पहल से भरा रहता है.

अभयारण्‍य में अगर अनुभवी रिक्शे वाले का साथ मिल गया, तो टूर गाइड लेने की कोई जरूरत नहीं. चूंकि रिक्शे वालों का मीटर घंटे के मुताबिक चलता है, इसलिए वे बड़े तफ्सील से एक-एक स्पॉटिंग लोकेशन पर रुकते, पत्तों के झुरमुठ में छिपे पक्षियों को देखते-दिखाते चलते हैं.

किस्मत से दूसरे दिन हमें अमर सिंह जी के रिक्शे की सवारी मिली. चालीस साल से पार्क में रिक्शा चला रहे अमर सिंह के बायोडाटा की सबसे बड़ी खासियत ये है कि उन्होंने डॉ. सालिम अली के साथ भी काम किया है. वो गर्व से बताते हैं कि ऐसा कोई टूर गाइड भी नहीं, जो इन पक्षियों के बारे में उनसे ज्‍यादा जानता हो.

एक शांत और वीरान जगह पर रिक्शा रोकते हुए हमें चुपचाप नीचे उतरने का इशारा होता हैं, “ग्रे हॉर्नबिल्स का जोड़ा है वहां, डॉ. अली का पसंदीदा पक्षी था ये.”

हमें थोड़ा आश्चर्य हुआ इतने खूबसूरत पक्षियों के रहते भला डॉ. अली को मैदानी इलाकों में हर जगह पाए जाने वाले धनेश पक्षियों से सबसे ज्‍यादा प्यार कैसे हो सकता है. लेकिन अमर सिंह के ज्ञानकोश को चुनौती देने की हमारी कुव्‍वत नहीं. वैसे भी जब डॉ. अली मोर की जगह, लुप्त हो रहे ‘ग्रेट इंडियन बस्टर्ड’ यानी ‘सोहन चिड़िया’ को राष्ट्रीय पक्षी बनाने की जंग छेड़ सकते थे, तो हॉर्नबिल्स को सबसे ज्‍यादा प्यार भी कर सकते थे.

सर्दियों में यहां साढ़े तीन सौ से भी ज्‍यादा प्रजाति के पक्षी देखे जा सकते हैं. लेकिन सबसे पहले नजर आता है नींद में मग्न स्पॉटेड उल्लूओं का परिवार. वैसे तो यहां केवल उल्लुओं की ही सात प्रजातियां हैं, लेकिन ये वाली शान किसी और की नहीं.

सुबह के सन्नाटे को ‘लाफिंग डव’ की हंसी रोशन किए जाती है. हर सौ मीटर पर रिक्शे से उतर, कबूतरों और सारसों की कई और प्रजाति के साथ बांग्लादेश से आए ब्लू रॉबिन, सुदूर दक्षिण से आ पहुंचे किंगफिशर, स्नेक बर्ड, ट्री पाई जैसे नाम सुन, उन्हें कैमरे में कैद करते सुबह का दोपहर में बदलना भी नोटिस नहीं करते.

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झील के पानी में दो साल बाद हलचल होने को है. पिछले साल पानी कम होने के चलते यहां बोटिंग नहीं हुई, तो इस बरस सरकारी कार्यवाही में हुई देर के चलते तय समय से महीने भर बाद हरी झंडी मिली है. लेकिन हमारे जाने की तारीख तक बोटिंग शुरू नहीं हो पाई.

“आपको दो-तीन हफ्ते बाद फिर से आना चाहिए”, हमारे गाइड और चालक ने घंटे भर में तीसरी बार हमसे ये बात कही है. तब तक कई सारे नए पक्षी और आ जाएंगे. लेकिन साइबेरियन हंसों का जोड़ा अब यहां कभी नहीं आ पाएगा. उनकी आवाज में ये बताते हुए अफसोस है कि कुछ बरस पहले यहां से वापस जाते वक्त हिमालय की तराई में उनका शिकार कर लिया गया.

हालांकि अगर हमारी किस्मत साथ दे, तो भारतीय हंसों से जोड़े को हम आज भी देख सकते हैं. कई बार घूमते-घामते वो सड़क से दिखाई देने वाली दूरी तक आ जाते हैं. हमारी किस्मत उस दिन आधी साथ थी, दूरबीन से प्रेमरत हंस दिखाई दे गए, कैमरे में कैद नहीं हो सके.

