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संडे व्यू: ‘नये भारत’ में आदतें क्यों पुरानी? युवाओं के लिए अग्निपरीक्षा का समय

पढ़ें देश के जाने-मानें विचारकों तवलीन सिंह, पी चिदंबरम, महेश व्यास, हिलाल अहमद और शोभा डे के विचारों का सार.

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भारत
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मोदी के नये भारत में आदतें पुरानी क्यों?

तवलीन सिंह द इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि प्रधानमंत्री हर मौके पर याद दिलाते हैं कि न्यू इंडिया में सुधारों की रफ्तार इतनी तेज है कि भारत कुछ ही सालों में विश्वगुरु बनने वाला है. उनकी नकल करते भारतीय जनता पार्टी का हर दूसरा नेता भी ऐसा ही कहता है. रेडियो पर ‘सेवा, सुशासन, गरीब कल्याण’ अक्सर कानों में गूंजता है. यह बात समझ में नहीं आती कि नये भारत में क्यों उस पुराने भारत की सबसे गंदी राजनीतिक आदतें अब भी देखने को मिलती हैं.

महाराष्ट्र सरकार को एक बार फिर गिराने की कोशिशें हुईं. यह भी नहीं सोचा गया कि इतने बड़े राज्य में अस्थिरता फैलाने से आम आदमी की मुश्किलें कितनी बढ़ जाएंगी. कोविड से हुए नुकसान को अभी महाराष्ट्र के लोग झेल ही रहे हैं.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि कोई यह विश्वास करने को तैयार नहीं हो सकता कि बागी विधायकों को सूरत ले जाने में बीजेपी का हाथ नहीं था और न ही इन बागियों को सूरत से गुवाहाटी ले जाने में उनकी कोई भूमिका थी.

तवलीन सिंह याद दिलाती हैं कि किस तरह जम्मू-कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला की सरकार को गिराकर ऐसी कठपुतली सरकार इंदिरा गांधी ने बना दी थी, जिसमें आए दिन कर्फ्यू लगा करता था. कश्मीर के लोगों को यह संदेश दे दिया गया था कि वे लोकतंत्र में जी नहीं सकते. नतीजा यह है कि आज तक वह स्थिर नहीं हो सका है.

महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस कभी भूल ही नहीं पाए कि उनकी कुर्सी चली गयी है. आए दिन वह उद्धव ठाकरे की सरकार को गिराने का प्रयास करते रहे हैं. मध्यप्रदेश में सरकार गिरायी गयी, राजस्थान में कोशिशें चलती रही हैं. बड़ा सवाल यही है कि मोदी के राज में राजनीतिक सभ्यता की जगह होनी चाहिए या नहीं.

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सोच विचार कर दोबारा लायी जाए अग्निपथ योजना

द इंडियन एक्सप्रेस में पी चिदंबरम लिखते हैं कि दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका में दीवारों पर एक मशहूर इश्तिहार लगाया गया था. उसमें कहा गया था, ‘मैं चाहता हूं आप अमेरिकी सेना में आएं’. भारत सरकार भी ऐसा कर सकती थी. हो सकता है कि एक पंक्ति जोड़ने की जरूरत पड़ जाती कि ‘दर्जी, धोबी या नाई बनने के लिए’. अग्निपथ योजना में 48 महीने पूरे होने पर एक चौथाई जवानों को 11 से तेरह 13 साल और नौकरी करने के लिए रख लिया जाएगा और बाकी को नौकरी पूरी होने पर मिलने वाले 11 लाख 67 हजार रुपये पकड़ा कर मुक्त कर दिया जाएगा. नौकरी की कोई गारंटी नहीं होगी, कोई पेंशन नहीं मिलेगी, कोई ग्रैच्युटी नहीं और कोई चिकित्सा सुविधा या अन्य लाभ नहीं मिलेगा.

महामारी की वजह से रद्द होती रही सैनिकों की भर्ती से निराश नौजवानों ने स्वाभाविक रूप से विरोध किया. इनमें वे नौजवान ज्यादा रहे जिनकी उम्र निकल गयी है. यह भर्ती योजना ऐसे समय में लायी गयी है जब सीमा पर हालात बेहद जोखिम भरे हुए हैं. चीन की तरफ से हमलों और पाकिस्तानी घुसपैठ का कोई अंत नहीं है. दूसरी बात यह है कि अग्निवीरों का प्रशिक्षण बेहद कमजोर किस्म का रहने वाला है और उन्हें अग्रिम मोर्चे पर तैनात नहीं किया जा सकता.

