वाकया 1995-96 का है, अचानक सरकार की तरफ से कहा गया कि हम गांव वालों ने जीटी रोड के किनारे सरकारी जमीन का अतिक्रमण किया है.
ग्रामीणों पर कार्रवाई करते हुए अंचल कार्यालय ने आदेश दिया कि सड़क के किनारे दोनों तरफ और छोड़ देने को कहा गया. सरकार ने यह दलील देते हुए कोई मुआवजा नहीं दिया कि यह सरकारी जमीन है.
करीब 25 साल पहले भोली भाली ग्रामीण जनता ने मुआवजा लिए बगैर जमीन खाली कर दी. वहां के विधायक ने भी इसका समर्थन किया कि बिना मुआवजा के आप लोग खाली कर दीजिए.
बात यहीं खत्म नहीं हुई. 2002 में अचानक सरकार का नया फरमान आता है कि सड़क को फोर लेन किया जा रहा है तो फिर से भोले-भाले ग्रामीणों को बेवकूफ बनाकर सरकार ने दबाव डालकर फिर से करीब 30 फीट जमीन खाली करा ली गई. इस बार भी कोई मुआवजा नहीं दिया गया. हालांकि इस बार जनता सतर्क थी. जानती थी कि यह जमीन का कुछ तो लफड़ा है. बार-बार सरहिंद का नाम लेकर सरकार हम लोगों को बेवकूफ बनाकर जमीन हड़पना चाह रही थी
सब ग्रामीणों ने मिलकर बैठक की और पूरी जमीन के दस्तावेज खंगाले. काफी मशक्कत के बाद पता लग गया कि सरकार बार बार सरकारी जमीन के नाम पर जिस जमीन को खाली करवा रही है दसअसल उस जमीन के मालिक गांव वाले ही हैं.
मैंने तमाम साक्ष्यों के आधार पर हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसमें हम लोगों ने हाईकोर्ट के सामने अपने खतियान (जमीन की बही) की प्रति रखी. सभी खतियान में हम गांव वालों का नाम दर्ज है वो भी 1911 से मतलब अंग्रेजी हुकूमत के समय से. अंग्रेज सरकार का भी यही नियम था कि इस जमीन के मालिक जोत और कब्जे के आधार पर मालिक का कब्जा ही रहेगा
भारत आजाद हुआ उस समय सरकार ने केसर हिंद पर एक खास निर्णय लिया कि 1947 से पहले के सरहिंद भूमि पर जिसका कब्जा है, वही उसका मालिक होगा. भले ये राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार या ग्रामीण. इसकी एक चिट्ठी भी बिहार सरकार ने जारी की थी.
बिहार से भी अलग झारखंड बन गया, लेकिन उस समय भी झारखंड सरकार ने भी बिहार सरकार के आदेश का ही पालन किया.
खैर कोर्ट ने तो अपने आदेश में साफ-साफ लिखा कि इसके लिए पहले ही डीसी अंचलाधिकारी नियुक्त थे. हाईकोर्ट ने गांव वालों को जमीन का मालिक होने से इनकार नहीं किया.
लेकिन इस मामले को लेकर जब ग्रामीण झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पास गए थे उन्होंने मिलने से इनकार कर दिया. मामला यह है कि सिक्स लेन सड़क की जमीन जमीन हम लोगों को जबरदस्ती ले ली गई. विस्थापितों को अब तक न तो कोई मुआवजा मिला है और ना ही कोई जमीन.
हम सभी गांव वालों की मांग है कि कम से कम मुआवजा तो जरूरी दिया जाए क्योंकि सरकार की पुनर्वास नीति के बिना कोई भी विकास का काम नहीं हो सकता.
हमसे जबरदस्ती जमीन लेकर सरकार यह कौन सा विकास कर रही है किसके लिए कर रही है जब हम ही नहीं होंगे तो सड़क किसके लिए बनेगी.
(ये लेख MY रिपोर्ट कैंपन के तहत पब्लिश की गई है. क्विंट का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है)
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