मैं 24 साल का युवा हूं और अपने अब्बा (पिता) के प्यार की चाहत में आज भी तड़पता हूं. बचपन से ही मुझे मेरे अब्बा के साथ की जरूरत रही है. मेरी इच्छा रही है कि वह मेरे साथ हो मुझे सही से गाइड करे, जब मैं किसी परेशानी में रहूं या घबराऊं तो वह मेरा हौसला बढ़ाए. लेकिन ऐसा हो नहीं सका.
मेरा भी मन होता है कि छुट्टियों के दिनों में अब्बा मेरे साथ रहे और पूरा परिवार एक साथ छुट्टियों का आनंद उठाए. जब मैं छोटा था तब भी मुझे अब्बा की जरूरत थी और आज जब मैं बड़ा हो गया तब भी मुझे हर पल उनकी जरूरत महसूस होती है. ऐसा लगता है कि जैसे बचपन में वो मुझे गिरने से पहले ही मेरा हाथ थाम लेते थे. आज भी वैसा करने के लिए मेरे आस-पास हो. बचपन के दिनों की बहुत याद आती है. उनके साथ बिताए हुए हर पल मुझे उनकी याद दिलाता है और मुझे लगता है कि काश वो हमारे साथ होते.
पुलिसवाले के परिवार में पैदा होना निश्चित रूप से कई मायनों में हमें विशेष बनाता है, क्योंकि 90 के दशक के शुरुआत से हमारे इलाके में फैले उग्रवाद और विद्रोह भरे माहौल में यह हमें सुरक्षा देने का काम किया है. लेकिन कहीं न कहीं इसी पुलिसवाले के परिवार के होने की वजह से मुझे अपने अब्बा का वो साथ नहीं मिल सका, जो बाकी बच्चों को मिलता है.
मेरा बचपन उन दिनों में गुजरा है, जब इस इलाके के लोग बेवजह बंदूकों से बेइंतहा प्यार करने लगे थे और उन्हें अपना सबसे अजीज दोस्त मानने लगे थे. इलाके में अलगाववाद की समस्या बढ़नी शुरू हुई और लगातार बढ़ती ही गई.
बचपन के दिनों में घर की दिवार पर पुलिस यूनिफॉर्म में अब्बा के कंधे पर टंगे हुए बंदूक को देखकर मेरा भी मन होता था कि भविष्य में मैं भी इसी तरह बंदूक रखूंगा. इसी तरह फोटो क्लिक करवाकर मैं भी अपने घर की दिवार पर लगाउंगा. लेकिन हर गुजरते दिन के साथ मुझे यह एहसास होता चला गया कि दक्षिणी कश्मीर में किसी अधिकृत बंदूकधारी (पुलिसवाले) का जीवन कितना मुश्किलों से भरा है. जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया पुलिसवालों के जीवन के कठोर से कठोर पलों का एहसास मुझे होने लगा.
मुझे याद नहीं है कि पुलिस फोर्स ज्वाइन करने के बाद मेरे अब्बा ने कभी अपने परिवार के साथ समय बिताया होगा. मेरी अम्मी (मां) ने अकेले ही माता-पिता दोनों की जिम्मेदारी निभा कर मुझे बड़ा किया.
मेरे अब्बा ईद मनाने के लिए हम लोगों के पास आया करते थे. लेकिन मुझे आज भी वो दिन याद है, अब्बा के घर आने के बाद जब रात पता चला कि ईद एक दिन और लेट है. इसी बीच में उनके पुलिस स्टेशन से कॉल आ गया और उन्हें अपने ड्यूटी पर वापस जाना पड़ा. बाकी त्योहारों की तरह ईद जैसे त्योहार को भी हमें अब्बा के बगैर ही मनाना पड़ा.
अपने अब्बा की ट्रेनिंग के दौरान मैंने देखा कि एक औरत (मेरी अम्मी) कितनी मजबूत होती है और अपने बच्चे के लिए क्या नहीं करती. मेरी अम्मी हमेशा ध्यान रखती थी कि मुझे किसी तरह की तकलीफ न हो, या अब्बा की कमी महसूस न हो. जैसा कि हर पेरेंट्स चाहते हैं कि उनका बच्चा किसी राजकुमार की तरह पले-बढ़े, मेरी अम्मी ने भी वैसा ही किया. उधमपुर के एक दूरदराज ट्रेनिंग सेंटर से मेरे अब्बा कॉल करते थे और अम्मी को एक लंबी लिस्ट तैयार करवाते थे कि क्या करना है और क्या नहीं करना है, ताकि अम्मी और मैं सुरक्षित रह सकूं.
