केंद्र सरकार ने मंगलवार 18 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट को कहा है कि विश्वविद्यालय अंतिम वर्ष की परीक्षाओं के लिए और समय ले सकते हैं. लेकिन बिना परीक्षाओं के डिग्री नहीं देने के लिए केंद्र अपने निर्णय पर अडिग है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्देश अभी जारी नहीं किए हैं लेकिन सभी काउंसिलों के नोट्स और दलीलों को मद्देनजर रखते हुए कोर्ट मामले की सुनवाई खत्म कर चुका है.
यूजीसी और केंद्र के लिए अर्जी दाखिल करते हुए, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तीन सदस्यी बेंच को बताया कि,
“विश्वविद्यालय को परीक्षाएं करवाने के लिए वक्त दिया जा सकता है, लेकिन कोई भी विश्वविद्यालय बिना परीक्षाओं के डिग्री देने का फैसला नहीं ले सकता.”
जस्टिस अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली इस तीन सदस्यी बेंच ने यूजीसी के दिशा निर्देशों को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं को सुना. इन याचिकाओं में सितंबर 2020 तक अंतिम वर्ष की परीक्षाओं को अनिवार्य करने की मांग थी.
मेहता ने क्या बोला?
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि, “मई 2020 में बनाई गई राज्य स्तरीय कमिटी ने अंतिम वर्ष की परीक्षाओं को करवाने के लिए जोर दिया था. केंद्र भी इस प्रस्ताव को मान चुका था. लेकिन फिर महाराष्ट्र सरकार ने राजनीतिक दांव पेंच से मामले को यहां पहुंचा दिया.”
कुछ विश्वविद्यालयों ने ऑनलाइन, ऑफलाइन या किसी तरह मिला जुलाकर परीक्षाएं करा लीं हैं. इस बात को ध्यान में रखते हुए मेहता ने आगे कहा कि,
“अंतिम वर्ष की परीक्षाओं के अंकों के आधार पर ही स्कॉलरशिप, नौकरियां और बाकी बड़े मौके मिलते हैं. ये सभी 21 से 23 साल के स्टूडेंट्स हैं. आप क्या सच में विश्वास कर सकते हैं कि ये बाहर नहीं निकलेंगे?”
2003 के यूजीसी रेगुलेशन्स मैंडेट मिनिमम स्टैंडर्ड के अनुसार केंद्र के पास ताकत है कि वो विश्वविद्यालयों का परीक्षाएं लेने का निर्णय तमाम कारणों से खारिज कर सकते हैं. केंद्र का निर्णय सर्वोच्च होता है.
महाराष्ट्र सरकार की दलीलें क्या थीं?
महाराष्ट्र सरकार की तरफ से वरिष्ठ वकील अरविंद दतर ने तीन सदस्यी पैनल को कहा कि, “महाराष्ट्र में कोरोना की स्थिति सबसे बदतर है. 2016 के एक फैसले के मुताबिक केंद्र परीक्षा कराने के मानकों को ऊपर नीचे कर सकता है, लेकिन परीक्षाएं कराने के लिए बाध्य नहीं कर सकता.” और जब वकील दतर ने छात्रों के कल्याण की बात रखी तो जस्टिस भूषण का साफ कहना था कि, “छात्रों का भला सिर्फ प्रशासन तय कर सकता है. छात्र इतने परिपक्व नहीं होते.”
सुनवाई के दौरान जस्टिस सुभाष रेड्डी ने कहा कि, “परीक्षाएं नहीं करवाना हमारे मानकों और गुणवत्ता को कम करेगा” इस पर वकील दतर ने पूछा कि,
“अगर आईआईटी जैसा अंतर्राष्ट्रीय ख्याति वाला संस्थान अपने छात्रों को बिना परीक्षाओं के पास कर सकता है तो यूजीसी क्यों नहीं कर पा रहा? ”.
इस पर फिर जस्टिस भूषण ने सीधा जवाब दे दिया कि आज का मामला आईआईटी का नहीं है. तो इस पर बात ना हो.