लेखक ने एडमिरल अरुण प्रकाश के हवाले से लिखा है कि अग्निवीरों का प्रशिक्षण इतने कम समय में नहीं हो सकता. आर्टिलरी के महानिदेशक पद से सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल पीआर शंकर ने भी लिखा है कि अग्निवीर इतने कम समय में हथियार संचालित कर पाने में सक्षम नहीं हो पाएंगे.

लेखक ने अधिकारियों की ओर से इस बात की ओर भी ध्यान दिलाने की कोशिश की है कि सैनिकों को अपनी यूनिट में गर्व के साथ रहना चाहिए कि भविष्य के अनिश्चिय के बीच. भारत में रेजिमेंट प्रणाली प्राचीन होने के बावजूद देश और साथियों के लिए जान देने को तैयार करने वाली है. लेखक बताते हैं कि गुणवत्ता, दक्षता और प्रभावशीलता की अनदेखी के नतीजे देश की अर्थव्यवस्था पर भी भारी पड़ेंगे.

अग्निपथ योजना सेना को भी ठेके पर ले आएगी. बेहद खराब तरीके से बनायी गयी अग्निपथ योजना वापस ली जानी चाहिए और सरकार को इस पर फिर से काम करना चाहिए.
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युवाओं के लिए अग्निपरीक्षा का समय

महेश व्यास बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि जून के दूसरे हफ्ते में एक साथ दो भर्तियों का ऐलान हुआ. एक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डेढ़ साल में 10 लाख भर्तियों की घोषणा की. दूसरा ऐलान रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने अग्निपथ योजना के रूप में किया. छोटी भर्ती योजना होने के बावजूद इसकी चर्चा प्रधानमंत्री की भर्ती योजना से कहीं ज्यादा हुई.

2019-20 में 28 लाख नए रोजगार दिए गये थे. कोविड काल के बाद 10 लाख नए रोजगार की घोषणा वाकई बड़ी घोषणा थी. अग्निपथ योजना के तहत आरंभ में 46 हजार लोगों की नियुक्ति देने का वादा है. बाद में इसकी संख्या बढ़ती जाएगी. इस योजना के तहत केवल चार साल की नियुक्ति प्रदान की जाएगी. इन्हें न तो मेडिकल बीमा मिलेगा और न ही कोई पेंशन. वहीं एक चौथाई अग्निवीरों को सभी नियमित लाभ आम सैनिकों की तरह मिलेंगे.

महेश व्यास लिखते हैं कि अग्निपथ योजना का विरोध बिहार और यूपी में पहले हुआ. बाद में उत्तर भारत और फिर कई अन्य राज्यों में फैल गया. इन युवाओं ने बेरोजगारी पर कभी विरोध नहीं जताया. भर्ती के तरीकों को लेकर जिस तरह पहले रेलवे के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था, इस बार अग्निपथ को लेकर किया.

2019 तक 15 से 19 की आयु के 4 प्रतिशत लोगों के पास रोजगार था. 2017 में इसी आयु के करीब 7 फीसदी लोगों के पास रोजगार था. 2020 में यह घटकर 2 फीसदी रह गया है. इसी आयु समूह में बेरोजगारी की दर 2017 के 23 प्रतिशत से बढ़कर 2020 में 50 फीसदी से अधिक हो गयी है. हर दूसरा युवा इस आयु वर्ग में बेरोजगार है. 20-24 के आयुवर्ग में श्रम भागीदारी दर 33.5 प्रतिशत है. बेरोजगारी दर भी 41 प्रतिशत है. रोजगार दर 20 प्रतिशत है. ऐसे में सरकार को धैर्य पूर्वक विश्वसनीय योजना बनाने पर विचार करना होगा.

