फैक्टचेकर जुबैर बने चिदंबरम
पी चिदंबरम (P Chidambaram) ने इंडियन एक्सप्रेस में मोदी सरकार (Modi Government) के दावों का फैक्ट चेक सामने रखा है और इसे नाम दिया है ‘मैं जुबैर हूं’. चिदंबरम बताते हैं कि फैक्ट चेक करना गंभीर काम है. इसके लिए निष्पक्षता की जरूरत होती है, अनुसंधान और विश्वसनीयता की जरूरत होती है. मोदी सरकार के 8 साल में सेवा, सुशासन, गरीब कल्याण का दावा करने वाली पुस्तिका जिक्र करते हुए लेखक एक-एक दावों की पोल खोलते हैं.
चिदंबरम लिखते हैं कि मोदी सरकार ने 2016 में पीएम आवास योजना की शुरुआत की थी जिसका लक्ष्य था 2022 तक सभी शहरी लोगों को आवास उपलब्ध कराना. मंत्री के दावे के मुताबिक 1.15 लाख घर बनाना तय हुआ और 70 लाख घर बना दिए गये. सच यह है कि 58.59 लाख घर ही बने और 31 मार्च 2022 के बाद से इस योजना पर काम रुका हुआ है. 99.99 प्रतिशत घरों को बिजली देने के दावे पर लेखक स्मार्ट पावर इंडिया और नीति आयोग के सर्वे को सामने रखते हैं जिसमें कहा गया है कि 13 प्रतिशत लोग या तो नॉन ग्रिड बिजली का इस्तेमाल करते हैं या बिजली का इस्तेमाल नहीं करते.
चिदंबरम बताते हैं कि 2021 में हुए साउथ एशियन लेबर नेटवर्क के सर्वे से पता चलता है कि 4320 शहरों को खुले में शौचालय से मुक्त कराने के दावों से उलट केवल 1276 शहरों में ही यह लक्ष्य पाया जा सका है. 2022 तक कुपोषण से मुक्ति के अभियान का सच यह है कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 116 देशों के बीच 101 नंबर पर है. 57 फीसदी माताएं कुपोषित हैं और केवल 11.3 फीसदी बच्चों को समुचित पोषाहार मिल पा रहा है.
न्याय जगत में बेचैनी
करन थापर (Karan Thapar) ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि एक ऐसे समय में जब ज्यादातर लोग बोलने में डर रहे हैं, सबसे मुखर आवाज न्याय जगत से आ रही है. शायद संभावित नतीजों से वे इतने बेचैन हैं कि उन्हें संयम खोना पड़ रहा है. ऐसे ही तीन लोगों में दो सुप्रीम कोर्ट के जज हैं और एक हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश. जब सुप्रीम कोर्ट ने तीस्ता सीतलवाड़ जजमेंट दिया तो जस्टिस मदन लोकुर (Justice Madan Lokur) ने कहा कि हमें तो ईश्वर ही बचा सकता है.
उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को विशेष रूप से यह स्पष्टीकरण देने के लिए बैठना चाहिए कि तीस्ता की गिरफ्तारी वे कतई नहीं चाहते थे. छुट्टियों की वजह से अगर वे दिल्ली में ना हों तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट के महासचिव से कहना चाहिए कि हमारा इरादा तीस्ता को गिरफ्तार करने का नहीं था.
जस्टिस लोकुर पूछते हैं कि गलत केस करने के लिए उन पर क्यों मुकदमे चलने चाहिए? हजारों ऐसे ही मामलों पर क्या कभी मुकदमे चले हैं? क्या खुद पुलिस ने गलत केस नहीं किए हैं? मोहम्मद जुबैर केस मामले में जस्टिस दीपक गुप्ता की टिप्पणी है कि कुछ तो गड़बड़ है. यह पुलिस के पूर्वाग्रह से ग्रसित होने का मामला है. वे चिंतित हैं कि उन्हें हिरासत में क्यों लिया गया. घटना मार्च 2018 में घटी. चार साल बाद भी ऐसे कोई संकेत नहीं हैं कि उनके ट्वीट के कारण दो समुदायों में कोई विवाद हुआ.
