लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) लागू कर दिया गया है. इस बीच सीएए 2019 के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर की गईं 200 से ज्यादा याचिकाओं पर मंगलवार (19 मार्च) को सुनवाई हुई. जवाब दाखिल करने के लिए सरकार ने चार हफ्ते का समय मांगा है लेकिन कोर्ट ने उन्हें तीन हफ्ते की मोहलत दी. इस पर अगली सुनवाई 9 अप्रैल को होगी. इन सबके बीच समझने की कोशिश करते हैं कि सीएए के लागू होने से पश्चिम बंगाल की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा?
मतुआ समुदाय कहां सबसे ज्यादा?
सीएए लागू होने के बाद से ही मतुआ के अलावा राजबंशी और नामशूद्र समुदाय काफी चर्चा में है. ये लंबे समय से नागरिकता की मांग कर रहे थे. बंगाल में ये शरणार्थी मुख्य रूप से बांग्लादेश की सीमा से लगे उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना, नदिया, जलपाईगुड़ी, सिलीगुड़ी, कूचबिहार के अलावा पूर्व व पश्चिम बर्धमान जिले में फैले हैं, बंगाल में इन समुदाय को मानने वालों की संख्या 3 करोड़ के लगभग मानी जाती है.
राज्य में नदिया और उत्तर व दक्षिण 24 परगना जिले में 40 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर इनकी मजबूत पकड़ मानी जाती है. वहीं लोकसभा की करीब 11 सीटों पर इनके वोट को निर्णायक समझा जाता है.
हालांकि नामशूद्र कुल एससी आबादी का 17.4 प्रतिशत है जो उत्तर बंगाल में राजबंशियों के बाद राज्य का दूसरा सबसे बड़ा ब्लॉक है.
अब सीएए लागू के बाद बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए गैर मुस्लिम प्रवासियों (हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई) को भारतीय नागरिकता मिल सकेगी. ये फायदा केवल उन्हीं शरणार्थियों को मिलेगा जो 31 दिसंबर, 2014 तक भारत आ चुके हैं. चूंकि ये शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से भारत के विभाजन के बाद बंगाल आ गए थे इसलिए इन लोगों को इस कानून का लाभ मिलेगा.
मतुआ समुदाय का इतिहास और राजनीति में कद
इस समुदाय की स्थापना समाज सुधारक हरिचंद ठाकुर ने की थी, जिसकी मूल भावना वर्ण व्यवस्था को खत्म करना रही है. आजादी के बाद संप्रदाय की शुरुआत करने वाला ठाकुर परिवार पश्चिम बंगाल में आकर बस गया. हरिचंद ठाकुर की दूसरी पीढ़ी मतुआ समुदाय के केंद्र में थी.
पूरा जिम्मा उनके पड़पोते प्रमथ रंजन ठाकुर और उनकी पत्नी वीणापाणि देवी उर्फ बड़ो मां पर था. इन लोगों ने मिलकर बांग्लादेश के बॉर्डर पर ठाकुरगंज नाम की एक शरणार्थी बस्ती बसाई और राज्य में मतुआ समुदाय को एकजुट किया.
प्रमथ रंजन ठाकुर ने 1962 में पश्चिम बंगाल के नदिया जिले की अनुसूचित जनजाति के लिए रिजर्व सीट हांसखली से विधानसभा का चुनाव लड़ा और जीतकर विधानसभा पहुंचे.
बंगाल की राजनीति में अहम भूमिका
राज्य में लेफ्ट की ताकत बढ़ाने का काम मतुआ समुदाय ने किया. 1977 के चुनाव के लिए प्रमथ रंजन ठाकुर ने लेफ्ट को समर्थन दिया. इस दौरान बांग्लादेश से लगे इलाकों और मतुआ महासभा के लोगों ने लेफ्ट के लिए खुलकर वोट किया. पार्टी की सत्ता का ये सिलसिला साल 2011 तक कायम रहा.
हालांकि इसी बीच, 2010 में बड़ो मां ने ममता बनर्जी को मतुआ संप्रदाय का संरक्षक घोषित कर दिया. इसे औपचारिक तौर पर ममता बनर्जी का राजनीतिक समर्थन माना गया.
टीएमसी से बढ़ी नजदीकियां
इसी दौरान, पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के खिलाफ माहौल बन रहा था. मतुआ संप्रदाय ने तब तृणमूल कांग्रेस का समर्थन किया. साल 2014 में संप्रदाय की राजनीतिक ताकत बढ़ी. बड़ो मां (मतुआ माता) के बड़े बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर को तृणमूल कांग्रेस ने बनगांव लोकसभा सीट से टिकट दिया और वो चुनाव जीतकर संसद पहुंच गए.
