फंस गया अमेरिका?
प्रताप भानु मेहता द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि अमेरिकी साम्राज्य एक ऐसी स्थिति में फंस गया है, जहां से यह न तो खुद को संभाल सकता है और न ही इससे वह उबर सकता है. अफगानिस्तान के संदर्भ में रणनीतिकार और न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अखबार भी यही मानते हैं कि पूरी कवायद ने अपनी अहमियत ही खो दी. लेखक फिलक्लेज की लिखी ‘मिशनरीज’ का उदाहरण रखते हैं जिसमें अफगानिस्तान में लंबा वक्त गुजार चुकीं एक पत्रकार लिजे पूछती हैं “कोई ऐसा युद्ध है जहां हम हार रहे हैं”?
शासक अक्सर नुकसान को भी बहुत कम कर आंकते हैं. इराक, लिबिया, वियतनाम, अफगानिस्तान, सोमालिया, लेबनान तक लंबी फेहरिस्त है, जहां अमेरिका को नुकसान झेलना पड़ा है. ईरान से चिली तक बगावतें हुई हैं. कोलंबिया, इक्वाडोर, ग्वाटेमाला, लाउस, होन्डुरास, अल सल्वाडोर हर स्थान पर हिंसा हुई है. सऊदी अरब से लेकर पाकिस्तान तक ने अमेरिकी मकसद को नुकसान पहुंचाया है. सवाल यह है कि क्या अमेरिकी हस्तक्षेप से कोई मकसद हासिल हुआ या हिंसा में कमी आयी? जवाब है- नहीं.
प्रताप भानु मेहता लिखते हैं कि तालिबान, आईएसआईएस, अलकायदा बड़ी शक्तियों के हस्तक्षेप के बावजूद अपना आकार लेता रहा. भ्रष्टाचार, लॉबिस्ट, हथियारों के सौदागर पनपते रहे जिन्होंने महाशक्तियों के पाप को बढ़ाता रहा. नैतिकता कहीं रही नहीं. महाशक्ति लगातार अपना विस्तार करती रही. स्थानीय झगड़ों को भी वैश्विक रूप दिया जाता रहा. पाखंड बढ़ता रहा. हिंसा हकीकत बन गयी. नस्लवाद भी मजबूत हुआ. अफगानिस्तान में कोई सीधा-सादा समाधान नहीं है. महाशक्ति के भ्रष्टाचार ने सेना की वापसी की राह खोल दिए थे. स्थिति में कोई बदलाव लाए बगैर अमेरिका ने कदम बढ़ाए.
सवाल यह है कि क्या तालिबान नये अवतार में है? क्या सऊदी अरब की तरह नतीजे होंगे या फिर अराजकता की ओर जाएगा अफगानिस्तान? अमेरिकी सेना के लौटने से कट्टरवादी ताकतें दुनियाभर में मजबूत हुई हैं. मगर, इसकी थोड़ी भी परवाह नहीं दिखी है.
खत्म हो रहा है अमेरिकी प्रभुत्व
बिजनेस स्टैंडर्ड में टी एन नाइनन ने आर्थिक इतिहासकार चार्ल्स किंडलबर्गर को उद्धृत करते हुए लिखा है कि मौद्रिक स्थिरता के लिए मजबूत शक्ति द्वारा नियम निर्धारण जरूरी है. किंडलबर्गर का आधिपत्य स्थिरता सिद्धांत आर्थिक परिदृश्य पर अक्सर लागू किया गया है. दो विश्वयुद्ध के बीच अस्थिरता का कारण ब्रिटेन का पराभव और वैश्विक मुखिया बनने में अमेरिका का संकोच वजह मानी गयी. अगले 75 साल में अमेरिकी यही कहते रहे हैं कि वैश्विक व्यवस्था वास्तव में उन्होंने बनायी है.
नाइनन लिखते हैं कि अमेरिकी आधिपत्य को चुनौती मिल रही है. अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी सीरिया की घटना का दोहराव लगता है.
ईरान, वियतनाम हर जगह अमेरिका अनुमान लगाने में विफल रहा. वहीं, रूस ने पुतिन के नेतृत्व में खुद को भूमध्यसागर क्षेत्र तक प्रभावशाली बनाए रखने में सफल है. सोवियत संघ के पतन के बाद चीन ने दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों को प्रभावहीन कर दिया है. वह मध्य एशिया तक जा पहुंचा है. लेखक इस ओर भी इशारा करते हैं कि आज हर देश का कारोबार अमेरिका के मुकाबले चीन के साथ ज्यादा है. अमेरिका, जापान, भारत, ऑस्ट्रेलिया-क्वाड-के कम से कम दो देश भारत और ऑस्ट्रेलिया आर्थिक और सामरिक नजरिए से चीन की तपिश का शिकार है. भारत के लिए आगे भी यह चुनौती बनी रहने वाली है.