तो अब महाराष्ट्र के पास क्या विकल्प है?
वकील दतर ने “परीक्षाएं नहीं करवाने से मानकों और गुणवत्ता कम होगी” वाले बयान को खारिज करते हुए कहा कि, “अगर कोई छात्र अंतिम सेमेस्टर में है, तो मतलब उसने 5 सेमेस्टर पूरे पास किए हैं. इसलिए वो छठा सेमेस्टर भी पास कर लेंगे. पिछले पांच सेमेस्टर के आधार पर छात्रों का मूल्यांकन किया जा सकता है.”
वकील दतर ने 6 जुलाई को जारी किए गए नोटिस को निरस्त करने की मांग करते हुए कहा कि, यूजीसी विश्वविद्यालयों पर 30 सितंबर तक परीक्षाएं करवाने का निर्देश देकर तानाशाही नहीं कर सकता.
अरविंद दतर ने आगे सवाल पूछते हुए कहा कि,
“महाराष्ट्र जैसे राज्य जहां कोरोना ने सबसे ज्यादा तबाही फैलाई है, वहां ऐसे हालात में परीक्षाएं करवाना कैसे जायज है. अगर ये परीक्षाएं होती हैं तो ये आर्टिकल 14 का उल्लंघन होगा. क्योंकि ऐसा होने से असमानों के बीच समान व्यवहार होगा.”
दतर का कहना ये भी है कि अंतिम वर्ष की परीक्षाएं सितंबर तक करवाने के निर्णय के पहले महाराष्ट्र के किसी भी विश्वविद्यालय से राय नहीं ली गई थी.
उड़ीसा का क्या कहना था?
उड़ीसा के अटॉर्नी जनरल ने कहा कि, “परंपरागत परीक्षाएं करवाना इस साल संभव नहीं है क्योंकि उड़ीसा अभी कोरोना मामलों की संख्या में अपने पीक पर पहुंच रहा है.” उन्होंने आगे कहा कि, इस बार परीक्षाएं करवाना एक पहाड़ जैसा कार्य होने वाला है. क्योंकि छात्रों को रहने के लिए हॉस्टलों और परिसर में रहने देने से संक्रमण और ज्यादा फैल सकता है. ये सभी की जान के लिए खतरा होगा.
याचिका दायर करने वालों का क्या कहना है?
शिक्षकों के एक संघ का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ वकील जयदीप गुप्ता का कहना था कि, “पश्चिम बंगाल में तो परीक्षाएं करवाने का कोई सवाल ही नहीं उठता. पूरे राज्य में अलग-अलग परीक्षा केंद्र बनेंगे, छात्रों को केंद्रों तक पहुंचने के लिए मेट्रो, ट्रेन और बाकी साधनों की जरूरत होगी. और वो अभी संभव नहीं है.”
जयदीप गुप्ता ने यूजीसी के सेक्शन 12 को याद करते हुए कहा कि यूजीसी खुद ही अपने दिशानिर्देश को पूरी तरह फ़ॉलो नहीं कर रही. देश भर के विश्वविद्यालयों की परीक्षा करवाने के लिए केवल तीन जजों के फैसले पर निर्भर करना सही नहीं है.
“क्या कहते हैं यूजीसी के दिशानिर्देश ?”
- यूजीसी के रिवाइज्ड निर्देशों के मुताबिक, अंतिम साल की परीक्षाएं सितंबर महीने के अंत तक हों. माध्यम ऑनलाइन, ऑफलाइन कुछ भी हो सकता है.
- निर्देशों के मुताबिक अगर कोई छात्र किसी कारण से परीक्षाओं में शामिल नहीं हो पाता है तो, जब भी संभव हो उन्हें स्पेशल एग्जाम में बैठने का मौका मिलेगा.
- पहले और दूसरे साल के छात्रों के लिए ऐसे कोई निर्देश सामने नहीं आए हैं. इसका मतलब है कि उन्हें पिछले सभी सेमेस्टर के अंकों के आधार पर अगले सेमेस्टर में प्रमोट किया जा सकता है.
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