ADVERTISEMENTREMOVE AD

बॉलीवुड भी नहीं समझा पाया बाबाओं का ढोंग, पाखंड और मायाजाल

जानिए- बॉलीवुड की वो फिल्में जिनकी ईमानदार कोशिश भी नहीं खोल पाई अंधभक्तों की आंखें

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
अभी दो ही साल तो हुए हैं जब पीके बिचारा पीक मार-मारके थक गया था. कितना समझाया. कैसे-कैसे समझाया. पर हम हैं कि समझते नहीं. याद कीजिए, उससे पहले कांजी लालजी मेहता भी आए थे- इंसान बनाम गॉड का मुकदमा लेकर. लेकिन हम तब भी कहां समझे थे. यानी, बॉलीवुड तो बेचारा वक्त-वक्त पर अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश करता है लेकिन हमने न समझने की जैसे कोई कसम खा रखी हो. एक नजर डालते हैं ऐसे ही कुछ बाबाओं पर जो बड़े पर्दे पर गुल खिलाते नजर आए.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

समझाकर हार गया तो वापस अपने गोले पर लौट गया पीके

आमिर ने फिल्म ‘पीके’ के जरिए अंधविश्वास को खत्म करने की ईमानदार कोशिश की. फिल्म आस्था के नाम पर दुकान चलाने वाले एक बाबा (सौरभ शुक्ला) की दिलचस्प तरीके से पोल खोलती है. इसके अलावा हिंदू हो या इस्लाम या फिर ईसाई, हर धर्म की बुराइयों को मनोरंजक तरीके से सामने लाने में फिल्म कामयाब रही. लेकिन इससे हासिल क्या हुआ. राम रहीम के समर्थकों ने जिस तरह से आतंक मचाया, उससे तो यही लगता है कि पीके पर्दे पर कामयाब होकर भी जमीन पर नाकाम हो गई.

धर्म को कौन चुनौती दे ये पंगा है

सवाल ये उठता है कि इतने बाबा आते कहां से हैं और अगर आते भी हैं तो उनके पास इतने अनुयायी कहां से आते हैं. इसका जवाब ये है कि आस्था की आंधी में तर्कों के तीर अक्सर हवा हो जाते हैं. अंधविश्वास में डूबे लोग ऐसे बाबाओं के फॉलोअर होते हैं फिर चाहे वो कम पढ़े लिखे हों या फिर खूब पढ़े लिखे. दिक्कत इस बात की भी है कि जो लोग अंधविश्वासी नहीं होते हैं वो डर की वजह से धर्म के नाम पर फर्जी दुकान चलाने वालों को खुलकर चैलेंज नहीं कर पाते.

कुछ इसी तरह की एक कहानी मार्च 2016 में आई, जिसका नाम था ‘ग्लोबल बाबा’. फिल्म में दिखाया गया कि कैसे एक कुख्यात अपराधी भगवा ओढ़कर साधु बन जाता है और सिस्टम का इस्तेमाल कर सरकार तक को हिलाने की कुव्वत रखता है. हालांकि, बुराई पर अच्छाई की विजय के फॉर्मूले के हिसाब से इस फिल्म में भी बुराई हारती है और अच्छाई की जीत होती है. पर पंचकूला को याद करके सब हवा-हवाई लगने लगता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

बाबाओं के आश्रम में चलता है सिर्फ उन्हीं का कानून

आस्था के नाम पर पाखंड फैलाने वाला कोई भी ढोंगी बाबा हो लेकिन उनके आश्रम में कानून सिर्फ उन्हीं का चलता है. मतलब ये कि आश्रमों के अंदर की दुनिया, बाहरी दुनिया से कटी रहती है. धर्म को चुनौती देने का साहस कानून की रक्षा का दावा करने वाले बड़े-बड़े लोग नहीं कर पाते. वजह यही है कि धर्म को चुनौती देने का जोखिम कौन ले?