आतंकी हैं तालिबानी
द इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह लिखती हैं कि जब से तालिबान की वापसी हुई है, मन में पहले दौर की तस्वीरें घूम रही हैं. तड़पा-तड़पा कर मारे जान की एक से बढ़कर एक भयावह तस्वीरें बताती हैं कि तालिबान का शासन कितना क्रूर रहा था. अपहरण के बाद विमान का कंधार ले जाया जाना और आतंकियों को जेल से छुड़ाना भी याद आता है. उनमें वह उमर शेख भी था, जिसने दो दशक पहले अमेरिकी पत्रकार डेनियल पर्ल की हत्या करवाई थी. वह मौलाना मसूद अजहर भी था जिसने संसद पर जिहादी हमला कराया था. बामियान की प्राचीन, आलीशान बुद्ध प्रतिमाओं को बारूद से उड़ाना भी भुलाया नहीं जा सकता.
तवलीन सिंह लिखती हैं कि तालिबान से दोस्ती करना हमारे हित में नहीं है. वह लिखती हैं कि अपने पहले दौर में ही तालिबानी साफ कर चुके हैं कि वे भारत को अपना दुश्मन मानते हैं और भारत के लोगों को काफिर.
अफगानिस्तान अगर जिहादी आतंकवादियों का दोबारा अड्डा बनने वाला है तो उसके निशाने पर रहेगा कश्मीर. तवलीन सिंह आश्चर्य जताती हैं कि इतना सब स्पष्ट रहने के बावजूद भारत सरकार अब भी तालिबान सरकार के साथ रिश्ते की गुंजाइश तलाश रही है. लेखिका का मानना है कि भारत सरकार अगर ऐसा कुछ किया तो वह देशहित को ताक पर रखकर ही होगा.
पुलिस बल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाना जरूरी
ललिता पनिक्कर हिंदुस्तान टाइम्स में लिखती हैं कि गुरुग्राम में एक लड़की ने इसलिए आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसका पीछा किया जा रहा था. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट 2020 के मुताबिक, 2018 में 9438 ऐसी घटनाएं हुईं. कई घटनाएं सामने नहीं आ सकीं, क्योंकि महिलाओं को डर लगता है कि कहीं आरोप उल्टे उन पर ही थोप न दिए जाएं. उन्हें समय पर मदद मिलने की उम्मीद भी नहीं होती. दिल्ली में 2021 के पहले छह महीने में लड़कियों का पीछा करने के मामलों में 63.3% प्रतिशत बढ़ोतरी देखी गयी.
पनिक्कर ने कई पुलिस अधिकारियों के हवाले से लिखा है कि महिलाएं अपने साथ घटी घटनाएं रिपोर्ट करें, इसके लिए पुलिस बल में महिलाओं का होना बहुत जरूरी है. अभी देश में 10.3 फीसदी महिलाएं पुलिस बल में हैं.
यह खुशी की बात है कि 2019-20 में पुलिस बल में महिलाओं की मौजूदगी 16 प्रतिशत बढ़ी है. लेखिका ने याद दिलाया है कि 2009 में केंद्र सरकार की ओर से एडवाइजरी जारी करने के बाद सभी केंद्र शासित प्रदेशों और 9 राज्यों ने पुलिस बल में 33 फीसदी महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने की घोषणा की थी. लेकिन, जमीन पर यह घोषणा दिखाई नहीं दी. महिला पुलिस अफसरों के हवाले से लेखक बताती हैं कि महिलाओं के खिलाफ अपराध को पुरुषों की मदद के बगैर खत्म नहीं किया जा सकता. महिलाओं के लिए केस दर्ज कराना आसान बनाए जाने की जरूरत है. पुलिस बल में जितनी ज्यादा महिलाएं होंगी उतना ही ज्यादा लैंगिक भेदभाव दूर हो सकेगा.
