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छठ, सूर्य उपासना और बिहार ‘तेरी किरणें, कितनी पवित्र, कितनी मजबूत’

छठ पूजा आखिर मनाया क्यों जाता है? बिहार का क्यों है छठ सबसे महत्वपूर्ण पर्व?

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हिंदू महीने के कार्तिक मास (अक्टूबर/नवंबर) में छठ का त्योहार मनाया जाता है. व्रत और पवित्र परंपराओं वाला यह त्योहार चार दिनों के लिए पूरे बिहार को अपने आगोश में ले लेता है.

जल स्त्रोतों के आसपास पीले और लाल रंग के परिधानों में सजी महिलाएं उगते हुए सूर्य की तरफ श्रद्धा की दृष्टि से देख रहे होते हैं. प्यासे गले से नदियों और जल स्त्रोतों को फल और फूल अर्पित किए जाते हैं, और शाम ढलने के साथ ही, हजारों दिये पानी के ऊपर जगमगाने लगते हैं. ऐसा लगता है कि सितारों का विशाल सागर एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में लगा हुआ है.

इसका सिर्फ एक ही मतलब होता है, छठ पूजा शुरू हो चुकी है.

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रस्में

छठ पूजा, या सूर्य षष्ठी, की पूजा करने के लिए व्यक्ति को आत्मा और शरीर से मजबूत होना जरूरी है. इस पूजा को करने वाले प्रत्येक व्यक्ति से उम्मीद की जाती है कि वह हर साल चार दिन की इस पूजा को जरूर करेगा/करेगी. इस पूजा की रस्में निम्नलिखित चरणों में बंटी होती है:

नहाय खाय


पूजा के पहले दिन भक्त (छठ पूजा करने वालों में अधिकांशत: महिलाएं ही होती हैं, लेकिन कई पुरुष भी यह पूजा करते हैं) कोसी, करनाली या गंगा नदी में डुबकी लगाते हैं और थोड़ा-सा पवित्र जल अपने घर ले जाते हैं. जो महिलाएं इस दिन व्रत रखती हैं उन्हें दिन में सिर्फ एक बार खाना खाने की इजाजत होती है.

लोहंदा या खरना


शाम को सूर्यास्त के थोड़ी देर बात व्रत समाप्त हो जाता है. सूर्य और चंद्रमा की पूजा के तुरंत बाद परिजनों और दोस्तों को खीर, पूरी और केला बांटा जाता है. दूसरे दिन शाम को प्रसाद खाने के बाद यह व्रत करने वाले को अगले 36 घंटे तक जल ग्रहण करने की इजाजत नहीं होती.

संध्या अर्घ्य


इस दिन शाम को व्रत करने वाले व्यक्ति के साथ पूरा परिवार नदी, तालाब या ऐसे ही किसी जलस्रोत के किनारे जाता है और डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य देता है.

ऊषा अर्घ्य


छठ पूजा के आखिरी दिन व्रत करने वाली महिलाएं और पुरुष अपने परिवार और दोस्तों के साथ सूर्योदय के पहले नदी किनारे जाते हैं, और उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देते हैं. व्रत खत्म करने के साथ ही यह त्योहार संपन्न हो जाता है. इसके बाद दोस्त और रिश्तेदार व्रत निभाने वाले व्यक्ति के घर जाते हैं और प्रसाद ग्रहण करते हैं.

‘सूर्य उपासना का पवित्र अहसास’

हमें जीवनदायिनी ऊर्जा प्रदान करने वाले सूर्य की एक देवता के रूप में लगभग हरेक संस्कृति में पूजा की जाती है. इसलिए इस बात में कोई आश्चर्य नहीं है कि सूर्य को अपना आभार व्यक्त करने के लिए कहीं पर चार दिन का उत्सव मनाया जाता है.

बिहार में औरंगाबाद, सूरजपुर, बरुनार्क जैसी कई जगहों पर तमाम सूर्य मंदिर हैं, जहां पूजा की जाती है. आमतौर पर ये सूर्य मंदिर सूरजकुंड से घिरे होते हैं. यह सूर्य को समर्पित पानी का कुंड होता है जहां भक्त उगते और डूबते हुए सूर्य की पूजा करते हैं. यह जीवन और मृत्यु के चरण को परिभाषित करता है. इसके अलावा भक्त अपनी संतान की समृद्धि और उनकी लंबी आयु के लिए भी पूजा करते हैं.

छठ पूजा इस मामले में भी अलग है कि इसमें पुरोहितों की कोई भूमिका नहीं होती है. इस त्योहार को मनाने के नियमों और संस्कारों के अलावा सर्द सुबह में गर्मी देने वाले सूर्य का आभार व्यक्त करने में जो खुशी महसूस होती है, वह अद्भुत है.

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कहानियां, जो छठ को बिहार से जोड़ती हैं

भले ही छठ पूजा नेपाल, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बाकी जगहों पर की जाती है, लेकिन बिहार जैसी बात कहीं पर भी नहीं है. महाभारत में सूर्य द्वारा पैदा हुए कुंती के पुत्र कर्ण की वजह से बिहार इस पूजा के लिए खासतौर पर जाना जाता है. कहा जाता है कि अंग देश (वर्तमान में बिहार का मुंगेर) पर राज करते समय कर्ण ने ही सबसे पहले छठ पूजा की थी.


वहीं, रामायण में कहा गया है कि 14 साल के वनवास के बाद जब राम और सीता अयोध्या आये थे तो अपने राज्याभिषेक के दौरान दोनों ने कार्तिक महीने में सूर्य की उपासना की थी. कहा जाता है कि तभी से छठ सीता के मायके जनकपुर (वर्तमान नेपाल) का खास त्योहार बन गया और बाद में बिहार में भी यह पर्व मनाया जाने लगा.

हम इन दावों की सच्चाई पर बहस कर सकते हैं लेकिन संस्कृति और संस्कारों को इनसे जो दृष्टि मिलती है वह किसी भी बहस से परे है. और फिर ऊर्जा, गर्मी और प्रकाश से बेहतर ऐसे कौन से आदर्श हैं जिन्हें हम संजोना चाहेंगे?

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