सैलानियों की सबसे ज्‍यादा भीड़ ‘पेंटेड स्टोर्क्स’ की कॉलोनी के सामने जमा होती है. सैकड़ों रंगीन सारसों के कलरव से ये पार्क का सबसे गुलजार हिस्सा भी है. सारसों की ब्रीडिंग खत्म होने के चलते झील के बीचों-बीच बबूल के पेड़ों की कोई डाली ऐसी नहीं बची, जिस पर घोंसला न हो और उन घोंसलो से चोंच निकाले, रूई के गोलों से सफेद चूजे, अपने खाने के इंतजार में शोर न कर रहे हों.

पूरी तरह वयस्क होने पर इन सारसों की चोंच नारंगी और शरीर पर नारंगी, गुलाबी और काली धारियां नजर आने लगती है. इस वजह से इन्हें ‘पेंटेड स्टोर्क्स’ का नाम मिला है.

पार्क में आने वाले प्रवासी पक्षियों को अपना शीतकालीन आशियाना पहले से कुछ खाली-खाली, उजाड़ सा दिखेगा. इस साल मई में आए भयंकर तूफान में हजारों की तादाद में पेड़ गिर गए थे. पार्क की मुख्य सड़क के दोनों ओर ही विशालकाय पेड़ गिरे नजर आते हैं, जिन्हें यहां के नियमों के मुताबिक उठाया नहीं गया है.

एक समय ये पार्क, राजस्थान के राज परिवारों और अंग्रेज हुक्मरानों का शिकारगाह था. कभी यहां दिनभर में मारे गए पक्षियों की संख्या पत्थरों में खुदवा कर रखी जाती थी. केवलादेव मंदिर के सामने बड़े-बड़े शिलालेख, यहां के शिकार के इतिहास की तस्दीक करते हैं.

एक दिन में सबसे ज्‍यादा पक्षियों के शिकार का रिकॉर्ड 1938 में वॉयसराय लॉर्ड लिनलिथगो के नाम है. उस साल नवंबर की बारह तारीख को इस जंगल में 4,273 पक्षियों का शिकार हुआ था, जो अभी तक विश्व रिकॉर्ड है.
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उन शिलालेखों से ध्यान हटाकर हमने केवलादेव शिव मंदिर की ओर रुख किया. बोगनविला की लताओं के बीच छोटे सा मंदिर अपनी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में भी आमंत्रित करता है. हालांकि बहुत कम लोग यहां तक आते दिखते हैं.

हमारे हाथों में बड़े प्रेम से प्रसाद रखते पंडित जी को उनसे बातचीत की हमारी उत्सुकता भली लगती है. हमें अपने हाथों के बने कढ़ी-चावल और चूरमा खिलाने के प्रस्ताव की मनाही के बाद भी उनका उत्साह कम नहीं हुआ. मंदिर के इतिहास के बाद उनकी शिकायतों की बारी है, “घर-परिवार छोड़ पचास बरस से यहां रह रहा हूं, राज परिवार के ट्रस्ट से मिली 24 हजार रुपए सालाना तनख्वाह पर काम चलाता हूं, मजाल है, जो सरकार ने एक पैसा भी इस मंदिर पर खर्च किया हो.”

पार्क के गिफ्ट शॉप के अधिकारी, पुजारी जी की शिकायत पर हौले से मुस्कुराते हैं:

“धार्मिक आस्था का प्रश्न नहीं होता, तो सरकार इस मंदिर को कब का हटवा चुकी होती. पक्षी अभ्यारण्य में भला मंदिर का क्या काम?”

इस सवाल पर लंबी बात हो सकती है, लेकिन फिलहाल अपने रिक्शे वाले का शुक्रिया करने का वक्त है. “दोबारा जरूर आना”, उनका आग्रह जारी है.

बाहर निकलते समय हमने अपना कैलेंडर खोला, नवंबर के आखिर में शायद एक और लंबा सप्ताहांत मिले.

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(डॉ. शिल्पी झा जीडी गोयनका यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ कम्यूनिकेशन में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. इसके पहले उन्‍होंने बतौर टीवी पत्रकार ‘आजतक’ और ‘वॉइस ऑफ अमेरिका’ की हिंदी सर्विस में काम किया है)

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