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भारत-पाकिस्तान:आवाम की आवाजाही का तिलिस्म ही रिश्ते सुधार सकता है

दोनों मुल्कों के लोग एक-दूसरे को समझने लगे और एक बड़ी तादाद खड़ी हो जाए तो सियासत क्या बड़ी चीज है?

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मुझे थोड़ा धुंधला सा याद है जब एक शो के दौरान शोएब मलिक ने भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में मिठास लाने के संबंध में बड़ा माकूल जवाब देते हुए कहा था कि “ऐसा होना चाहिए कि मर्जी हुई, लाहौर से बस पकड़ी और हम भारत आ गए. वहीं कोई अमृतसर में हैं, बस पकड़ी और पाकिस्तान चले गए. कोई वीजा वगैरा का झमेला नहीं!’ मुझे याद नहीं वो कौन-सा शो था, कब-कहां देखा था लेकिन शोएब मलिक का जवाब मैं भुला नहीं हूं. आज भी जब कभी दोनों देशों के रिश्तों पर बात होती है, मुझे शोएब मलिक के वे लफ्ज सबसे पहले याद आते हैं.

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कच्ची उम्र में सुनी उस बात पर जब-जब मैंने चिंतन किया है, उस विषय में मेरी सोच उतनी ही ज्यादा पकी है! शायद मलिक साहब को भी इल्म न होगा कि उनकी छोटी सी तशरीह इस कदर किसी के मन में घर करजाएगी!

आज मैं भी उस बात को एक कदम आगे ले जाते हुए कहना चाहूंगा कि दोनों देशों के रिश्ते तब तक नहीं सुधर सकते, जब तक कि दोनों देशों के लोग एक दूसरे को जानने न लगे! हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि दोनों देशों की सियासत ने एक दूसरे को “दुश्मन देश” साबित करने की तमाम जद्दोजहदों में अच्छी-खासी सफलता हासिल कर ली है.

दोनों मुल्कों के लोग एक-दूसरे को समझने लगे और एक बड़ी तादाद खड़ी हो जाए तो सियासत क्या बड़ी चीज़ है? ये तो वोट-बैंक के हिसाब से बदलती रहती है! बगैर वीजा के परस्पर आवाजाही का मतलब है, आसानी से एक-दूसरे की तहजीब को साझा करना, दुःख-सुख बांटना और “दुश्मनी” हैशटैग के स्क्रॉल में आम लोगों की अच्छाइयों को परखना! बेशक कुछ चीजें हैं, जो दोनों देशों को साथ बैठकर सुलझानी होगी, लेकिन फिलहाल तो सियासतदान फोन उठाने को राजी नहीं तो साथ बैठना तो…!

दोनों देशों की राजनीति में फिलहाल गाड़ी उल्टी चल रही है. हमारे मुदब्बिर फैसला लेते हैं कि क्रिकेट मैच नहीं होगा और जनता भी भेड़ की चाल चलने लगती है. बल्कि होना ऐसा चाहिए कि जनता का प्रशासन पर इतना दबाव रहे कि वे अमन और भाईचारे के अलावा कुछ सोच ही ना सके! और ये दबाव तभी पनपेगा जब दोनों देशों के लोग एक दूसरे को जानेंगे.

एक पाकिस्तानी जब चाहे, ताजमहल आकर इस्लामी कला पर गर्व करें, मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर इबादत करें, सामने एक भारतीय हिंगलाज माता और ननकाना साहिब के दर्शन कर तृप्त हो जाये! बंटवारे के इतने वर्षों के बाद भी दोनों तरफ कितने ही परिवार हैं, जो अपने प्रियजनों से मिलने को व्याकुल हैं. कितने ही आम लोग हैं जो एक जैसी ही जुबान, एक सी भौगोलिक परिस्थितियों, एक से खाने, एक सी खुशियों और समस्याओं को यहां-वहां आ-जाकर महसूस करना चाहते हैं! अगर ऐसा मुमकिन हो जाए तो क्या बात बात हो जाए जनाब! बाकि, जादू की झप्पियों और सर्जिकल स्ट्राइकों का क्या है! जब तक दोनों देशों की आवाम ही एक दूसरे को नहीं समझेगी तब तक झप्पियों पर बवाल और स्ट्राइकों पर सवाल ही होते रहेंगे!

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