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भारत-पाकिस्तान की दुश्मनी में नफरतें हारेंगी, मोहब्‍बत जीतेगी !

युद्ध किसी भी मसले का हल नहीं बल्कि युद्ध खुद एक मसला है.

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आज के दौर का सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर भारत और पाकिस्‍तान के मध्‍य विकसित इस विष-बेल का हल क्‍या है? आजादी के बाद अनेक समयान्‍तरालों और कारणों से इस विष-बेल को पोषण मिला. जिसकी परिणति यह है कि अब दोनों मुल्‍क एक-दूसरे को फूटी-आंख नहीं सुहाते. कुछ अति उत्‍साही लोग पाकिस्‍तान से युद्ध की मांग करते हैं. उन्‍हें लगता है कि हथियारों से रिश्‍तों में दोबारा मधुरता घोली जा सकती है. जबकि यह एक दिवास्‍वप्‍न है.

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ऐसी ख्‍वाहिशें सियासतदां रख सकते हैं कि उनकी इस बिनाह पर वोट की फसल अच्‍छी पकती हैं, लेकिन जब भी युद्ध की चर्चाएं लोगों के जुबां पर तैरने लगती हैं, तब सेना में भर्ती जवानों के घरों के चूल्‍हे तक नहीं जलते हैं. उनका सुख-चैन छिन जाता है. दरअसल युद्धोन्‍मुख माहौल सियासी और उन्‍मादी लोगों के अंध-अहम को तुष्‍ट करता है, जबकि जो सीमा तैनात जवानों के परिजनों को भयाक्रांत और बेहाल कर देता है.

यह बात सिर्फ भारत की नहीं, बल्कि ऐसा माहौल पाकिस्‍तान में भी है. वहां भी एक ऐसी ही भीड़ है जिसे हर वक्त भारत से बदला सूझता है. मिसाइलें और अन्‍य घातक हथियार उन्‍हें केवल खिलौने की वस्‍तुएं नजर आती हैं. जबकि उनकी असली तासीर क्‍या होती है, उसका उन्‍हें कोई अनुभव नहीं होता, यह एक पक्ष है.

भारत ने पाकिस्‍तान से अनके युद्ध लड़े हैं. उनका नतीजा क्‍या हुआ? युद्ध किसी भी मसले का हल नहीं बल्कि युद्ध खुद एक मसला है. 'सर्जिकल-स्‍ट्राइक' तात्‍कालिक प्रतिक्रिया हो सकती है. लेकिन दोनों मुल्‍क़ों के मध्‍य स्‍थायी समाधान और शांति-स्‍थापना के लिए यह उपयुक्‍त जरिया नहीं है. यदि 'सर्जिकल-स्‍ट्राइक' के पीछे मंशा शांति-स्‍थापना होती तो वजीरे-आजम के चुनावी-प्रचार के दौरान यूं इसे वोटों के लिए नहीं भुनाया जाता.

इसकी आड़ में देशभर में एक उग्र उन्‍माद फैलाया गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि तमाम मूलभूत मुद्दे गौण हो गए और राष्ट्रीय-सुरक्षा का मुद्दा प्राथमिक हो गया. यह तरीका है, दोनों ही मुल्‍कों में जनता को मुख्‍य मुद्दों से गुमराह करने का.

जिसका इस्‍तेमाल किया जा रहा है. भारत-पाक का मुद्दा सियासत के लिए अमृत-बेल है और जनता के लिए विष-बेल. इसलिए हम जनता को तय करना है कि इस विष-बेल को उखाड़ फेंकना है या सियासत के लिए इसे यूं अमर रहने देना है. क्‍योंकि यह प्रश्‍न दाेनों मुल्‍कों की मेहनतकश जनता के भविष्‍य एवं वर्तमान से जुड़ा हुआ है. बंटवारे से पहले हम एक थे. कुछ नेताओं की महत्‍वकांक्षाओं ने हमें जमीनी स्‍तर पर बांट दिया. जबकि आज भी हमारे आपसी दिली रिश्‍ते हैं? और आज भी कोई अपनी महत्‍वकांक्षाओं के चलते हमें दिली स्‍तर पर बांटने की कोशिश कर रहा है.

हालांकि वो अपने मकसद में कमोबेश कामयाब भी हो रहे हैं. जादू की झप्‍पी ही है जो हमें आपस में जोड़े रख सकती है. हथियारों और मारकाट की बात बची खुची संभावनाएं भी नष्‍ट कर देती हैं. इन संभावनाओं को जिंदा रखना ही हमारी कामयाबी होगी. दोनों मुल्‍कों की समस्‍याएं एक हैं. मांग एक हैं. उनके लिए आवाज बुलंद हों, नफरतें हारेंगी, मुहब्‍बत जीतेगी.

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