1967 में भारत ने अपने आत्मसम्मान को हासिल करने के लिए चीन के खिलाफ लड़ाई लड़ी, अपनी जमीन की रक्षा और जीत हासिल की. 1967 में नाथू ला और चाओ ला दर्रा में हुई लड़ाइयों ने भारत-चीन की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया. लेकिन, क्यों 1962 में चीन के हाथों निराशाजनक पराजय के बाद इस शानदार जीत को भुला दिया गया?
वरिष्ठ सैनिक प्रोबाल दासगुप्ता ने अपनी किताब ‘वाटरशेड 1967 : चीन पर भारत की भुला दी गयी जीत’ में ऐसे अनुत्तरित सवालों के जवाब दिए हैं.
“जब आप 1971 पर नजर डालते हैं तो चीन ने भारत-पाकिस्तान युद्ध में हस्तक्षेप नहीं किया. बहुत कम लोगों ने पूछा कि ऐसा क्यों हुआ, लेकिन इस तथ्य को नजरअंदाज कर देने के बावजूद कि चीन सिलीगुड़ी कॉरिडोर के नीचे नहीं जा सका और उसे भारत से अलग कर नहीं कर पाया, ऐसे कई कारण हैं जो 1967 को महत्वपूर्ण बनाते हैं. उसके बाद कई गतिरोध हुए. चाहे वह बेग ओल्डी हो या 2017 में डोकलाम, भारत ने हमेशा उसी तरीके का इस्तेमाल किया है और चीन के विरुद्ध गतिरोध की स्थिति में प्रभावशाली हैसियत हासिल की है.”प्रोबाल दासगुप्ता, लेखक
दासगुप्ता ने आगे कहा, “मैं समझता हूं कि उसी ने ऐसी स्थिति बनायी और यह सुनिश्चित किया, जो मैं कहता रहा हूं कि शांति तभी होती है जब आप संतुलन हासिल करते हैं. इस तरह यह बराबरी थी जिसे 1967 ने हासिल किया था, जिसने भारत के गौरव को लौटाया. 1967 को ही इस बात का भी श्रेय जाता है कि उसने चीन को यह संदेश दिया कि सैन्य रूप से भारत बड़ी ताकत है और वे उसे रौंदा नहीं जा सकता.”
1967 में क्या हुआ?
1967 में भारत और चीन के बीच संबंध पहले से तनावपूर्ण थे लेकिन मामला सामने आया अगस्त 1967 में. नाथू ला से सेबु ला दर्रे के साथ सीमा पर कंटीले तार लगाने से चिढ़कर चीनियों ने भारतीय सैनिकों के साथ धक्का-मुक्की शुरू कर दी. उसके बाद नाथू ला दर्रे को भारत से छीनने की कोशिश कर रहे चीनियों के साथ पूरी लड़ाई शुरू हो गयी. कमांडिंग अफसर लेफ्टिनेंट सगत सिंह के साहसिक फैसले ने चीन के मकसद को नाकाम कर दिया.
“चूकि पश्चिमी मोर्चे पर पाकिस्तान के खिलाफ भारत बढ़ रहा था, चीनी टुकड़ियां सिक्किम के पास सीमा पर इकट्ठा हो गयीं और तब यह उम्मीद जतायी गयी थी कि भारतीय सैनिक नाथू ला से लौट जाएगी. लेकिन जनरल सौगत ने ऐसा करने से मना कर दिया, क्योंकि इससे चीनियों को सिलीगुड़ी कॉरिडोर से नीचे सिक्किम तक पहुंचना आसान हो जाता. इसलिए उन्होंने अपने वरिष्ठों से असहमति जताई और अपने फैसले पर अड़े रहे.”प्रोबाल दासगुप्ता, लेखक
अगर जनरल सगत सिंह मैदान पर नहीं होते तो नाथू ला में तैनात चीनी टुकड़ियों ने समूचे दर्रे पर कब्जा कर लिया होता. इससे 1971 युद्ध के समय उनके लिए सिलीगुड़ी कॉरिडोर तक पहुंचना आसान हो जाता. तब भारत और पाकिस्तान के बीच 1971 युद्ध का नतीजा बिल्कुल अलग होता.
