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My रिपोर्ट डिबेट: विविधता का उत्सव है गठबंधन की सरकार

हिन्दुस्तान की विविधता ही इसकी पहचान और खूबसूरती है.

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दादी कहती थीं कि, मुल्क एक बहुत बड़ा संयुक्त-परिवार होता है. भारत की सांस्कृतिक विरासत या गंगा-जमुनी तहजीह की खूब तारीफ सुनता था. यह भी कि मुल्क बनता है, वहां रहने वाले हरेक नागरिक से, सबकी समान हिस्सेदारी से. यह मुकम्मल होता है, हरेक रंग, भाषा, बोली, वेशभूषा, तीज-त्योहार, खान-पान या यूं कहें कि सांस्कृतिक विविधता की सामूहिकता से.

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मुल्क हरेक नागरिक के सुख-दुख और उसके साझेपन की सामूहिक आवाज होता है. इस साझेपन का नाम ही राष्ट्रवाद है. वैसे, राष्ट्रवाद बेहद संकीर्ण और इकरंगी संकल्पना है, जिसमें विविधता का उत्सव नहीं है, जहां विविधता उत्सव नहीं होता वह चाहे कोई समूह हो या मुल्क, छोटा होता चला जाता है.

हिन्दुस्तान की विविधता ही इसकी पहचान और खूबसूरती है. इस बहुरंगीपन को एक सामूहिक स्वर देता है-‘हमारा संविधान’. यह सब के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बहनापा की भावना को सुनिश्चित करता है. इस बहुरंगीपन के समारोह की पहली मिसाल, बी.पी. सिंह के नेतृत्व वाली ‘जनता दल’ की सरकार है, जिसने ‘मंडल-कमीशन’ लागू किया.

यहीं से भारतीय राजनीति करवट लेती है, और हिस्सेदारी का सवाल एक बड़ा सवाल बनकर उभरता है. गठबंधन सरकार का सबसे बेहतरीन नमूना डाॅ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-1 की सरकार रही जिसमें मनरेगा, आरटीआई और उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी तबके के आरक्षण सरीखे तमाम जनहितकारी योजनाओं की शुरुआत हुई, जिनका असर देश की बहुसंख्यक आबादी पर पड़ा, और आखिरी आदमी तक उम्मीद की एक रौशनी पहुंची.

वहीं पूर्ण बहुमत की सरकार का सर्वोत्तम नमूना नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए या कहें बीजेपी/आरएसएस की सरकार है. ऐसी सरकारें जादूगरी में यकीन रखती हैं. इनका पहला काम ‘योजना-आयोग’ का नाम बदलना या खत्म करना रहा, जिसके जरिए संदेश देने की कोशिश की, कि मुल्क चलाने के लिए कोई योजना बनाने की जरुरत नहीं है. मन किया और नोटबंदी कर दी, पब्लिक सेक्टर को उद्योगपतियों के हाथों बेचा.

विभागवार रोस्टर लाकर देश के तमाम वंचित तबके को विश्वविद्यालयों से बाहर खदेड़ दिया. अल्पसंख्यकों खासकर पसमांदा मुसलमानों को खौफ के साये में जिंदा रहने को मजबूर किया. इससे साफ है कि, पूर्ण-बहुमत की सरकार खुश्क और इकरंगी रही है, ऐसी सरकारें एक निश्चित आपसी हित के साथ काम करती हैं. ये पावर का विकेन्द्रीकरण नहीं करना चाहती है, और तानाशाही फैसले लेने लगती हैं.

मिलीजुली सरकार बनने से पावर का विखंडन उनकी मजबूरी होती है. इस पावर के विखंडन में एक बड़ा समूह छाते के नीचे आ जाता है. क्षेत्रिय दलों का उभार और गठबंधन की सरकार इस मुल्क के लिए सबसे मुफीद है. यह माकूल बात है कि हरेक पार्टी का आपसी हित होता है, लेकिन जब किसी एक पार्टी की सरकार बनती है, तो एक हित दूसरे हित पर हावी हो जाता है. पूर्ण बहुमत की सरकारों में स्थिरता तो होती है, लेकिन इनके फैसले इकतरफा होते हैं और समुदाय हित गायब हो जाता है. आखिर में इतना ही कि इस मुल्क का हरेक शख्स तमाम किस्म की अस्मिताओं के चादर में लिपटा हुआ है. इन अस्मिताओं पर अभी बातचीत होना बाकी है, जिसका रास्ता तमाम पगडंडियों से होकर गुजरता है.

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