बस झांकी है SBI कार्ड्स बैड लोन का तिगुना होना
टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि एसबीआई कार्ड्स एंड पेमेंट्स के बैड लोन केवल एक तिमाही में तिगुने हो गए हैं. अगर यह दौर मॉरेटोरियम का नहीं होता तो यह बैड लोन 1.4 प्रतिशत से 7.5 फीसदी तक यानी पांच गुणा हो सकता था. क्रेडिट कार्ड लोन की हिस्सेदारी संपूर्ण लोन को देखें, तो छोटी है लेकिन यह महंगा लोन होता है और इसमें डिफॉल्ट का साधारण मतलब है कि व्यक्ति वित्तीय मुश्किल में है.
नाइनन लिखते हैं कि बीते दो सालों में सरकार के स्वामित्व वाले बैंकों ने अपना ध्यान औद्योगिक ऋण से हटाकर खुदरा और सेवा क्षेत्र में लोन की ओर बढ़ाया है. इस वजह से लोन बुक का आधा इसी क्षेत्र से है. डूबे हुए लोन 17.6 फीसदी तक बढ़ चुके है.
बैंक घोटाले भी बढ़ रहे हैं. 90 फीसदी घोटाले सरकारी बैंकों में हो रहे हैं. औद्योगिक ऋण में ठहराव है फिर भी रीटेल और सर्विस सेक्टर में लोन के मामले तेजी से बढ़े हैं. 2015-16 से कर्ज माफी के दौर से बैंकों की दिक्कतें बढ़ी हैं. कोविड-19 ने नई मुश्किलें पैदा कर दी हैं. जो कारोबार अच्छी स्थिति में हैं उन्हें राहत दी जानी चाहिए. ब्याज पर ब्याज लेने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आ जाने के बाद स्थिति यह बन रही है कि अब ब्याज सरकार देगी. ऐसा लगता है कि कम से कम एक साल तक वित्तीय कठिनाइयां कम नहीं होने जा रही हैं.
बिहार में खुला है चुनाव मैदान
हिन्दुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं बिहार में चुनाव ज्यादा जटिल हो गया है और अब यह खुला हुआ है और जीत किसी की भी हो सकती है. ऐसा कई कारणों से हुआ है. मुख्यमंत्री की घटती लोकप्रियता, वर्तमान सामाजिक समीकरण का टूटना, कोरोना महामारी के प्रभाव की अनिश्चितता, युवा नेतृत्व के उभरने की संभावना और सत्ताधारी गठबंधन के पैदा होने वाला मतभेद. कुछ भी अनुमान लगाना मुश्किल है. एक वोटर हैं जो नीतीश कुमार से नाराज हैं. उनके बारे में लोगों की राय है कि पहले कार्यकाल के बाद उन्होंने कुछ भी बेहतर नहीं किया है.
नरेंद्र मोदी लोकप्रिय बने हुए हैं. लॉकडाउन के कारण आर्थिक संकट और तमाम विपरीत खबरों के बीच सर्वे कहते हैं कि मोदी से लोग संतुष्ट हैं.
वहीं, भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यू के बीच विश्वास की कमी है. एलजेपी को जेडीयू के खिलाफ चुनाव लड़ने की छूट से यह स्थिति बनी है. दूसरी ओर राष्ट्रीय जनता दल मजबूत ताकत बनी दिख रही है. जेल में होकर भी लालू की पकड़ परिवार और पार्टी पर बनी हुई है. वहीं, तेजस्वी यादव भीड़ खींचने में कामयाब हैं. हालांकि इस भीड़ का चरित्र समझना बाकी है. आरजेडी के साथ इसका परंपरागत वोट मुस्लिम और यादव मजबूती से महागठबंधन के साथ हैं. मगर, जो बातें साफ नहीं है उनमें यह कि नीतीश कुमार से नाराजगी की पैठ कितनी गहरी है. लालू राज या फिर नीतीश राज की बुरी यादों में जनता किसे ध्यान में रखकर वोट देने वाली है इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा.
इंटरनेट के दिग्गजों को काबू में करना जरूरी
एसए अय्यर द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखते हैं कि वे इंटरनेट की दुनिया के दिग्गजों पर नियंत्रण के पक्ष में हैं. गूगल, फेसबुक, अमेजन, एप्पल और माइक्रोसॉफ्ट दर्शकों के डेटा पर नियंत्रण रखते हैं और उनकी गैर इरादतन भूमिका गलत और नफरत फैलाने में है. फिर भी अमेरिका की उस पहल पर संदेह होता है जिसमें दर्शकों और आम विज्ञापनदाताओं को नुकसान बताकर शिकंजा कसा जा रहा है. गूगल को डिजिटल विज्ञापन का 29 फीसदी मिलता है. उसके बाद फेसबुक अमेजन, नेटफ्लिक्स, टिकटॉक की हिस्सेदारी विज्ञापनों में है.
