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Bhagwati Charan Verma: हिंदी में फेल होने वाले कैसे बने हिंदी के नामी साहित्यकार

साहित्य की पहली शर्त है आदमी और आदमियत के साथ खड़ा होना भगवती चरण वर्मा ने इसका बखूबी पालन किया है.

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उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के उन्नाव (Unnao) जिले के शफीपुर कस्बे में भगवती चरण वर्मा (Bhagwati Charan Verma) का जन्म आज ही के दिन 1903 ईस्वी में हुआ था. हिंदी साहित्य में बड़ा नाम रखने वाले भगवती चरण वर्मा सातवें दर्जे में हिंदी विषय में ही फेल हो गए थे. चौक गए न ! पर इनके हिंदी वाले माटसाहब ने इनके हाथों में हिंदी साहित्य की तत्कालीन पत्रिकाएं पकड़ा दी और परिणाम रहा कि साहित्य में इनकी रुचि जग गई.

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कौन जानता था कि सातवीं कक्षा में हिंदी में फेल होने वाला लड़का बड़ा होकर 1972 में उत्तर प्रदेश सरकार की हिंदी समिति का अध्यक्ष बनेगा. पर भगवती बाबू ऐसे ही थे. उनका पूरा जीवन धारावाहिक जैसा है, हर एपीसोड में नवीनता लिए, नए रंग भरे ,नए कलेवर के साथ और पुराने को भुलाने पर आमादा. हम पाठकों में से भी बहुत लोगों ने अपने बालपन में मां पर और किशोरावस्था में प्रेम की कविताएं लिखी होंगी.

भगवती बाबू ने भी आठवीं क्लास में अपनी पहली कविता लिखी जो तत्कालीन पत्रिका प्रताप जिस के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी थे. में छपी. प्रसिद्ध उपन्यासकार अमृतलाल नागर जी के शब्दों में , “नवे दर्जे तक आते-आते वर्मा जी सोलह आने साहित्यिक हो गए थे.”

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी ए एलएलबी की पढ़ाई के बाद वकालत करने भगवती बाबू कानपुर गए तब तक अपनी कविताओं से हिंदी साहित्य में अपनी छाप छोड़ चुके थे. कवि सम्मेलनों में जाने लगे. उनका प्रसिद्ध गीत दीवानों की हस्ती इतना प्रसिद्ध हुआ कि राजा फिल्म (1943 ई.) में किशोर साहू द्वारा गाया गया.

हम दीवानों की क्या हस्ती

है आज यहां कल वहां चले

मस्ती का आलम साथ चला

हम धूल उड़ाते जहां चले.

हिंदी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका माध्यम के प्रथम संपादक बालकृष्ण राव इन के बारे में लिखते हैं," उनकी आत्मा का सहज स्वर कविता का है ,उनका व्यक्तित्व शायराना ,अल्हड़पन रंगीनी और मस्ती का सुधरा संवारा हुआ रूप है. वे किसी वाद विशेष की परिधि में बहुत दिनों तक गिरफ्तार नहीं रहे. यों एक- एक करके प्रायः प्रत्येक वाद को उन्होंने टटोला है, देखा है, समझने -अपनाने की चेष्टा की है पर उनकी सहज स्वातंत्र्यप्रियता, रूमानी बेचैनी ,अल्हड़पन और मस्ती हर बार उन्हें वादों की दीवारें तोड़कर बाहर निकल जाने के लिए प्रेरणा देती रही और प्रेरणा के साथ-साथ उसे कार्यान्वित करने की क्षमता और शक्ति भी.

वे स्वयं लिखते हैं -

'किस ओर चले यह मत पूछो

चलना है बस इसलिए चले

जग से उसका कुछ लिए चले

जग को अपना कुछ दिए चले'

छायावाद और प्रगतिवाद के मुहाने पर खड़े भगवती बाबू की कविताओं का स्वर न तो दार्शनिक है और न ही मार्क्सवादी. साहित्य की पहली शर्त है आदमी और आदमियत के साथ खड़ा होना. इसका उन्होंने बखूबी पालन किया है. उनकी चर्चित कविता भैंसागाड़ी की पंक्तियां देखिए -

उस ओर क्षितिज के कुछ आगे,

उस ओर क्षितिज के कुछ आगे,

कुल पाँच कोस की दूरी पर,

भू की छाती पर फोड़ों-से हैं,

उठे हुए कुछ कच्चे घर !