अमेरिका में वैक्सीन को लेकर हिचक से बिगड़ रहे हैं हालात
द न्यूयॉर्क टाइम्स में अलेक्जेंडर स्टॉकटॉन और लकी किंग ने लिखते हैं कि अमेरिका में वैक्सीन की आजादी के नाम पर लोग मर रहे हैं. अमेरिका में नये सिरे से कोविड संक्रमण के आंकड़े तेजी से बढ़ रहे हैं और इसकी वजह है वैक्सीन को लेकर हिचक और वैक्सीन लगाने से लोगों का इनकार करना. लेखक ने स्थिति का जायजा लेने के लिए अर्क, ओजार्क्स जैसे इलाकों का दौरा किया जहां कोविड के मामले बढ़ रहे हैं. उन्होंने पाया कि लोगों में वैक्सीन को लेकर गलत विश्वास ही इसकी जड़ में हैं.
वैक्सीन लेने से लोग डरते हैं, इससे बचना चाहते हैं और वैक्सीन नहीं लेने की आजा,दी है इस राह में बाधा हैं. लेखक को आश्चर्य तब हुआ जब उन्होने पाया कि एक क्षेत्रीय अस्पताल में आधे स्टाफ ने भी वैक्सीन नहीं ली थी. यहां आईसीयू भी कोविड मरीजों से भरे मिले. वे लोग जीवन बचाने का संघर्ष कर रहे थे. आजादी और लोकस्वास्थ्य का संघर्ष माउंटेन होम मे देखने को मिला. स्टॉकटोन का सुझाव है कि जब तक सरकार अमेरिकियों को बचाने की जिम्मेदारी नहीं लेती यह लड़ाई खत्म होने वाली नहीं है.
अतीत से जोड़ता है भाला फेंक में ओलंपिक मेडल
गोपाल कृष्ण गांधी द टेलीग्राफ में लिखते हैं कि टोक्यो ओलंपिक्स में नीरज चोपड़ा का भाला फेंक में सोना जीतना यादगार मौका बन गया. सभी भारतीय मेडल का इंतज़ार कर रहे थे और चोपड़ा ने बेशकीमती स्वर्ण हमारी झोली में डाल दिया. हॉकी ने कांस्य दिलाया. नीरज चोपड़ा में यह कौशल, यह जज्बा कहां से आया? विरासत से या कोई जीनेटिक प्रभाव था या फिर यह सबकुछ उसके डीएनए में था? टोक्यो ओलंपिक में एक इच्छाशक्ति देखने को मिली. नीरज हरियाणा-पंजाब क्षेत्र से गांव की पृष्ठभूमि से आते हैं जो नदियों के किनारे बसे हैं. नीरज गांव में पले-बढ़े, वहीं पढ़ाई की और गावों में ही खेले. फुटबॉल, हॉकी, क्रिकेट जैसे खेलों को छोड़कर उन्होंने भाला को चुना, यह अनोखी बात है.
गोपाल कृष्ण गांधी बताते हैं कि नीरज चोपड़ा ने क्रिकेट की पांच गेंदों के भार को 100 किमी प्रति घंटे की तरफ्तार से क्रिकेट की पिच से चार गुणा दूर भाला फेंकते हैं. भाला का वजन 800 ग्राम होता है, जबकि क्रिकेट की गेंद का 163 ग्राम. क्रिकेट पिच की लंबाई 20.12 मीटर होती है. नीरज ने फाइनल में 87.58 मीटर दूर भाला फेंका. प्राचीन काल के तीर-धनुष की तरह भाला फेंकना भी पांच हजार साल पुरानी सिंधु घाटी की सभ्यता के इतिहास में दिखता है.
हरियाणा सिंधु घाटी सभ्यता के प्राचीन अवशेष स्थल राखीगढ़ी में पड़ता है. लेखक नयनजोत लाहिड़ी से अपनी बातचीत के आधार पर बताते हैं कि तांबे से बने कई तरह के हथियारनुमा चीजें दोआब और अन्य जगहों पर खुदाई से मिली हैं. हिसार, महेंद्रगढ़ और अंबाला में भी ऐसी वस्तुएं मिली हैं. काला तीतर, काला हिरण के लिए भी हरियाणा, राजस्थान को इन दिनों जाना जाता है जहां इनके शिकार पर प्रतिबंध है. नीरज चोपड़ा हमें हमारे इतिहास, सांस्कृतिक पर्यावरण की ओर ध्यान दिलाता है. एथलेटिक्स, दौड़, तैराकी, घुड़सवारी और भाला फेंक भारत का स्वाभाविक खेल रहा है. लेखक का विश्वास है कि ओलंपिक में नीरज का मेडल मील का पत्थर है.
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