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26/11 पर पूर्व पाक NSA दुर्रानी ने जो नहीं माना वो जानना जरूरी है

दुर्रानी के कबूलनामे को गौर से देखा जाना चाहिए

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भारत
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इस साल 6 मार्च को भारत में ट्विटर पर मेजर जनरल (रिटायर्ड) महमूद अली दुर्रानी का बयान छाया हुआ था. दुर्रानी ने कहा था कि 2008 में मुंबई पर हुए हमले के पीछे पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन का हाथ था. 1 मई 2008 से 10 जनवरी 2009 तक दुर्रानी, पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) थे. जब हमले हुए, वह तब भी इस पद पर थे. उन्होंने यह भी कबूल किया था कि अजमल कसाब पाकिस्तानी था. इस हमले में शामिल कसाब अकेला आतंकवादी था, जो जिंदा पकड़ा गया था.

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हालांकि, दुर्रानी के कबूलनामे से काफी पहले एक साहसी पत्रकार ने पाकिस्तान के पंजाब सूबे में ओकरा के पास कसाब के वालिद का इंटरव्यू किया था. भारतीय पहले से ये बातें जानते थे, लेकिन उन्हें शायद दुर्रानी जैसे शख्स से इस कबूलनामे का इंतजार था.

जनरल ने जो नहीं कबूल किया, वह गौर करने लायक था.

क्या दुर्रानी ने सचमुच कोई बड़ी बात कही थी. क्या उनके बयान को मीडिया में इतनी जगह मिलनी चाहिए थी? पहले से तैयार स्पीच में जनरल ने कहा था:

आतंकवाद पूरी दुनिया के लिए खतरा बन चुका है, जिसे हराने की जरूरत है. इसके लिए राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रणनीति बनाई जानी चाहिए. मुंबई में 26/11 हमला एक पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन ने किया था.’ इसमें कुछ भी नया नहीं है. दुनिया जानती थी कि मुंबई आतंकवादी हमले के पीछे लश्कर-ए-तैयबा का हाथ

दुर्रानी का झूठ

जनरल ने जिन बातों से इनकार किया, उन्हें अधिक कवरेज मिलनी चाहिए थी. तैयार स्पीच पढ़ने के बाद सवाल-जवाब सेशन में दुर्रानी ने कहा कि मुंबई हमलों से पाकिस्तान सरकार का कोई लेना-देना नहीं था. हालांकि, डेविड कोलमैन हेडली कह चुका था कि यह हमला ना सिर्फ पाकिस्तान सरकार की तरफ से प्रायोजित था बल्कि आईएसआई के अधिकारियों के तार इससे करीबी तौर पर जुड़े हुए थे. पाकिस्तानी-अमेरिकी मूल के हेडली का हमले की योजना बनाने और उस पर अमल में रोल रहा था.
दुर्रानी ने सिर्फ यही झूठ नहीं बोला था. अफगानिस्तान में लोकतंत्र स्थापित करने में पाकिस्तान किस तरह से रोड़े अटका रहा है, उन्होंने इस बारे में पूछे गए सवालों के भी जवाब नहीं दिए. अमेरिका-नाटो-अफगानिस्तान अरसे से इसकी कोशिश कर रहे हैं, जिसे अफगान तालिबान और उसके बर्बर सहयोगियों जलालुद्दीन हक्कानी नेटवर्क और लश्कर-ए-तैयबा की मदद से पाकिस्तान नाकाम करने की कोशिश कर रहा है.

पाकिस्तान की शह पर इन लोगों ने बड़ी संख्या में अफगानों, अंतरराष्ट्रीय नागरिकों और सैन्यकर्मियों की हत्या की है. इस बीच, सिर्फ अमेरिका से पाकिस्तान 33 अरब डॉलर की वित्तीय मदद ले चुका है क्योंकि कथित तौर पर वह आतंकवाद विरोधी जंग में अमेरिका का पार्टनर है.
दुर्रानी के कबूलनामे को गौर से देखा जाना चाहिए
मुंबई हमलों के बाद एकमात्र जिंदा पकड़ा गया आतंकी कसाब
(फाइल फोटो: Reuters)
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मुखौटे के पीछे का असल चेहरा

दुर्रानी लंबे समय से कहते आए हैं कि उपमहाद्वीप की बेहतरी के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच शांति जरूरी है. साल 2000 में उन्होंने एक किताब भी लिखी थी, जिसका नाम था- इंडिया एंड पाकिस्तान: द कॉस्ट ऑफ कॉनफ्लिक्ट, द बेनेफिट्स ऑफ पीस. शांति की हिमायत, किताब लिखने और विनम्र छवि के चलते दुर्रानी ट्रैक 2 माफिया के फेवरेट बने रहे हैं. ट्रैक 2 डिप्लोमेसी की फंडिंग अंतरराष्ट्रीय डोनर करते हैं. इसमें भारत और पाकिस्तान के प्रतिनिधि विदेश में किसी ग्लैमरस लोकेशन पर दोनों देशों के बीच शांति स्थापित करने के रास्तों पर चर्चा करते हैं.

जब दुर्रानी बोलते हैं तो मन उसे सच मानने का करता है. हालांकि, जब उनके बयान पर आप तार्किक ढंग से सोचते हैं तो सच सामने आ जाता है. आखिर जो इंसान यह मानने को तैयार नहीं है कि भारत विरोधी आतंकवादियों को पाकिस्तान पनाह देता आया है और यह उसकी विदेश नीति का हथियार रहा है, वह भला शांति की बात कैसे कर सकता है. पाकिस्तान की भारत विरोधी इस पॉलिसी को पूरी दुनिया जानती है.

‘अच्छे’ जनरल का इंतजार

भारतीय लंबे समय से एक ‘स्पेशल पाकिस्तानी जनरल’ के इंतजार में हैं, जो स्टेट टेररिज्म की इस पॉलिसी को खत्म करेगा. भारतीयों की तरह अमेरिका भी पाकिस्तान के नए आर्मी चीफ की नियुक्ति पर बेचैन होता है. अमेरिकी प्रशासन के अंदर यह चर्चा होती है कि क्या नए जनरल के साथ हम काम कर पाएंगे. सच तो यह है कि पाकिस्तान आर्मी शायद ही भारत के साथ कभी शांति स्थापित करना चाहे.
अगर पड़ोसी देश के साथ पाकिस्तान अमन-चैन कायम कर लेता है तो आर्मी की ताकत कम होगी. अभी उसे सरकार से जितना पैसा मिलता है, वह नहीं मिल पाएगा. सत्ता पर उसका नियंत्रण नहीं रह जाएगा और चुनी हुई सरकार का पलड़ा भारी हो जाएगा. पाकिस्तान आर्मी इसे बखूबी समझती है. इसी तरह से, पाकिस्तान, अफगानिस्तान के साथ भी अमन नहीं चाहता. वह उसे काबू करना चाहता है. उसे पड़ोसी देश नहीं, एक ग्राहक की तलाश है. C Christine Fair is an associate professor at Georgetown University. She can be reached @CChristineFair. The views expressed above are the author's own. The Quint neither endorses nor is responsible for the same.

(सी क्रिस्टीन फेयर, जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं. उनसे @CChristineFair पर संपर्क किया जा सकता है. ये लेखक के निजी विचार हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)

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