मैं कहता हूँ खण्डहर उसको,

पर वे कहते हैं उसे ग्राम ,

पशु बनकर नर पिस रहे जहाँ,

नारियाँ जन रहीं हैं ग़ुलाम,

पैदा होना फिर मर जाना,

बस, यह लोगों का एक काम !

बहुमुखी प्रतिभा के धनी भगवती बाबू ने कविताओं के अलावा कहानी, उपन्यास नाटक, रेडियो-रूपक आदि साहित्यिक विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है. इतना तो तय है कि अपने उपन्यासों से इन्होंने शोहरत पाई. इनका पहला उपन्यास ‘पतन' था.

तीन वर्ष ,टेढ़े-मेढ़े रास्ते,आखिरी दांव,अपने खिलौने, भूले बिसरे चित्र, वह फिर नहीं आई ,सामर्थ्य और सीमा, थके पांव, रेखा ,सीधी सच्ची बातें, सबहिं नचावत राम गोसाईं ,प्रश्न और मरीचिका, युवराज चूंडा तथा धुप्पल एवं चाणक्य (मरणोपरांत) अन्य उपन्यास हैं.

पहला उपन्यास 1928 में और धुप्पल 1981 में, कहने का मतलब 50 वर्ष से अधिक समय का लेखन भगवती बाबू ने किया. इतने लंबे समय तक का लेखन इन्हें युगों से परे खड़ा करता है. इतने बड़े कालखंड की समस्याओं, संदर्भों प्रश्नों, घटनाओं को भगवती बाबू ने अपने उपन्यासों में विस्तृत रूप से चित्रित किया है.

इनके लेखन की सबसे खास बात यह है कि ये ज्ञान नहीं देते हैं. न तो उपदेशक और न ही दार्शनिक. लोक को ध्यान में रखते हुए इन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों में किस्सागोई का बखूबी प्रयोग किया है. आलोचक कहते हैं कि उनका व्यावसायिक दृष्टिकोण उनकी रचनात्मकता को कमजोर करता है ; वह कथा में सस्ती रोचकता पैदा करते हैं.

ऐसे आलोचकों को करारा जवाब देते हुए भगवती बाबू लिखते हैं,

कला में मनोरंजन प्रधान हैं इसे स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है. और यहां एक प्रश्न मेरे अंदर उठता है- मैं मनोरंजन को निकृष्ट एवं अनापेक्षित क्यों समझ लूं ?
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जिस उपन्यास ने उन्हें जबरदस्त पापुलर किया उसका नाम चित्रलेखा है. चित्रलेखा 1934 में प्रकाशित हुई. प्रसिद्धि का आलम यह था कि जब भगवती बाबू ने लखनऊ में घर बनाने का फैसला किया तो अपने बनाए घर का नाम चित्रलेखा ही रखा और दिलचस्प बात यह है कि उनके प्रशंसक उनको चिट्ठी लिखते थे. पता होता था - भगवती चरण वर्मा ‘चित्रलेखा के लेखक' और चिट्ठी सचमुच सही जगह पहुंच जाती थी.

अपने जमाने में सबसे ज्यादा रॉयल्टी पाने वालों में से एक भगवती बाबू का यह उपन्यास भी उतना ही मशहूर हुआ जितना कि धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता. चित्रलेखा की कहानी पर दो फिल्में भी बनी पहली 1941 में और दूसरी 1963 में , दोनों बार फिल्म के निर्देशक थे केदार शर्मा.