सूर्यास्त के बाद अगर हमारे पड़ोसी के दरवाजे पर कोई दस्तक देता था, तो हम डर से सिहर जाते थे. अम्मी को हमेशा डर सताता रहता था कि पता नहीं कौन है, क्या होगा. क्योंकि हम पुलिसवाले के परिवार से ताल्लुक रखते थे और इलाके के चरमपंथी के निशानों पर पुलिसवालों के परिवार हमेशा से रहे हैं.
संघर्ष और तनाव वाले इलाके से ताल्लुक रखने वाले पुलिसवालों को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. एक तरफ तो वो दूसरों की जान बचाने के लिए अपनी जान पर खेलते रहते हैं और समाज के लोगों की हिफाजत करते हैं. वहीं दूसरी तरफ वह मन ही मन अपने परिवारवालों की सलामती के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से लड़ाई लड़ते रहते हैं. सामान्य इलाकों में तैनात पुलिसवालों से कहीं ज्यादा कठिन सफर है उन पुलिसवालों का जिनकी पोस्टिंग संघर्ष वाले इलाके में होती है और उनका परिवार भी कुछ ऐसे ही इलाके में रह रहा होता है.
संघर्ष वाले इलाके के पुलिसवालों को उसके अपने समाज के लोग ही बहिष्कृत कर देते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि वह उनके खिलाफ जंग कर रहा है.
केंद्र की नीतियों के बावजूद कश्मीर की समस्या आज भी कायम है. हमेशा सेना और पुलिसवालों को इन चुनौतियों से निपटने के लिए सामने खड़ा किया जाता रहा है, लेकिन हकीकत में अब तक कोई हल नहीं निकल पाया है. बुरहान युग के बाद तो युवाओं के बीच अलगाववाद और ज्यादा बढ़ गया है. इसने परेशानी को और अधिक बढ़ाने का ही काम किया है.
कश्मीर में आए दिन होनेवाली मौत अपने पीछे विधवाओं और अनाथों को छोड़ कर आगे बढ़ रही है. लेकिन समस्या जस की तस बनी हुई है. हाल के दिनों में जिस तरह किडनैपिंग, हथियार छिनने और एसपीओ की हत्या की घटनाएं हुई हैं, 90 के दशक के कुछ बॉलीवुड फिल्मों की तरह लगता है.
मुझे याद है, अभी कुछ समय पहले जब जम्मू-कश्मीर में बड़े पैमाने पर पुलिसवालों के रिश्तेदारों की किडनैपिंग हो रही थी, मैंने अपने बेस्ट फ्रेंड से कहा था कि वो मुझे किसी सुरक्षित जगह पर छिपा दे. क्योंकि इस बात का डर मुझे भी सता रहा था कि शायद मैं भी अगला शिकार न बन जाऊं. किसी भी पुलिसकर्मी के अपहरण और हत्या की खबर जैसी ही आती है, तमाम पुलिसकर्मियों के परिवारवाले किसी अनहोनी के डर से सिहर जाते हैं.
संघर्ष वाले माहौल में इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस पक्ष से सबंध रखते हैं. हिंसा की आग में सबको झुलसना ही पड़ता है. कब किसके साथ किस तरह की अनहोनी हो जाए, कुछ भी अनुमान लगाना आसान नहीं. भले ही शांति की कोशिशों के लाख दावे किए जा रहे हो, लेकिन घाटी के हालात अब भी काफी चिंताजनक है. जो इस इलाके के लोगों को हमेशा डर के साये में घूंट घूंट कर जीने को मजबूर कर रहा है.
(लेखक दक्षिण कश्मीर के रहने वाले हैं और सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे हैं. इन्होंने जम्मू यूनिवर्सिटी से कंप्यूटर साइंस एंड इंजीनियरिंग में बीटेक किया है. इनसे आप संपर्क कर सकते हैं-parraysahil@gmail.com)
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