(द क्विंट ने अयोध्या में 6 दिसंबर, 1992 को गिराए गए विवादित ढांचे को लेकर पिछले साल एक खोजपूर्ण और तथ्यात्मक डॉक्यूमेंट्री सीरीज पेश की थी. इसे कुल 7 किस्तों में प्रकाशित किया गया था. अयोध्या कांड की बरसी पर इसके सातवें भाग को फिर से पेश किया जा रहा है. शुरुआत के 6 किस्त आप इस स्टोरी के अंत में दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं.)
1991 बीजेपी के लिए शानदार साल था. पार्टी तीसरे आम चुनाव में उतरी थी, और संसद में 119 सीटों पर कब्जा जमा चुकी थी. कांग्रेस ने भले ही पीवी नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाकर सरकार बना ली थी लेकिन बीजेपी जोरशोर से देशभर में अपनी पकड़ बना रही थी.
उसी साल बीजेपी राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में सत्ता में आ गई.
पार्टी ने अपनी जीत का श्रेय ‘राम राज्य’ के सपने को दिया और ये मान लिया की उन्हें जनमत अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए मिला है.
10 जुलाई, 1990 में कल्याण सिंह की अध्यक्षता में उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग ने अयोध्या में विवादित स्थल के ठीक सामने 2.77 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया. पर्यटन विभाग की दलील थी कि इस जमीन को ‘अयोध्या आने वाले पर्यटकों को आकर्षित करने और पर्यटन के बढ़ावे’ के लिए इस्तेमाल किया जाएगा.
यही जमीन राम जन्मभूमि न्यास को महज 1 रुपए के किराए पर मंदिर निर्माण के लिए दे दी गई.
पहले जमीन अधिग्रहण और अस्थाई निर्माण का आदेश दे चुकी हाईकोर्ट ने इस घटना पर कल्याण सिंह सरकार को फटकार लगाई. दरअसल सितंबर-अक्टूबर 1991 में विवादित जमीन पर मौजूद मंदिरों में स्थाई बदलाव कर दिए गए थे.
बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित तीन सदस्यीय कमीशन ने पाया कि विवादित स्थल के अंदर की इमारतों में पक्के निर्माण किए गए थे. कमीशन ने इस अधिग्रहण को ‘असंगत और एक साजिश’ करार दिया.
उल्टी गिनती शुरू
जून 1992 में राम जन्मभूमि न्यास ने राज्य सरकार से गुजारिश की कि उन्हें 9 जुलाई को चतुरमास मनाने और कार सेवा करने की इजाजत दी जाए.
स्वामी सत्यानंदी, महंत नृत्य गोपाल दास, परमहंस रामचंद्र दास और महंत अवैद्यानाथ कार सेवा की अगुवाई कर रहे थे और इन्होंने ही साधु, संतों, भक्तों और कारसेवकों को देशभर से अयोध्या लाने का बीड़ा उठाया था.
जुलाई के पहले हफ्ते से ही चतुरमास और यूपी सरकार द्वारा अधिग्रहित 2.77 एकड़ जमीन पर एक चबूतरे के निर्माण को लेकर लाखों लोगों का अयोध्या आना शुरू हो गया. याद रहे कि यूपी सरकार ने जिस जमीन का अधिग्रहण किया था वो विवादित स्थल के ठीक बगल में था.
हाईकोर्ट के बैन के बावजूद चबूतरे का निर्माण किया जाना था. सुरक्षाकर्मी कार सेवकों को रोकने में नाकाम थे क्योंकि कल्याण सिंह सरकार की तरफ से बल प्रयोग न करने के कड़े निर्देश जारी किए थे. गेंद अब प्रधानमंत्री जी के पाले में था.