पाप और पुण्य को आधार मानकर लिखे गए इस उपन्यास के विषय में धर्मयुग के संपादक डॉ धर्मवीर भारती के विचार बहुत महत्वपूर्ण है- ‘सच पूछिए तो चित्रलेखा की सारी ऐतिहासिक परिवेश की कल्पना परीलोक की कल्पना जैसी है जहां राजा है, महल है ,नर्तकी है, दरबार है ,जाम है, केवल सुविधा के लिए एक ऐतिहासिक काल की कल्पना है, वरना यह सारी कथा कालातीत है, केवल मानव मन में घटित होती है पाप और पुण्य के बुनियादी प्रश्न की भित्ति पर. सच तो यह है चित्रलेखा अइतिहास है.‘

निश्चित रूप से चित्रलेखा पाप और पुण्य को स्वरूप को स्पष्ट करते हुए बतलाती है कि पाप और पुण्य की अपनी सामाजिक मान्यताएं रहती हैं जो समय के हिसाब से बदलती रहती है. समय और परिस्थितियां हमारे चरित्र को बदलती रहती हैं.

भूले बिसरे चित्र के उपन्यास की कहानी लगभग 50 साल तक फैली हुई है. सन 1885 से 1930 ई. तक के वर्ष. भूले बिसरे चित्र भारतीय समाज के पारिवारिक पीढ़ी के संबंधों की दास्तान है. इसी उपन्यास पर इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था. टेढ़े मेढ़े रास्ते को हिंदी साहित्य के प्रथम राजनीतिक उपन्यास का दर्जा मिला है.

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इन्होंने रेडियो में काम किया, पत्रिकाएं निकाली. पैसे कमाने के लिए फिल्मों की ओर रुख किया. प्रसार भारती ने 1979 ई. में अस्पताल में जाकर भगवती बाबू का इंटरव्यू लिया था, वार्ताकार थे कुबेर दत्त. बीते जमाने की बात करते हुए भगवती बाबू उस इंटरव्यू में बताते हैं कि बॉम्बे टॉकीज के मालिक ने उनकी पगार ढाई-तीन सौ रखी और बोले, यहां काम करिएगा तो आपका नाम हो जाएगा.

भगवती बाबू ने उत्तर दिया था, ‘देखिए मैं यहां पैसे कमाने आया हूं ,नाम तो मेरा हो ही जाएगा.‘ चार फिल्मों में इन्होंने अपना योगदान दिया था. पहली फिल्म थी ज्वारभाटा. दिलचस्प बात यह है कि प्रसिद्ध अभिनेता दिलीप कुमार की भी यह पहली फिल्म थी और मुहम्मद यूसुफ खान को दिलीप कुमार नाम भगवती बाबू ने ही दिया था. प्रतिमा नामक फिल्म का निर्देशन भी भगवती बाबू ने किया. अपने आत्मसम्मान के प्रति सजग रहने वाले भगवती बाबू मुंबई छोड़कर चले आए. ‘वैसे वैभव और सफलता से हमको भी मोह है

पर क्या करें हम कायल हैं धर्म और ईमान के

हमको तो चलना आता है केवल सीना तान के

दो बांके , इंस्टॉलमेंट ,राख और चिंगारी इनके कहानी संग्रह है. व्यंग्य और चुहल से भरपूर कहानियां हल्के फुल्के अंदाज में गुदगुदाती हैं. पद्म भूषण सम्मान से पुरस्कृत भगवती बाबू राज्यसभा के भी सदस्य रहे. इतना सब कुछ लिखने और करने के बाद भी भगवती बाबू कहते हैं कि जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण समर्पण का दृष्टिकोण बन गया है बहुत प्रयत्न किया लेकिन जीवन की गतिविधि को और जीवन की सार्थकता को नहीं समझ पाया अपने चारों ओर सब कुछ अनजाना सा लगता है.

5 अक्टूबर 1981 को भगवती चरण वर्मा का निधन हुआ. अपने लेखन से वह आज भी हमारे बीच मौजूद हैं. उन्होंने लिखा था - जो कुछ मिलता है उसे हंसकर स्वीकार करना चाहिए. रूदन कटुता इनसे हम जीवन के क्रम को तो नहीं बदल सकते.

और अंत में-

अब अपना और पराया क्या

आबाद रहे रुकने वाले

हम स्वयं बंधे थे और स्वयं

हम अपने बंधन तोड़ चले

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(लेखक प्रीतेश रंजन ‘राजुल’ पिछले 14 वर्षों से जवाहर नवोदय विद्यालय में हिन्दी के शिक्षक हैं. पढ़ाने के अलावा उनकी रंगमंच में गहरी रूचि है और वे कविता-व्यंग्य लेखन करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)

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