"यार हम मुसलमानों के साथ बहुत भेदभाव होता है, हमें सरकारी जॉब से लेकर बैंक लोन तक नहीं मिलता, मुसलमानों के इलाके को ही देख लीजिए, सरकार का ध्यान ही नहीं है." रमजान में इफ्तार के बाद चाय की दुकान पर बैठे आमिर अपने कुछ दोस्तों से ये बातें कह रहे थे. करीब 28-29 साल के आमिर एक प्राइवेट कंपनी में अच्छी सैलरी पर काम करते हैं.
जब आमिर से पूछा गया कि आपको नहीं लगता मुसलमानों की ऐसी हालत के लिए मुसलमान खुद भी जिम्मेदार हैं, मुसलमानों के पास तो गरीबी और पिछड़ेपन से निकलने का अल्लाह का बताया रास्ता है. तो आमिर चुप हो गए. अब आप भी सोच रहे होंगे कि मुसलमानों के पास गरीबी दूर करने का ऐसा क्या सॉलिड उपाय है.
तो आपको बता दें कि इस्लाम में चैरिटी मतलब दान और एक दूसरे की फाइनेंशियल हेल्प के लिए कई सारे नियम हैं. नियम इसलिए क्योंकि ये दान विकल्प नहीं बल्कि अनिवार्य है, इसे नहीं देना एक मुसलमान को गुनाह का भागीदार बनाता है.
क्या है इस्लामिक चैरिटी सिस्टम?
दरअसल, इस्लाम ने अमीर लोगों की आमदनी में एक हिस्से पर गरीब, यतीम और समाज के सबसे निचले पायदान पर जिंदगी गुजर-बसर करनेवालों का हक तय कर दिया है. इसी को देखते हुए इस्लाम में दान के कई तरीके बताएं हैं. जकात, सदका और फितरा इसी चैरिटी सिस्टम का हिस्सा है.
जकात क्या है ?
जकात का मतलब होता है पाक या शुद्ध करना. जकात की अहमियत इस बात से भी समझी जा सकती है कि समाज में आर्थिक बराबरी के मकसद से कुरान में करीब 32 जगहों पर नमाज के साथ जकात का जिक्र भी आया है. साथ ही ये इस्लाम के पांच पिलर में से एक है.
कुरान के सूराः अल-बकर की आयत नं. 177 में कहा गया है,
नेकी यह नहीं है कि तुम अपने मुंह पूरब या पश्चिम की तरफ कर लो. बल्कि नेकी तो यह है कि ईमान लाओ अल्लाह पर और कयामत के दिन पर और फरिश्तों पर, किताबों पर और पैगंबरों पर. अपने कमाए हुए धन से मोह होते हुए भी उसमें से अल्लाह के प्रेम में, रिश्तेदारों, अनाथों, मुहताजों और मुसाफिरों को और मांगनेवालों को दो और गर्दन छुड़ाने में खर्च करो. नमाज स्थापित करो और जकात दो. जब कोई वादा करो, तो पूरा करो. मुश्किल समय, कष्ट, विपत्ति और युद्ध के समय में सब्र करें. यही लोग हैं, जो सच्चे निकले और यही लोग डर रखने वाले हैं.
इसमें साफ-साफ लिखा है कि जो मजबूर और गरीब हैं उन्हें दान दो. साथ ही यहां गर्दन छुड़ाने से मतलब कर्ज में डूबे हुए लोगों को कर्ज चुकाने में मदद करने से है, जो अपनी सीमित आमदनी में कर्ज चुका पाने में सक्षम नहीं हैं.
जकात कितना देना होगा?
हदीस के मुताबिक जकात उन मुसलामनों पर फर्ज है जो साहिब-ए-निसाब हों.
साहिब-ए-निसाब वो औरत या मर्द होता है, जिसके पास साढ़े सात तोला सोना (75 ग्राम सोना) या 52 तोला चांदी हो या फिर जिसकी हलाल कमाई में से सालाना बचत 75 ग्राम सोने की कीमत के बराबर हो. तो उस इंसान को अपनी कुल बचत का 2.5 फीसदी जकात के तौर पर देना होता है.