“मनोवैज्ञानिक रूप से राजनीतिक नेतृत्व कमजोर था और 1962 में यह काफी हद तक ध्वस्त हो चुका था जहां तक चीन का संबंध है. हमने पाकिस्तान के खिलाफ 1965 में थोड़ी सफलता हासिल की थी. बहरहाल चीन के विरुद्ध समग्रता में हमारा रुख अब भी बहुत अलग नहीं था और यह रक्षात्मक था. यह जनरल सगत की जबरदस्त साख ही थी कि वे तब नेतृत्व के खिलाफ तक चले गये.”प्रोबाल दासगुप्ता, लेखक
अक्टूबर 1967 में चाओ ला में एक और संघर्ष का अंत ठीक उसी तरीके से हुए जैसा कि नाथू ला में हुआ था. भारतीय सेना की गोरखा और ग्रेनेडियर टुकड़ियों ने इन लड़ाइयों में चीनी पीएलए बलों को नेस्तनाबूत कर दिया. इस लड़ाई में 500 से ज्यादा की मौत हुई और एक हजार घायल हुए.
दासगुप्ता का मानना है कि यह सही तरीके के राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व था जिसमें जनरल सैम मानेक शॉ और जनरल सगत ने 1967 की लड़ाईयों में फर्क ला दिया.
प्रोबाल दासगुप्ता ने कई कारण गिनाए कि क्यों 1967 के युद्ध को भुला दिया गया.
“यह वह युग था जब भारत ने कुछ साल पहले ही विपरीत परिस्थितियां देखी थीं. पांच साल पहले 1962 में भारत-चीन युद्ध में भारत को भारी नुकसान पहुंचा था. इसलिए जब यह हुआ तो इसे मीडिया में उतनी जगह नहीं मिली और लोग सही मायने में नहीं जान पाए कि वहां हुआ क्या था.”
“दूसरी बात यह भी थी कि भारत और चीन इस मामले का अधिक से अधिक दिखावा करना नहीं चाहते थे. इसलिए मैं सोचता हूं कि इस बात पर सहमति बनी थी कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे अधिक नहीं उठाया जाए. तीसरा सबसे महत्वपूर्ण कारण था 1971 का युद्ध जब भारत ने शानदार जीत हासिल की, जिसने अतीत में हुए कई मामलों को धो डाला.”प्रोबाल दासगुप्ता, लेखक
पुस्तक के लिए अनुसंधान करते हुए प्रोबाल दासगुप्ता ने पूरे देश की यात्रा की. दार्जिलिंग के पास लम्हाटा गांव से लेकर पूर्व जनरल के दरबार तक जिन्होंने लड़ाई में हिस्सा लिया था. दासगुप्ता ने उन सैनिकों से सुनी हुई कहानियों को इकट्ठा किया जो ऐतिहासिक लड़ाई का हिस्सा रहे थे.
सैन्य रिकॉर्ड को डी-क्लासीफाई करना क्यों अहम है?
“सैन्य रिकॉर्ड को डी क्लासीफाइ करने के महत्व को रेखांकित करते हुए प्रोबाल दासगुप्ता आगे कहते हैं, “ऐसा नहीं होने का नतीजा यह हुआ है कि विद्वान, इतिहासकार और हमारे देश के लोग अपने ही इतिहास को नहीं जानते. और, बेशक सैन्य अधिकारी, जनरल और दूसरे लोग अपनी भूल से सीखते हैं और मिली जीत का आनन्द लेते हैं. अगर मुझे कोई उदाहरण देना होता तो मैं कहता कि अतीत में कोई घटना हो और उसका इतिहास अगर आप नहीं लिखते हैं तो कोई और यह काम करेगा.”प्रोबाल दासगुप्ता, लेखक
यह बताते हुए कि इतिहास अपना संदेश देता है दासगुप्ता ने कहा, “ 1962 का इतिहास ब्रिगेडियर जॉन डाल्वी ने लिखा, जो 7वीं ब्रिगेड के कमांडर थे जो चीनी सैन्य शक्ति के हाथों पराजित पहली भारतीय ब्रिगेड थी. ब्रिगेडियर डाल्वी कैद कर लिए गये थे और उन्हें कुछ समय तक चीन में रखा गया था. जब वे लौटे, उन्होंने एक किताब लिखी. यह बुरा और विस्फोटक था, लेकिन हमने उस पर प्रतिबंध लगा दिया.”
उन्होने आगे बताया, “उसके बाद नेविल मैक्सवेल ने भारत और चीन पर एक किताब लिखी. इसमें चीन के प्रति सहानुभूति थी. उससे जुड़ी बात यह है कि जब हेनरी किसिंगर 1970-71 में चीन गये, तो उन्होंने बीजिंग का दौरा किया और चाऊ इन लाइ से मिले जिन्होंने वही किताब उन्हें बतौर उपहार भेंट की. चीन की ओर बह गये हेनरी किसिंगर और उनके समूचे भारत विरोधी संदेश का आधार और अध्ययन उसी किताब से था जिसे उन्होंने बहुत प्रभावशाली बताया था. तो इतिहास यही करता है. इतिहास एक संदेश के रूप में ढल जाता है.”
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