भारत का नेतृत्व उसे करना चाहिए, जो सोच में समावेशी, सहिष्णु, उदार और विविधता प्रेमी हो. यह नेतृत्व के चाल, चिंतन और चरित्र पर निर्भर करता है. इसका संबंध बहुमत बनाम गठबंधन वाली सरकार के प्रश्न से नहीं है. अलबत्ता वाजपेयी और मनमोहन सिंह के गठबंधन वाली सरकार और नरेंद्र मोदी की बहुमत वाली सरकार की निष्पक्ष तुलना में बहुमत वाली सरकार का रिपोर्ट कार्ड फीका, उदास और बेदम मालूम पड़ता है.
दरअसल मोदी की बहुमत वाली सरकार हवाई-जुमलों, बचकाने-भाषण, गुलाबी-सपने, इतिहास के झूठे उपयोग, एकांगी -राष्ट्रवाद की धारणा, कांग्रेस की अनावश्यक-आलोचना, मॉब लिंचिंग के मौन समर्थन, राम -मंदिर के राजनीतिकरण, अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत, मीडिया के दरबारीकरण, सेना के राजनीतिकरण, सरकारी -सुविधाओं के अंबानीकरण,गैर भाजपा शासित राज्यों के प्रति धिक्कार की भावना,आम आदमी के सोच के सैन्यीकरण,सोशल मीडिया के टुच्चेपन, बहुसंख्यकवाद की आक्रामक राजनीति, लोकतांत्रिक संस्थानों के भगवाकरण,आत्मघाती कश्मीर - नीति, पाकिस्तान के प्रति युद्धोन्माद और असफल विदेश नीति तक सीमित रही.
इससे लोकतंत्र का स्पेश, सरोकार और स्वतंत्रता भी सिकुड़ता रहा, यही नहीं वर्तमान मोदी सरकार आर्थिक मोर्चे पर भी असफल रही. इस दौरान आर्थिक विकास दर में गिरावट आई. नोटबंदी फ्लॉप शो रहा. इससे काला धन,भ्रष्टाचार और आतंकवाद पर कोई फर्क नहीं पड़ा. जीएसटी का क्रियान्वन भी बेकार, लचर और तकलीफदेह रहा. मोदी की विदेश यात्रा,उनकी झप्पी की कूटनीति और आत्मप्रचार का ताबड़तोड़ प्रयास भी भारत के राष्ट्रीय हित का भला नहीं कर सका.
सरकार के महत्वपूर्ण कार्यक्रम मेड इन इंडिया, कौशल विकास योजना ,आयुष्मान भारत, स्मार्ट सिटी,बुलेट ट्रेन जैसे अधिकांश कार्यक्रम जमीनी तौर पर लागू नहीं हो सके हैं. इसके बरक्स मनमोहन सिंह की गठबंधन वाली सरकार ने सूचना के अधिकार,खाद्य सुरक्षा गारंटी और शिक्षा के अधिकार संबंधी महत्वपूर्ण और अभूतपूर्व बदलाव लाए. इस सरकार पर नीति अपंगता, कमजोर नेतृत्व और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे, लेकिन दस वर्षों तक (2004 से 2014) भारत की आर्थिक वृद्धि दर में उल्लेखनीय एवं प्रशंसनीय निरंतरता दिखाई दी.
संघवाद का यह खुशनुमा दौर था. नेतृत्व भी सफल और सबल था. मसलन - मनमोहन सिंह ने मजबूती दिखाते हुए भारत - अमेरिकी परमाणु समझौता (2006) को कई वर्षों तक लटकाये रहा. दरअसल इस समझौते का सेक्शन 46 तथा 17(बी)विवाद का विषय था. यह परमाणु दुर्घटना की स्थिति में अमेरिकी कम्पनियों को किसी भी प्रकार का हर्जाना दिए जाने से मुक्त रखता था. निसंदेह यह प्रावधान भारतीय जनता की दृष्टि से नुकसानदेह था. फलतः मनमोहन सिंह ने अमेरिकी दबाव के सामने घुटने नहीं टेके, जबकि बहुमत वाली मोदी सरकार ने अमेरिकी सरकार के समक्ष बड़ी बेशर्मी से घुटने टेक दिए.
इस सरकार ने अमेरिकी कंपनियों के लिए 1500 करोड़ रुपए का एक इन्सुरेंश पूल निर्मित किया. इससे लाभ अमेरिकी कंपनियों को मिलेगा, लेकिन इसमे आम जनता का पैसा दांव पर लगा हुआ है. प्रचंड बहुमत वाली मोदी सरकार का यह रवैया चकित, खिन्न,और दुखी करता है. गठबंधन वाली वाजपेयी सरकार का रिपोर्ट कार्ड भी सुखद और रोमांचक रहा है. इस सरकार ने आर्थिक विकास, सहयोग-संघवाद और शांतिपूर्ण विदेश नीति के क्रियान्वयन में भी सूझबूझ और दूरदर्शिता का परिचय दिया था.
इस तुलनात्मक पृष्ठभूमि में यह कहना अतिरंजित और अतिश्योक्तिपूर्ण लगता है कि बहुमत की सरकार सदैव सफल और सशक्त होती है, जबकि गठबंधन की सरकार लाचार, कमजोर और असफल होती है.कम से कम वस्तुनिष्ठ विश्लेषण ऐसा साबित नहीं करता है.
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