मतलब अगर पूरे एक साल तक किसी के पास एक लाख रुपये की सेविंग हो, तो उस शख्स को इस एक लाख का 2.5% मतलब 2500 रुपये जकात के तौर पर गरीबों में दान करना होगा.
ऐसे में अगर मुसलमानों की बात करें तो भारत में करीब 18 करोड़ मुसलमान रहते हैं. अगर इनमे से सिर्फ एक करोड़ भी साहिब-ए-निसाब हैं. मतलब जकात देने में सक्षम हैं और उनके पास एक साल तक सिर्फ एक लाख रुपये सेविंग रहता है. तो एेसें में एक करोड़ लोगों के हिसाब से ये रकम कुल 2500 करोड़ होगी.
ईद से पहले ही देना होगा फितरा
फितरा भी एक तरह का दान है जो सिर्फ ईदुल फितर मतलब ईद से पहले गरीबों को पैसा या अनाज देना होता है. ताकि ईद के दिन कोई भीख ना मांगे. अब सवाल है कि फितरा की वैल्यू क्या है? फितरा के लिए कितने रुपये देने चाहिए.
ऐसे तो फितरा के लिए गेंहू, किशमिश, जौ दे सकते हैं, लेकिन वक्त के साथ अनाज के बदले पैसे देने का चलन आ गया. आसान शब्दों में समझे तो एक शख्स को एक किलो 633 ग्राम गेहूं या उसके बराबर कीमत ईद की नमाज से पहले अदा करने होंगे. इस साल भारत में एक शख्स पर करीब 40 रुपये फितरे की रकम तय हुई है. ऐसे में आप अंदाजा लगाएं कि अगर किसी परिवार में 5 लोग रहते हैं तो उस परिवार को 200 रुपये फितरे के तौर पर बांटने होंगे. फितरे की रकम भी गरीबों, विध्वाओं, यतीमों और सभी जरूरतमंदों को दी जाती है. इस सबके पीछे सोच यही है कि ईद के दिन कोई खाली हाथ न रहे, क्योंकि यह खुशी का दिन है.
ऐसे में अगर 18 करोड़ मुसलमानों में से सिर्फ 7 करोड़ भी फितरा निकालने के काबिल हैं तो कुल 280 करोड़ रुपये फितरा के तौर पर जमा हो जायेगा. बता दें कि फितरा हर वो आदमी या औरत दे सकती है जो आर्थिक रूप से बेहतर है. इसमें जकात की तरह साल भर की सेविंग का चक्कर अनिवार्य नहीं है.
फितरा और जकात से गरीबी पर किया जा सकता है अटैक
बता दें कि साल 2018-19 के सालान बजट में अल्पसंख्यकों के लिए 4700 करोड़ रुपये आवंटन किया गया है. ये बजट सिर्फ मुस्लिम ही नहीं बल्कि देश के 6 अल्पसंख्यक समुदायों के लिए भी है.
ऐसे में अगर उपर दिए गए आंकलन को देखा जाए तो जकात और फितरा की रकम को मिलाकर करीब 2780 करोड़ रुपये होते हैं. जोकि मुसलामनों के लिए बनाए गए बजट के करीब करीब बराबर होगी.
दान का तीसरा तरीका है ‘सदका’
ऐसे तो सदका हर उस नेक काम को कहते हैं जो एक मुसलमान दूसरे के लिए करता है. कहते हैं मुस्कुरा कर बात करना, किसी भटके हुए को रास्ता दिखाना भी सदका है. इस्लाम में सदका के लिए कोई खास फिक्स्ड रकम नहीं है. सदका के तौर पर आप किसी को दो रुपये भी दे सकते हैं और चाहें तो 2 करोड़ भी दान कर सकते हैं. ये रमजान के महीने में ही देना जरूरी नहीं है. ये पूरे साल जब चाहें दे सकते हैं.
अब ऐसे में सवाल उठता है कि इतने पैसे होने के बाद भी भारत में करीब 31% मुस्लमान गरीबी रेखा के नीचे क्यों हैं? क्यों मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक हालत बदल नहीं रही है?
इसका एक सबसे बड़ा कारण मुस्लिम समाज में आत्मचिंतन की कमी और दूसरी इस चैरिटी सिस्टम का सिस्टेमेटिक मतलब व्यवस्थित ढंग से ना होना.
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