एकाधिकार को लेकर बड़ा तर्क दिया जाता है कि इससे चीजें महंगी होती हैं. लेकिन, इंटरनेट के महारथी मुफ्त में खबर, मनोरंजन और ज्ञान दे रहे हैं. इससे निजता पर हमला और नफरत वाली भाषा के बढ़ने का खतरा पैदा हो सकता है.
अर्थशास्त्री जोसेफ शूम पीटर के हवाले से लेखक कहते हैं कि लगातार इनोवेशन के रचनात्मक विनाश से स्थापित विशालकाय कंपनियां भी खत्म हो जाती हैं और नई जन्म लेती हैं. आईबीएम उदाहरण है जिसका एकाधिकर 1970 के बाद 13 साल तक रह पाया. क्या अमेजन का एकाधिकार रहेगा? इसके जवाब में लेखक अमेरिकी रीटेल कंपनी ए एंड पी का उदाहरण देते हैं जिसे वॉलमार्ट ने बाजार में गौण बनाया और अब वह भी ई-कॉमर्स के कारण चुनौतियों का सामना कर रहा है. फेसबुक भी एकाधिकारवादी है. मगर, उससे पहले सोशल नेटवर्क में 74 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले माई स्पेस को देख लें.
2007 में फोर्ब्स ने बताया था कि नोकिया के एक अरब ग्राहक हैं. आज नोकिया कहां है? कोडक, माइक्रोसॉफ्ट का इंटरनेट एक्सप्लोरर, जेरोक्स और एप्पल तक के उदाहरण ऐसे ही हैं. कहने का अर्थ यह है कि इंटरनेट के दिग्गजों को नियंत्रित किया जाना चाहिए. उनसे जुड़े टैक्स के मामलों को खत्म किया जाना चाहिए. मगर, उसकी वजह एकाधिकार नहीं हो सकता.
अमेरिका में झूठ से डर
फरहाद मंजू द टेलीग्राफ में लिखते हैं कि ऐसा लग रहा है कि जो बाइडेन के लिए मतदान अच्छे नतीजे लेकर आने वाला है, लेकिन इस बारे में कोई भी खुशफहमी नुकसान कर सकती है. ऐसा इसलिए नहीं कि मतदान का रुख या चुनावी रैलियां प्रभावित होने वाली हैं. अमेरिकियों ने डिजिटल संवाद के इस युग में संकेत दे दिया है. फिर भी वास्तविकता इन बातों से कहीं अलग है.
मंजू फरहद की मुलाकात हॉवर्ड में सेंटर ऑन मीडिया, पॉलिटिक्स एंड पब्लिक पॉलिसी के रिसर्च डायरेक्टर जॉन डोनोवान से होती है. डोनोवान उन विद्वानों में हैं जो मिस इनफॉर्मेशन और मीडिया मैनिपुलेशन पर काम करते हैं. डोनोवान की रिसर्च टीम ने धोखेबाजी, षडयंत्र, वायरल पॉलिटिकल मेमेस, परेशान करने वाले अभियान और दूसरे जहरीले ऑनलाइन अभियानों और उसके तौर-तरीकों का अध्ययन किया है. इससे पता चलता है कि आम जिंदगी में अलग किस्म का विस्फोट बीते दिनों में हुआ है.
इसी हफ्ते डोनोवान की किताब ‘द मीडिया मैनुपेलेशन केसबुक’ आई है. इससे पता चलता है कि पत्रकार, मीडिया कंपनियां, टेक कंपनियां, नीति निर्माता, कानून निर्माता अधिकारी और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े लोग झूठ से नहीं लड़ पाए.
इन घटनाओं पर खोज के बाद डोनोवान उम्मीद करती हैं कि वे आगे बेहतर कर सकते हैं. लेखिका का मानना है कि उसके काम का अध्ययन करने से पता चलता है कि कहीं हम चूक तो नहीं गए हैं. अमेरिका में चुनाव के बाद राजनीतिक हिंसा की आशंका डोनोवान को है. सबके पास हथियार हैं जो खतरनाक साबित होने वाले हैं. प्रोपेगेंडा करने वाले झूठ फैलाने के नए तरीके गढ़ लेते हैं. मीडिया इकोसिस्टम कई तरीकों से बेअसर हो जाता है. डोनोवान को महामारी के कारण लोगों के अलग-थलग पड़ने की भी चिंता है. षडयंत्र की थ्योरी भी चिंता का विषय है. गुपचुप संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार है.