21 जुलाई, 1992 को पीवी नरसिम्हा राव ने आरएसएस और वीएचपी से साधुओं द्वारा किए जा रहे निर्माण को रुकवाने को कहा, लेकिन किसी ने केंद्र सरकार की नहीं सुनी और आखिरकार नरसिम्हा सरकार को सीधे धार्मिक गुरुओं को बातचीत के लिए बुलाना पड़ा.
23 जुलाई 1992 को धार्मिक गुरु हवाई जहाज से दिल्ली प्रधानमंत्री से मिलने पहुंचे. आम सहमति बनी कि साधु तीन महीने तक निर्माण कार्य रोक देंगे और इसी बीच नरसिम्हा सरकार समस्या का समाधान निकालेगी. समयसीमा बगैर किसी नतीजे के खत्म हो गई.
29-30 अक्टूबर 1992 को वीएचपी ने धर्म संसद का आह्वान किया और फैसला लिया गया कि कार सेवा फिर से 6 दिसंबर 1992 को शुरू की जाएगी.
विध्वंस का दिन
6 दिसंबर, 1992 तक तकरीबन 2 लाख कार सेवक महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक और यूपी से अयोध्या पहुंच चुके थे. इस दिन से पहले तक बजरंग दल, वीएचपी या आरएसएस ने इतने बड़े पैमाने पर शक्ति प्रदर्शन नहीं किया था.
सुबह 6 बजे: पत्रकारों और कार सेवकों का काफिला विवादित ढांचे पर पहुंचा, आरएसएस कैडर के लोग हाथ में पट्टा बांधे वहां मौजूद थे, उन्होंने उस जगह को खाली करा लिया जहां चबूतरे पर कार सेवा किया जाना था. और ये सब कोर्ट के आदेश के खिलाफ किया जा रहा था. प्लान था कि कार सेवक सरयू नदी से पानी और बालू लाकर चबूतरे को साफ करेंगे और फिर वहीं पूजा- अर्चना की जाएगी.
सुबह 10 बजे: बीजेपी नेता आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जो अपनी- अपनी रथ यात्रा यूपी में खत्म कर अयोध्या पहुंचे थे, उस जगह को देखने आते हैं जहां कार सेवा की व्यवस्था की गई थी.
सुबह 10:30 बजे: बीजेपी, आरएसएस, वीएचपी और बजरंग दल के वरिष्ठ नेता 200 मीटर दूर राम कथा कुंज की छत पर बने मंच पर चले गए.
सुबह 11 बजे: सफाई का काम शुरू हुआ और साधुओं ने भजन गाना शुरू कर दिया. कुछ ही मिनटों में रातभर में बनी लकड़ी की घेराबंदी को पीला पट्टा सिर में बांधे कारसेवक तोड़ चुके थे. आरएसएस कार्यकर्ता उग्र कारसेवकों को कारसेवा वाली जगह के बाहर ही रोकने की कोशिश में लग जाते हैं. तभी एक सीटी की आवाज सुनाई देती है और कारसेवक विवादित स्थल की ओर बढ़ने लगते हैं और यहां- “मंदिर यहीं बनाएंगे” नारा गूंज रहा था.
सुबह 11:15 बजे: मस्जिद की ओर बड़ी तादाद में कारसेवक बढ़ रहे थे, पीएसी के जवानों और आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने उन्हें रोकने की कोशिश की लेकिन उन्हें पीछे हटना पड़ा क्योंकि भीड़ ने उन पर पत्थरबाजी शुरू कर दी थी.
सुबह 11:30 बजे: एक नौजवान स्टील की रेलिंग पर चढ़कर मस्जिद के किनारे लगे तारों को फांद जाता है. चंद मिनटों बाद ही वो बाबरी मस्जिद के एक छोटे गुम्बद के उपर नजर आता है. कार सेवक और उग्र हो जाते हैं और हथियारबंद पुलिस को भी कवर लेने के लिए भागना पड़ता है. सैकड़ों कार सेवक विवादित बाबरी मस्जिद की ओर रस्सी, हथौड़े, कुल्हाड़ी और भाला लेकर तेजी से बढ़ जाते हैं.
