बिहार (Bihar) में जातिगत जनगणना (Caste Census) का काम 7 जनवरी से शुरू हो चुका है. इससे पहले कर्नाटक (Karnataka) और तेलंगाना (Telangana) में भी जातिगत जनगणना हो चुकी है.
कई पार्टियां जातिगत जनगणना कराए जाने का समर्थन कर रही हैं. इन पार्टियों का कहना है कि इससे बेहतर नीतियों को बनाने और लक्षित वर्ग की पहचान करने में ज्यादा मदद मिलेगी.
खुद बीजेपी भी इसका श्रेय लेने की कोशिश राज्य स्तर पर कर रही है, लेकिन इसके कई नेता जनगणना पर सवाल भी उठा रहे हैं. कुछ दूसरे लोग इस जनगणना में उपजातियों की गिनती ना किए जाने को लेकर इसकी प्रक्रिया पर सवाल उठा रहे हैं.
बिहार में जातिगत जनगणना का मामला अब सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच चुका है. राष्ट्रीय स्तर पर आखिरी बार अंग्रेजों के जमाने में 1931 की जनगणना में जातियों की गिनती की गई थी. बाद के कई दशकों तक भी उसी जनगणना के आंकड़ों के आधार पर नीतियां बनाई गईं.
1931 की जनगणना के अहम बिंदु-
यहां यह बताते चलें कि 1931 में अविभाजित बिहार और ओडिशा एक ही राज्य हुआ करते थे, जिनका विभाजन 1911 में बंगाल से अलग होने के बाद हुआ था. मतलब आज का बिहार, झारखंड और ओडिशा तत्कालीन राज्य का हिस्सा थे. 1931 की जनगणना के मुताबिक-
पिछड़ा वर्ग की जातियों की संख्या और जनसंख्या- 1955 में काका कालेकर कमीशन ने अपनी जो रिपोर्ट सब्मिट की थी, उसमें ओबीसी में 2,399 जातियों को शामिल किया था, जिनमें से 837 अति पिछड़ी जातियां थीं.
वहीं मंडल कमीशन ने 3,743 जातियों को पिछड़ा वर्ग में शामिल किया. मंडल कमीशन ने देश की आबादी में ओबीसी की संख्या 1931 की जनगणना के आधार पर 52% मानी, लेकिन बता दें 1931 की जनगणना में मौजूदा पाकिस्तान और बांग्लादेश को भी शामिल किया गया था. इसलिए इन आंकड़ों को अंतिम मानने में कई लोग सावधानी बरतते हैं.
तो इस हिसाब से संयुक्त हिंदुस्तान में 1931 में ओबीसी में कुल जातियों की कुल जनसंख्या 18.5 करोड़ के आसपास थी.
1931 में भारत की आबादी और विदेशियों की संख्या
1911 की जनगणना के मुताबिक, भारत में करीब 1.85 लाख विदेशी नागरिक रहते थे. जबकि 1931 में यह संख्या घटकर 1.55 लाख रह गई थी. बता दें भारत (पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा समेत) की जनसंख्या तब 35.2 करोड़ थी. जबकि पिछली जनगणना, 1921 में यह आबादी 32.28 करोड़ थी. मतलब पिछले दशक में तकरीबन 10 फीसदी से ज्यादा की जनसंख्या बढ़ोत्तरी हुई थी.
साक्षरता दर- 1931 की जनगणना के मुताबिक बिहार और ओडिशा राज्य में साक्षरता दर महज 5.3% थी. आज सबसे ज्यादा साक्षरता दर कोचीन (मध्य केरल का क्षेत्र) 33.7 और त्रावणकोर (आज का दक्षिण केरल और तमिलनाडु में कन्याकुमारी का इलाका) में 28.9% थी. जबकि दिल्ली की साक्षरता दर 16.3% और बॉम्बे प्रेसिडेंसी की दर 10.8% थी. धर्मों के हिसाब से देखें तो सबसे ज्यादा शिक्षित पारसी (79.1%) थे, जबकि सबसे कम शिक्षित मुस्लिम (8.3%) थे. हिंदुओं की स्थिति भी लगभग यही (8.4%) थी.
1931 में जनसंख्या में धार्मिक अनुपात
1931 के संयुक्त हिंदुस्तान में भी आज की तरह सबसे ज्यादा हिंदू धर्म के लोग थे. तब 35.2 करोड़ की आबादी में 22 करोड़ 44 लाख हिंदू थे. जबकि मुस्लिमों की संख्या 3 करोड़ 58 लाख थी. मतलब हिंदुस्तान की आबादी में तब करीब 10 फीसदी मुस्लिम थे. जबकि हिंदुओं की आबादी करीब 65 फीसदी थी.
1947 में बंटवारे के बाद, 1951 की जनसंख्या में मुस्लिम आबादी में 16 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई. 1951 में हिंदुओं की जनसंख्या देश में 30 करोड़ 30 लाख थी, जबकि मुस्लिम आबादी 3 करोड़ 54 लाख.
2011 की जनगणना के मुताबिक देश में करीब 96 करोड़ 60 लाख हिंदू हैं, वहीं मुस्लिम आबादी तकरीबन 17 करोड़ 20 लाख है. अनुपात के हिसाब से देखें तो हिंदुओं की आबादी में हिस्सेदारी 79.8 फीसदी, मुस्लिमों की 14.2 फीसदी है. वहीं देश में 2.3 फीसदी ईसाई धर्म को मानने वाले लोगों की आबादी है.
1931 की जनगणना का भारत पर प्रभाव
जैसा हम सब जानते हैं कि जनगणना हर दस साल में होती है. 1931 के बाद अगली जनगणना 1941 में हुई. इसमें जातियों का आंकड़ा भी लिया गया था, लेकिन उसे प्रकाशित नहीं किया जा सका. वजह दूसरे विश्व युद्ध में अंग्रेजों के फंसे होने के चलते समय की कमी को बताया गया. तो इसके बाद आने वाली जनसंख्या गणनाओं के लिए यह परिपाटी ही बन गई. फिर कभी जातिगत आंकड़ों को जनसंख्या गणना में शामिल नहीं किया गया.
1977 में जब मंडल कमीशन का गठन किया गया, तो कमीशन ने अपनी रिसर्च के लिए 1931 के आंकड़ों को ही आधार बनाया. करीब एक दशक बाद, 1989 में वीपी सिंह सरकार ने आयोग की अनुशंसाओं को लागू करने का फैसला किया और सरकारी नौकरियों में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया.
मतलब 58 साल बाद भी 1931 की जनगणना के आकंड़ों को नीतियों को लागू करने के लिए आधार बनाया गया. फिर मंडल कमीशन की अनुशंसाओं से भारत के भविष्य में एक बड़ी आबादी लाभान्वित हुई. इसी तरह अर्जुन सिंह के मानव संसाधन मंत्री रहते हुए जब उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी कोटा को लागू किया गया, तो भी इस लाइन का पालन किया गया.
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