साल 2015 में कपिल कृष्ण ठाकुर का निधन हो गया. इसके बाद उनकी पत्नी ममता बाला ठाकुर ने इस सीट से 2015 उपचुनावों में तृणमूल कांग्रेस के ही टिकट पर चुनाव जीता. 5 मार्च 2019 को मतुआ माता का निधन हो गया.
...सामने आया राजनीतिक बंटवारा
परिवार में राजनीति बंटवारा सामने आया जब 2019 के लोकसभा चुनावों में छोटे बेटे मंजुल कृष्ण ठाकुर ने बीजेपी का दामन थाम लिया. 2019 में मंजुल कृष्ण ठाकुर के बेटे शांतनु ठाकुर को बीजेपी ने बनगांव से टिकट दिया और वह 1 लाख से अधिक वोटों के अंतर से जीतकर सांसद बन गए.
बता दें, शांतनु ठाकुर ने इस चुनाव में अपने ही परिवार की ममता बाला ठाकुर को हराया था. ममता बाला ठाकुर बीनापाणि देवी के बड़े बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर की पत्नी हैं जिन्होंने 2015 में हुए उपचुनाव में टीएमसी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव जीता था.
बीजेपी और मतुआ वोटर
जानकार बताते हैं सीएए लागू करने का फायदा बीजेपी को आगामी लोकसभा चुनाव में बंगाल में मिल सकता है. मतुआ संप्रदाय लंबे समय से नागरिकता की मांग कर रहा था. चुनाव से ठीक पहले ऐसी घोषणा सीधे इन वोटर्स को साधने की तरफ इशारा करती है.
बता दें कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सीएए लागू करने के वायदे के चलते बीजेपा को मतुआ समुदाय का समर्थन मिला था और पार्टी मतुआ के प्रभाव वाले बनगांव समेत अन्य सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाबी हासिल की थी.
बनगांव के इलाके में मतुआ समुदाय के वोटर 65 से 67 फीसदी है जबकि बाकी 10 लोकसभा सीटें जहां मतुआ समुदाय का प्रभाव ज्यादा है, वो हैं- कृष्णानगर, रानाघाट, मालदा उत्तरी, मालदा दक्षिणी, बर्धमान पूर्वी, बर्धमान पश्चिमी, सिलीगुड़ी, कूच बिहार, रायगंज और जॉयनगर.
इन सभी सीटों पर मतुआ समुदाय के वोटरों की संख्या औसतन 35 से 40 फीसदी मानी जाती है. ऐसे में इस समुदाय का वोट काफी महत्वपूर्ण हो जाता है.
पश्चिम बंगाल में मतुआ राजनीतिक रूप से सभी दलों के लिए बेहद अहम समुदाय है. उनका वोट किसी भी चुनाव में एक निर्णायक ताकत रखता है. वे पंचायत से लेकर विधानसभा और लोकसभा सभी चुनावों में वोट देते आ रहे हैं. इसके बावजूद उनके देश के नागरिक होने या न होने पर लंबे समय से विवाद चल रहा है.
अभी सीएए लागू होने के बाद भी यही सवाल उठ रहा है कि वोट देने का अधिकार होने के बाद इस समुदाय में इतनी खुशी क्यों है..! दरअसल, नागरिकता उनके लिए एक भावनात्मक मुद्दा है. आंदोलन की शुरुआत में पानी से लेकर घर तक के लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ा. ऐसे में इस समाज का मानना है कि सीएए की वजह से उन्हें बच्चों का भविष्य सुरक्षित रहेगा.
ममता क्यों कर रहीं विरोध?
सीएए लागू होने के बाद ममता बनर्जी की चिंता बढ़ गई है. उनका कहना है कि वो राज्य में इसे किसी कीमत पर लागू नहीं होने देंगी. दरअसल, ममता बनर्जी को डर है कि सीएए लागू होने के बाद मतुआ संप्रदाय बाहुल्य वाली 5 से 6 सीटों पर टीएमसी को नुकसान हो सकता है और इसका फायदा सीधे बीजेपी को मिल जाएगा. 2019 के चुनाव में भी यह फैक्टर काफी काम कर गया है.
2016 के चुनाव में उत्तर 24 परगना के 33 विधानसभा क्षेत्रों में से 27 पर टीएमसी ने परचम फहराया था. बागदा, बोगांव उत्तर, बोगांव दक्षिण और गायघाटा ऐसी सुरक्षित विधानसभा सीटें हैं मतुआ संप्रदाय की आबादी 80 फीसदी के करीब है. इन सभी क्षेत्रों में बीते विधानसभा चुनावों ने बीजेपी ने अच्छी बढ़त हासिल की थी.
कुल मिलाकर मतुआ संप्रदाय का बड़ा हिस्सा हार जीत में निर्णायक भूमिका निभाता है. 2019 के चुनाव में बीजेपी की बढ़त का बड़ा कारण सीएए को माना जा रहा था. इस बार भी ममता को शायद इस बात का डर है.
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