एक इतिहासकार ने आज के भारत की तुलना इमरजेंसी के वक्त से की है. इतिहासकार ने कहा है कि अगर विपक्षी पार्टियां लोगों के गुस्से को भुनाने में कामयाब हुईं, तो 1977 की कांग्रेस की करारी हार की ही तरह इस बार आम चुनाव में सत्ताधारी पार्टियों को शिकस्त का सामना करना पड़ सकता है.
प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर ज्ञान प्रकाश ने हाल ही में प्रकाशित अपनी किताब ‘इमरजेंसी क्रॉनिकल्स' के बारे में बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में 'किसी तानाशाही नेता' के गुण हैं.
उन्होंने कहा कि 1975 में जब देश में इमरजेंसी लगाई गई थी, तब के मुकाबले आज के हालात ज्यादा भयंकर हैं. मोदी का आज वही रुतबा है, जो इमरजेंसी के दौर में इंदिरा गांधी का था.ज्ञान प्रकाश, इतिहासकार
जनता पार्टी ने किया था धराशायी
इमरजेंसी के अंत में, 1977 में कई पार्टियों के आनन-फानन तैयार एक गठबंधन के रूप में सामने आई जनता पार्टी ने सत्तारूढ़ कांग्रेस को धूल चटाई थी. जनता पार्टी को 298 सीटें मिली थीं, जबकि कांग्रेस की सीटें 350 से सिमटकर 153 पर आ गई थी.
प्रकाश ने कहा, "इंदिरा गांधी और मोदी के बीच में बहुत सी समानताएं हैं. हाल में मैं एक खबर पढ़ रहा था, जिसमें मोदी कह रहे थे कि देश के हर बूथ को उन्हें जानना चाहिए. उन्होंने 'मेरी पार्टी' नहीं कहा, बल्कि ‘मैं' कहा, जैसे लोकतंत्र की समूची नियति उनकी 56 इंच की छाती पर ही टिकी हो.''
इस तरह ये एक बहुत बड़ा, बहुत ही बड़ा दावा है. यही चीज किसी तानाशाह को उभरने का अवसर देती है. आप इसी का एक रंग इंदिरा गांधी में देख सकते हैं. वह उसी तरह भारतीय राजनीति में छाए हैं, जिस तरह एक वक्त इंदिरा गांधी छाई थीं. उनकी तस्वीरें, नारे... उसी तरह हर जगह छाए हैं, जिस तरह एक वक्त में इंदिरा गांधी के छाए रहते थे.ज्ञान प्रकाश, इतिहासकार
प्रकाश ने कहा कि आज सत्ता के पास अभूतपूर्व शक्तियां हैं और किसी इमरजेंसी की घोषणा करने की वास्तव में कोई जरूरत नहीं है.
मोदी को ‘जमीनी सेना- बजरंग दल और उसी तरह के बल- का समर्थन’ हासिल है, जो इमरजेंसी को कभी नहीं हासिल था. अभी उनके पास आधिकाधिक आज्ञाकारी या कॉरपोरेट इलेक्ट्रॉनिक मीडिया है, जो 1975-77 में वजूद में नहीं था... इस सरकार के पास अभूतपूर्व शक्तियां हैं.ज्ञान प्रकाश, इतिहासकार
प्रकाश ने मौजूदा हालात का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘ये साफ है कि हर जगह कृषि क्षेत्र में संकट है. कृषक संकट वास्तविक है. युवाओं तक के लिए भी रोजगार में बढ़ोतरी नहीं हो पाई है. इसलिए अगर राजनीतिक पार्टियां जमीन पर मौजूद जन असंतोष को सही तरीके से अभिव्यक्त करती हैं, तो 1977 दोहराया जा सकता है."
(इनपुट: भाषा)
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