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My report Debate: मजबूत सरकार और कमजोर आवाम

गांव चौपाल अपने मन की बात की दिल्ली तक रखता रहा पर इस बहुमतवाली सरकार में दिल्ली अपने मन की बात गांव तक पहुंचाने लगा

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मैं आज रेट्रोस्पेक्शन में गठबंधन सरकार के पक्ष में हूं, उस वक्त सरकार के ऊपर गठबंधन की जिम्मेदारियां थीं और जिम्मेदारियों का उत्तरदायित्व बोध था. सत्ता की शक्तियों का विकेंद्रीकरण जरूरी है. क्षेत्रीय पार्टियों की केंद्र सरकार में भागीदारी से सरकारी योजनाओं का न सिर्फ कार्यान्यवन सही ढंग से हुआ, बल्कि देश का चुनावी डिस्कोर्स भी विकास की परिधि पर घूमने लगा था.

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आर्थिक तंगी के दौर में भी सरकारी संस्थाओं पर आस्था बरकरार रही. संविधानिक ढांचे पर यकीन बरकरार रहा, नौकरियां धीमी ही सही,पर संस्थागत रफ्तार से चलती रही. लोक कल्याणकारी आदर्शों का भारत किसानों के लिए खड़ा रहा, अपने हक और हुकूक की बात उत्तर आधुनिक युग में देश के अंदर सामाजिक ससंस्कृतिक रूप से हाशिये पर मौजूद लोगों के लिए भी उदारवादिता के साथ खड़ा रहा.

गांव चौपाल अपने मन की बात की दिल्ली तक रखता रहा. पर इस बहुमत वाली सरकार में दिल्ली अपने मन की बात गांव तक पहुंचाने लगा. अब सुनने की बारी थी. दिल्ली की सत्ता केंद्र तो स्थिर दिख रही है, पर नोटबंदी, GST, आरक्षण के आंतरिक ढांचे के साथ छेड़छाड़, किसान कर्जमाफी में प्राइवेट कंपनियों का हस्तक्षेप, 4G में निजी कंपनी का एकाधिकार, स्थायी नौकरियों में बेतहाशा कमी , पेंशन जैसे गंभीर विषयों के साथ आम जिंदगी पहले से ज्यादा टेंशन ले रही है.

बीते दशक में भारत जहां अंतरजातीय विवाह की बिसात पर लोकतंत्र के नए विषय तलाश रहा था, इस स्थायी सरकार में धर्म के तड़के के साथ अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर भी असहज है. पर्सनल कैरेक्टर स्लेजिंग के साथ राजनीति का डिस्कोर्स आहिस्ते आहिस्ते नैरो होता चला गया. कितने किसानों ने आत्महत्या कर ली, कितने लेखकों / कलाकारों को राष्ट्रीयता के नए परिभाषा के मद्देनजर चुप करा दिया गया, कितने सरकारी संस्थानों मसलन CBI, RBI की विश्वसनीयता में कमी से इसकी साख कमजोर हो रही है. आए दिन टैक्स में बदलाव, पेट्रोल की कीमतों में बदलाव, रातों- रात होल्डिंग टैक्स का 10 गुना बढ़ जाना, स्वक्षता सेस , किसानों की ऋण माफी में आनाकानी और कॉरपोरेट घरानों के NPA पे चुप्पी और लोन वेभर कुछ ऐसे विपरीत संवादों को जन्म दिए, जो इस स्थायी सरकार के पहले मौजूद नहीं थे.

जो रही सही सामाजिक गठजोड़ थी, उस ताने बाने को सामाजिक धर्म गुरुओं ने कम करने में कोई गुरेज नहीं किया. धर्म खुद को अनुशासित करने के लिए है. राजनीति समाज जो अनुशासित करती है।.पर धार्मिक लीडर राजनीतिक लीडरों के साये में या इतने सानिध्य में नजर आने लगे कि एक बड़े तबके की धार्मिक आस्था भी हिलने लगी है. एक सत्ताधरी हिन्दू और एक विपक्षी हिन्दू इससे पहले देश में नहीं था और इस स्थायी सरकार के पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था कि सरकार और सत्ताधरी राजनीतिक दल समानार्थी शब्द की तरह पेश आ रहे हों ! कम से कम वाजपेयी जी या मनमोहन जी की गठबंधन सरकारों के समय तो कतई ऐसा न था ! देश का प्रधानमंत्री पद पूरे विपक्ष का भी प्रतिनिधित्व करता है. ये स्मरण दिलाने की जरूरत गठबंधन सरकारों को नहीं थी.

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