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मुस्लिम प्रतिनिधित्व के बदलते प्रतिमान

हिलाल अहमद द टेलीग्राफ में लिखते हैं कि बीजेपी का यह नया स्वभाव देखने को मिल रहा है कि वह राज्यसभा में मुस्लिम सांसदों को नहीं भेजने पर अड़ गयी है. अब तक प्रचलित यह था कि बीजेपी लोकसभा और विधानसभाओं में मुसलमानों को टिकट नहीं देना चाहती. इसे जीतने ‘योग्य उम्मीदवार’ की कसौटी पर कसा जाता था. लेकिन, राज्यसभा में कसौटी अलग हुआ करती थी. सिकंदर बख्त से मुख्तार अब्बास नकवी तक ने उच्च सदन का प्रतिनिधित्व किया. संसद में मुसलमानों को भेजने का यह सुरक्षित रास्ता हुआ करता था. वर्तमान सरकार की नीति सबका साथ, सबका विकास की रही है. इस वजह से बीजेपी के बदले हुए रुख को लेकर और भी आश्चर्य होता है.

मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को मापने का तयशुदा तरीका रहा है. कहा जाता रहा है कि मुसलमानों की आबादी और सदन में उनकी मौजूदगी के बीच आंतरिक संबंध रहा है. अगर ऐसा है, तो मुसलमानों की 15 फीसदी आबादी में सांसदों-विधायकों की संख्या से भाग दे दें. हमें मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का सही आंकड़ा मिल जाएगा.

टीएमसी की नेता महुआ मोइत्रा ने अपने एक लेख में ठीक यही सवाल उठाया है. उन्होंने लिखा है कि 15 फीसदी मुस्लिम आबादी के हिसाब से सदन में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व देखने को नहीं मिलता है. तर्क दिया जाता है कि भारतीय संविधान धर्म आधारित राजनीतिक प्रतिनिधित्व की इजाजत नहीं देता है. लिहाजा सबका साथ... जैसा नारा मुसलमानों की आकांक्षाओं को साथ लेकर चलने में सफल है.

संविधान में वंचित तबके लिए खास व्यवस्था की गयी है. इनमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति समहों के अलावा ङबाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यक भी शामिल हैं. लेखक सुझाते हैं कि मुसलमानों को राजनीतिक रूप से हिस्सेदार समुदाय के रूप में सामने आना होगा. सांस्कृतिक रूप से बंटे समुदायों को मुसलमान के रूप में एकजुट होना होगा. बीजेपी को ऐसे मुस्लिम नेताओं की जरूरत है जिनका मुसलमानों में प्रभाव हो. तारिक फतेह या सैय्यद रिजवान अहमद जैसे मुसलमानों की उन्हें जरूरत है, जिनके जरिए हिंदुत्व निर्वाचन क्षेत्रों को साधा जा सके. उन्हें मुसलमानों के बौद्धिक वर्ग का समर्थन चाहिए.

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केवल जुबानी सेवा देने वाले न हों राष्ट्रपति

शोभा डे द एशियन ऐज में लिखती हैं कि महात्मा गांधी के परपोते 77 वर्षीय पूर्व राजनयिक व पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी ने राष्ट्रपति चुनाव का उम्मीदवार बनने से विनमर्ता पूर्वक मना कर दिया. इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं. ऐसे सम्मान को ठुकराने का नैतिक साहस कितनों में है? अतीत में हमारे राष्ट्रपति भी राजनीति के दलदल में घुसते थे, ताकि उनका नाम आगे बढ़ सके, लेकिन बीते 20 साल में कई नाम ऐसे हैं, जो इस गौरवपूर्ण पद के लिए धूर्ततापूर्वक तय किए गये हैं. रबर स्टांप के तौर पर ऐसे नाम सामने आए हैं.

शोभा डे लिखती हैं कि हम जानते हैं कि प्रणब मुखर्जी किस परिस्थिति में भारत के राष्ट्रपति बने. डॉ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री चुन लिए जाने के बाद प्रणब दा ने इस पद के लिए खुद को तैयार किया और आखिरकार इस पद को हासिल कर लिया. प्रणब दा के रहते जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो नागरिकता कानून और प्रस्तावित एनसीआर कानून पर उनकी टिप्पणी देखते ही बनती थी.

अब जबकि नए राष्ट्रपति की खोज हो रही है तो इस वक्त देश में अग्निपथ योजना का विरोध चल रहा है. बीजेपी इस वक्त महिला और आदिवासी दोनों कार्ड खेलने में जुटी है. राष्ट्रीय संकट के वक्त देश को ऐसे राष्ट्रपति की जरूरत होती है जो साफ सुथरे तरीके से पेश हों और केवल जुबानी सेवा देने से परहेज करें.

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