लॉकडाउन की हार
सुरजीत एस भल्ला द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि कोविड-19 का विस्फोट हुए 300 दिन से ज्यादा हो चले हैं. कोविड का दूसरा हमला भी शुरू हो गया है. फिर भी लेनिन का सवाल बना हुआ है- क्या करना है? मध्य मार्च में यह सलाह दी गयी थी कि स्कूल, कारोबार ठप कर देने से वायरस का संक्रमण रुक जाएगा. 22 जनवरी को वुहान बंद हुआ, 10 जनवरी को इटली. फिर पूरी दुनिया एक के बाद एक बंद होती चली गई. मगर, लॉकडाउन बनाम कोविड 19 में कोविड-19 की जीत हुई.
भल्ला लिखते हैं कि डब्ल्यूएचओ ने 11 मार्च को कहा था कि महामारी को रोक पाने का इतिहास नहीं है. फिर भी दुनिया लॉकडाउन में गयी, यह रहस्य बना हुआ है. लॉकडाउन के बावजूद दुनिया में कोरोना के मामले कभी थमे नहीं.
दुनिया 1918 में स्पैनिश फ्लू और 1957 में और 1963 में अमेरिका में महामारी आयी थी. तब मौत का आंकड़ा आम दिनों की तुलना में 36 फीसदी और 30 फीसदी ज्यादा था. इस दौरा में अमेरिका में मौत का आंकड़ा आम दिनों से 18 फीसदी ज्यादा रहा. कोविड़ के दौर में औसतन मृत्यु दर 2.5 फीसदी रही. लेखक अपने अध्ययन के हवाले से बताते हैं कि लॉकडाउन प्रभावी साबित नहीं हुए. लॉकडाउन के कारण स्थितियां और खराब हुईं. स्वीडन ने हर्ड इम्युनिटी की सोच अपनायी, दुनिया उसी रास्ते पर आयी. महामारी को लेकर आकलन हमेशा से गलत रहे हैं. उदाहरण के लिए इंग्लैंड में बर्ड फ्लू से 3100 से 65 हजार लोगों के मरने की आशंका जतायी गयी थी लेकिन वास्तव में 457 लोगों की मौत हुई.
जेहादी सोच का मुकाबला जरूरी
तवलीन सिंह द इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि फ्रांस में एक अध्यापक हीरो बन गए. फ्रांस के राष्ट्रपति ने उनके अंतिम संस्कार से पहले उनका सम्मान किया. कहा- कि सैमुअल पाती ने स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के सिद्धांत के लिए अपनी जान गंवाई. इस बारे में स्कूलों में बच्चों को अगर सिखाया नहीं जाएगा तो उनको सुरक्षित रखना मुश्किल है. पाती की हत्या इसलिए कर दी गयी क्योंकि उन्होंने कक्षा में उस कार्टून को दिखाया जिस वजह से चार्ली एब्दो पत्रिका पर जिहादी हमला हुआ था. एक बार फिर पाती पर भी हमला हुआ और उनकी जान चली गई.
तवलीन लिखती हैं कि कभी ईसाई भी ईश निन्दा की प्रतिक्रिया में ऐसे ही हिंसक हुआ करते थे लेकिन अब उन्होंने खुद को सुधार लिया है. मुसलमानों को भी ऐसी सोच और व्यवहार में बदलाव लाना होगा. सनातन धर्म में अपना-अपना ईष्ट चुनने की आजादी है. इसलिए यहां ईश निन्दा जैसे शब्द भी नहीं हैं.
लेखिका कर्नाटक में एक नेता के बेटे की ओर से सोशल मीडिया पर कुछ लिख भर देने से दंगा हो जाता है. लेखिका बताती हैं कि मथुरा में कृष्ण भगवान का जिस कालकोठरी में जन्म हुआ था उसके ठीक ऊपर ईदगाह देखकर मन आज भी कचोटता है. काशी में विश्वनाथ मंदिर में औरंगजेब की बनायी मस्जिद भी बरकरार है. ये दोनों धर्मस्थल हिंदुओं को सौंप दिया जाना चाहिए. फिर मंदिर-मस्जिद के तमाम झगड़े समाप्त किए जाएं. तभी विकास के रास्ते पर बढ़ा जा सकता है. बिहार चुनाव का जिक्र करते हुए तवलीन सिंह लिखती हैं कि वहां बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा है. अब योगी जैसे नेता जब मंदिर-मस्जिद पर बोलते हैं तो वे भूल जाते हैं कि हिन्दुस्तान का बुनियादी उसूल क्या है.
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