इसी का फायदा उठाकर ढोंगी बाबा पहले मासूम लोगों को उनकी बेबसी का फायदा उठाकर अपना फॉलोअर बनाते हैं. और जब अनुयायियों की संख्या का आंकड़ा लाखों तक पहुंच जाता है तो फिर क्या कानून और क्या राजनीति, पूरा सिस्टम ही इनका गुलाम बन जाता है. अजय देवगन की फिल्म सिंघम रिटर्न्स में भी इसी तरह की एक कहानी दिखाई गई, जिसमें बाबा पूरे सिस्टम को गुलाम बना चुका होता है. नेता उसकी चौखट पर हाजिरी लगाते हैं और पुलिस उस चौखट को क्रॉस करने का साहस नहीं जुटा पाती. आखिरकार, फिल्म का हीरो, ढोंगी बाबा को बेनकाब कर देता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

बाबा बनते कम हैं, बनाए ज्यादा जाते हैं!

ज्यादातर मामलों में सच्चाई यही है कि साधु के भेस में जितने भी ढोंगी निकले. उनमें ज्यादातर को बाबा बनाया गया था. ठीक देव आनंद साहब की साल 1965 में आई गाइड फिल्म की तरह, जिसमें फिल्म का किरदार राजू (देव आनंद) जेल से रिहाई के बाद अकेला भटकता रहता है. एक दिन वह कुछ साधुओं की टोली के साथ गांव के मंदिर के अहाते में सो जाता है और अगले दिन उस मंदिर से निकलने से पहले एक साधु सोते हुये राजू के ऊपर पीताम्बर वस्त्र ओढ़ा देता है. अगले दिन गांव का एक किसान, भोला, पीताम्बर वस्त्र में सोते हुये राजू को साधु समझ लेता है. भोला यह बात सारे गांव में फैला देता है और गांव वाले राजू को साधु मान लेते हैं और उसके लिए खाना और दूसरे तोहफे लेकर आते हैं और अपनी समस्याएं भी उसे बताते हैं. राजू को उस गांव में स्वामी जी के नाम से जाना जाने लगता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

‘नो न्यूज ऑन रिलिजन एंड गॉड’ क्यों?

फिल्म पीके में एक्टर बोमन ईरानी ने एक न्यूज चैनल के एडिटर इन चीफ का किरदार निभाया है. इस फिल्म में वह कहते हैं, ‘नो न्यूज ऑन रिलिजन एंड गॉड.’

वो इस फैसले की वजह भी बताते हैं. वो कहते हैं, यहां पर तीन मार्क्स हैं. ये बर्थ मार्क्स नहीं हैं. तुम्हारे डार्लिंग डैडी के गुरु के खिलाफ मैंने एक न्यूज रन कर दी थी. उनके भक्तों ने आकर यहां मेरे बम पर त्रिशूल घुसा दिया. उसी दिन से मैंने तय किया कि अगर इस देश में रहना है तो रिलिजन से मत उलझो.

फिल्म में बोमन का ये डायलॉग वाकई में एक बड़ी सच्चाई उजागर करता है. सच्चाई ये कि आस्था एक ऐसा विषय है जिसे छेड़ने का साहस बड़े-बड़े सूरमा नहीं कर पाते.

चलते-चलते बात परेश रावल की फिल्म- ओ माई गॉड की भी.

फिल्म में परेश रावल तमाम ढोंगी बाबाओं का पर्दाफाश करके लोगों का भरोसा जीतते हैं. फिल्म के एक डायलॉग में वो कहते हैं कि धर्म या तो लोगों को डरपोक बनाता है या आतंकवादी.

समझने की बात सिर्फ इतनी है कि बड़े पर्दे पर बाबाओं के पर्दाफाश का असर शायद ही आम लोगों पर हुआ है, ठीक वैसे ही जैसे एक बार एक इंटरव्यू में जावेद अख्तर ने कहा था, “हिंदी फिल्में तो 50 साल से प्यार करना और प्यार से रहना सिखा रही हैं, हमने सीखा क्या !”

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×