सुबह 11:45 बजे: फिर एक बार जोर की सीटी बजती है और गुलाबी पट्टा पहने पत्रकारों पर हमला शुरू हो जाता है. ये पट्टा एक दिन पहले ही विश्व हिंदू परिषद के संयोजकों ने पत्रकारों को दिया था. कैमरे तोड़ दिए जाते हैं, कलम, नोटबुक सब छीन लिया जाता है. जो भी विरोध जताता है उसके साथ मारपीट की जाती है.
दोपहर 12 बजे: जब हालात बेकाबू हो गए तो पारामिलिट्री फोर्स ने मस्जिद से रामलला की मूर्तियां बाहर निकाल लीं. मस्जिद के तीनों गुम्बद पर उग्र कार सेवकों का जत्था टूट पड़ा था जिनपर उसे ध्वस्त करने का जुनून तैयार था.
दोपहर 12:30 बजे: आडवाणी जैसे बड़े नेताओं ने कारसेवकों को रोकने की छोटी-मोटी कोशिश की, लेकिन उनकी बातों का कारसेवकों पर कोई असर नहीं दिखा.
दोपहर 2 बजे: पहला गुम्बद ध्वस्त कर दिया गया. तकरीबन 25 कारसेवक मलबे के नीचे दब गए. उन्हें फौरन निकाला गया और अस्पताल ले जाया गया.
दोपहर 3:30 बजे: दूसरा गुम्बद ध्वस्त किया गया.
शाम 5 बजे: आखिरी और सबसे अहम गुम्बद तेज आवाज के साथ ढह गया. दूर से धुएं के गुबार नजर आ रहे थे जो अयोध्या में मुस्लिमों के घर जलाने के बाद उठे थे. बाबरी विध्वंस के बाद कारसेवकों ने उपद्रव शुरू कर दिया था.
शाम 6 बजे: एक टैंक में पानी भरा जाता है. कारसेवक सीमेंट मिलाना शुरू कर देते हैं और बाबरी मस्जिद के अंदर मौजूद राम मंदिर तक एक सीढ़ी बनाई जाती है. टेंट लगाया जाता है और रामलला की मूर्तियों को वापस रखा जाता है.
बाबरी मस्जिद विध्वंस का परिणाम
मस्जिद ढह गई लेकिन विवाद जस का तस है. केंद्र सरकार ने इस घटना की जांच के लिए लिब्राहन आयोग का गठन किया और तीन महीने में रिपोर्ट देने को कहा. लेकिन सिर्फ एक आदमी वाला लिब्राहन आयोग 17 साल बाद अपनी रिपोर्ट 30 जून 1990 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंप सका.
रिपोर्ट में 68 लोगों को आरोपी बनाया गया जिसमें लाल कृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भी थे.
एक साल बाद 1 अक्टूबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस 60 साल पुराने केस में अपना फैसला सुनाया. तीन जजों की बेंच- जिसमें जस्टिस एसयू खान, जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस डीवी शर्मा थे ने विवादित जमीन को अपने फैसले में तीन हिस्सों में बांट दिया.
एक-तिहाई हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया गया, एक तिहाई निर्मोही अखाड़ा को और बाकी का एक तिहाई ‘राम लला’ को. तमाम हिंदू संगठन जैसे कि निर्मोही अखाड़ा, अखिल भारत हिंदू महासभा, जमात उलामा-ए-हिंद और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गए.
मई 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ विवादित 2.77 एकड़ बल्कि समूचे 67 एकड़ एरिया पर स्टे ऑर्डर लगा दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा ये विचित्र और हैरान कर देने वाला है. किसी ने उस क्षेत्र के विभाजन की याचिका नहीं दर्ज की है. इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले ने ऐसी राहत दी है जिसकी अपील किसी ने नहीं की थी.
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