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My report Debate:‘गठबंधन’ की आंच में झुलसती भारतीय राजनीति

गठबंधनों से बनी ‘मजबूर सरकारें’ लोकशाही-व्यवस्था को और अधिक खोखला करती हैं.

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मैंने जबसे राजनीति को समझना शुरू किया है तबसे नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की गठबंधन वाली सरकारों का दौर देखा है. साथ ही नरेंद्र मोदी की बहुमत वाली सरकार को भी परखा है. गठबंधन की सरकारों की खूबसूरती थी कि मौकों पर अलग-अलग पार्टियों और उनके अलग-अलग नेताओं के अनुभवों ने एक दूसरों का हाथ थामे रखा.

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नरसिम्हा सरकार के समय आर्थिक सुधारों की बात हो, अटल सरकार के समय कश्मीर नीति की बात हो या मनमोहन सिंह के समय अमरीका से बेहतर रिश्तों की शुरुआत हो! पार्टियों का अपने मतभेदों को दूर रखकर एक मंच साझा करना, सबसे सुकून देने वाली बात है. गठबंधन की इस व्यवस्था से में मैं काफी खुश और संतुष्ट हूं क्योंकि इतिहास में झांखें तो किसी एक पार्टी के बहुमत ने व्यवस्था को घमंडी बनाया है. फिर चाहे वो इंदिरा गांधी के शासन में आपातकाल की घोषणा हो या नरेंद्र मोदी के शासन में नोटबंदी.

लेकिन जरूरी नहीं है कि गठबंधन चुनावों के नतीजों से पहले तय हुआ हो और मुद्दों पर सभी पार्टियों की स्पष्ट सहमति हो. वर्ना हम गठबंधन का वह दौर भी देख रहे हैं, जहां वैचारिक और सैद्धांतिक असहमति के बावजूद शिवसेना-बीजेपी साथ में बैठे हुए हैं. नतीजों के बाद तय हुआ गठबंधन सत्ता की मलाई चाटने के अलावा और किसी काम नहीं आता.

राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए विभिन्न पार्टी के मुखिया सत्ता अपने हाथ में रखते हैं और बेबस व लाचार किसी शक्श को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठाने की कवायत शुरू करते हैं. गेस्ट हाउस कांड के बावजूद सपा-बसपा का गठबंधन, पीडीपी-बीजेपी का गठबंधन, कांग्रेस-आम आदमी पार्टी का गठबंधन, ये राष्ट्र हितों के लिए हुए गठबंधन नहीं हैं. इस तरह के गठबंधनों के बूते सत्ता में बने रहने की गंध आज तक महसूस की जा सकती है.

इन गठबंधनों से बनी ‘मजबूर सरकारें’ लोकशाही-व्यवस्था को और अधिक खोखला करती हैं. भारत में 1989 से 1999 तक एक के बाद एक अल्पमत सरकारें आती रहीं. चुनावों के बाद हुए गठबंधनों ने संसदीय व्यवस्था को लज्जित करने में कोई कसर बाकि नहीं रखी. क्षेत्रीय दलों के बाहरी और अंदर के समर्थनों ने केंद्र की सत्ता को काफी हद तक अपनी मनमानी में हामी भरने के लिए मजबूर किया. और मनमानी को नजरअंदाज करने की इस आदत से राष्ट्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला.

गठबंधनों की सरकारों से एक और बड़ी बात सामने आई है कि क्षेत्रीय पार्टियों के जमावड़े की वजह से राष्ट्रिय मुद्दों पर कठोर निर्णय लेने में दिक्कत आती है. यूपीए सरकार के दौरान मनमोहन सिंह बांग्लादेश के साथ तीस्ता जल बंटवारे के समझौते पर हस्ताक्षर करना चाहते थे, लेकिन ममता बनर्जी के विरोध के चलते संभव न हो सका. मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि एक पार्टी की सरकार के सामने गठबंधन की सरकार को लोकशाही की परीक्षा में अधिक अंक दिए जा सकते हैं क्योंकि भिन्न-भिन्न पार्टियों से राष्ट्रवाद, पूंजीवाद, वामवाद जैसे विचारों का समूह सरकार को चलाता है. लेकिन फिर भी गठबंधन की सरकारों की स्थिरता को लेकर संशय हमेशा बना रहेगा.

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