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क्‍या अयोध्‍या विवाद का फैसला तय करेगा मोदी की आगे की राह?

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की सुनवाई 4 जनवरी से सुप्रीम कोर्ट में शुरू होगी.

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राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद केस पर 4 जनवरी से सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू होगी. इस विवाद की जड़ें करीब पांच सौ वर्ष पुरानी हैं. सुप्रीम कोर्ट में पहुंचे हिंदू पक्षकारों के मुताबिक, अयोध्या की राम जन्मभूमि पर त्रेतायुग में निर्मित राम मंदिर था, जिसका समय- समय पर जीर्णोद्धार होता रहा, लेकिन 1528 में बाबर के आदेश पर इस मंदिर को तोड़कर यहां पर बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया गया.

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वहां मस्जिद तो बना दिया गया पर वो धार्मिक विवाद की वजह बन गई. फिर राम जन्मभूमि को मुक्त कराने का संघर्ष तभी से चल रहा है. मुगलकाल से लेकर ब्रिटिश हुकूमत के दौर तक राम जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए हुए अनेकों अभियान के प्रमाण मिलते हैं. राम जन्मभूमि के संघर्ष के शुरुआती दिनों में हिंदू पक्ष को विवादित स्थल के सामने चबूतरा बनाने का अधिकार मिला. इसी चबूतरे पर मंदिर निर्माण के लिए निर्मोही अखाड़े के तत्कालीन महंत रघुवरदास ने 1885 में सिविल कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया.

लेकिन सिविल कोर्ट से महंत को मंदिर बनाने के लिए अनुमति नहीं मिल सकी. मंदिर निर्माण की इजाजत नहीं मिलने से उसी वक्त ये साफ हो गया कि ये विवाद देश को संप्रदायिकता के रंग में डुबो देगा. साथ ही ये भी उसी समय साफ हो गया था कि लोगों की आस्था और अस्मिता से जुड़ा ये विवाद किसी भी धार्मिक आंदोलन या अभियान की बजाय अदालती फैसले से ही तय हो पायेगा. इसके बाद ये विवाद अदालतों में सफर तय करने लगा.

साल दर साल बीता दशक बीत गए, लेकिन ये विवाद चलता रहा. इस दावेदारी के लिए खूब जोर-आजमाइश भी होती रही, जो देश के लोगों के मन में मंदिर मस्जिद का जहर घोलती गई. सन 1934 में मंदिर-मस्जिद को लेकर स्थानीय स्तर पर दंगा हुआ और एक पक्ष ने उसी दौरान विवादित मस्जिद को काफी हद तक नुकसान पहुंचाया. इसके बाद ब्रिटिश हुक्मरानों ने स्थानीय हिंदुओं पर कर लगाकर विवादित इमारत की मरम्मत कराई. इन विवादों के कुछ समय बाद ही 22- 23 दिसंबर 1949 की वो रात आई. 

विवादित ढांचे में रामलला के प्रकट होने का दावा किया गया और यही दौर इस विवाद को नए सिरे से अदालत में लेकर पहुंचा. महंत रामचंद्रदास परमहंस जैसे लोगों ने एक तरफ विवादित इमारत में प्रकट हुए रामलला के दर्शन पूजन का अधिकार मांगा, दूसरी ओर हाशिम जैसे लोग सामने आए, जिन्होंने इमारत से रामलला की मूर्ति को हटाने की मांग की.

इस विवाद को लेकर दोनों ही पक्षों को अदालत से उम्मीदें जगीं और विवादित जमीन पर अपने हक के दावे को लेकर निर्मोही अखाड़ा 1959 में और सुन्नी वक्फ बोर्ड 1961 में अदालत पहुंचा.

करीब पांच दशक तक लोअर कोर्ट और हाईकोर्ट की लंबी सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने मंदिर-मस्जिद विवाद का निर्णय तो दिया, पर वो किसी पक्ष को मंजूर नहीं हुआ. दरअसल हाई कोर्ट ने अपने फैसले में विवादित स्थल को तीन हिस्सों में विभाजित किया था. जिस स्थल पर रामलला विराजमान हैं, उसे रामलला को, रामलला के दक्षिण का हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को, सीता रसोई और राम चबूतरे के हिस्से को निर्मोही अखाड़ा को दिए जाने का फैसला किया गया.

संबंधित पक्षों ने कहा कि ये विवाद मंदिर-मस्जिद का था, न कि बंटवारे का. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के एक साल बाद दोनों पक्ष सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. अब ये न्यायिक नजर से विवाद पूरी तरह से पक चुका है और कोर्ट को भी शायद इसे जल्दी से सुलझाने में कोई अड़चन नहीं आनी चाहिए. हालांकि सियासत इस पर अपना नया रुख अख्तियार कर रही है. आरएसएस मंदिर बनने में हो रही देरी को लेकर मोदी सरकार के खिलाफ आक्रमक हो रहा है.

पीएस मोदी ने एएनआई को दिए इंटरव्यू में कहा कि कोर्ट के फैसले के बाद ही मंदिर बनाने पर विचार किया जाएगा. इससे साफ हो रहा है कि संघ और बीजेपी के बीच मतभेद गहरे हो गए हैं. संघ हमेशा से अयोध्या में मंदिर को लेकर आक्रमक रहा है. मोदी का ये रवैया संघ के रवैये से बिल्कुल ही उलट है. मोदी की तरह ही 2004 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का मत भी तब के संघ के सरचालक सुदर्शन जी के मत से विपरीत था. 

आज नरेंद्र मोदी जिस तरीके से संघ को डि‍फाइन करने की कोशिश कर रहे हैं, वही काम वाजपेयी ने भी किया था. इसका खामियाजा उन्हें 2004 के आम चुनाव में भुगतना पड़ा था. इसके बाद संघ ने हिंदुत्व की आवाज को प्रखर करने वाले नेता लालकृष्ण आडवाणी को कमान थमा दी थी.

संघ के एजेंडे से अलग जिसने भी बीजेपी में विपरीत राह पकड़ी है, संघ ने उसे नेपथ्‍य की राह दिखा दी है. पीएम मोदी अपनी उस छवि को बदलने की कोशिश में जुटे हैं, जिस छवि को संघ ने उनके ऊपर चढ़ाया था.

कुल मिलाकर, राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद का फैसला मोदी के भविष्य की राह को भी तय कर सकता है.

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