मद्रास और दिल्ली हाई कोर्ट के प्रमुख रह चुके जस्टिस एपी शाह की टिप्पणी इन तीनों जजों में सबसे तल्ख रही. जहांगीरपुरी में मुसलमानों के घर ढहाए जाने के मामले में वे कहते हैं कि ऐसे अफसरों को जेल भेजा जाना चाहिए जिसने सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना की. अदालत को यथास्थिति बरकरार रखते हुए मुआवजे की पहल करनी चाहिए.
बिना किसी झिझक के वे कहते हैं कि मुझे दिख रहा है कि मुसलमानों के खिलाफ स्पष्ट मुहिम चलायी जा रही है. वे कहते हैं कि सबसे चिंताजनक बात यह है कि ऊंचे पदों पर बैठे लोग खामोश हैं. उनकी टिप्पणी है कि लोकतंत्र को खत्म करने के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं का सहारा लिया जा रहा है.
स्थायी नौकरी बनी समस्या
टीएन नाइनन (TN Ninan) ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि युवाओं ने विरोध त्याग कर अग्निवीर योजना (Agniveer) के तहत नौकरियों के लिए आवेदन करना शुरू कर दिया है. उनके पास विकल्प नहीं हैं. वास्तव में यह पूरा मामला सरकारी रोजगार में स्थायी, अनुबंधित और आकस्मिक कर्मचारियों की वर्ग व्यवस्था की ओर ध्यान दिलाता है. स्थायी वर्ग बाकी दो वर्गों की तुलना में संपन्न वर्ग है. यहां अच्छा वेतन, मुद्रास्फीति से लड़ने की व्यवस्था के साथ-साथ पेंशन की सुरक्षा है. इसकी व्यवस्था भी सरकार को करनी होती है. सरकारी नौकरियों में भी सही समय पर वेतन नहीं मिलने की समस्या गंभीर हुई है और कोई सुनवाई नहीं हो रही है.
नाइनन लिखते हैं कि अनुबंधित और आकस्मिक श्रमिकों को वेतन आयोग का लाभ नहीं मिलता. लिहाजा उनकी मुश्किलें ज्यादा हैं. वेतन आयोग ने पांच साल पहले 18 हजार रुपये न्यूनतम मासिक वेतन तय किया था लेकिन खुलेआम इसकी अवहेलना हो रही है. लेखक का मानना है कि दो कारणों से सरकारों और उससे संबद्ध संस्थाओं ने स्थायी कर्मचारियों की नियुक्ति से दूरी बनायी है. एक है स्वाभाविक लागत और दूसरा है उत्पादकता. स्थायी शिक्षक अपनी जगह किसी और को पढ़ाने भेज देते हैं तो कार्यालयों में स्थायी बाबुओं ने काम को सीमित कर रखा है.
टीएन नाइनन बताते हैं कि बीते चार साल में अनुबंधित कर्मचारियों की संख्या 24.30 लाख हो गयी है. अग्निपथ योजना भी सशस्त्र बलों की वेतन लागत कम करने का तरीका भर है. एक तरह से यह एक रैंक-एक पेंशन के प्रभाव से निपटने का प्रयास भर लगता है. स्थायी और अनुबंधित श्रेणियों के भुगतान और लाभ में अंतर नहीं रहने देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश अब बेमानी हो गये हैं. वेतन में भारी अंतर बना हुआ है. यह खत्म होता भी नहीं दिखता.
1930 वाली मंदी की ओर दुनिया!
टीसीए राघवन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि कीमतें बढ़ रही हैं और आमदनी लगातार घटती चली जा रही है. ऐसा लगता है कि 1930 के दशक वाली मंदी लौट रही है. इंडोनेशिया के बाली द्वीप में जी 20 देशों के वित्तमंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के प्रमुखों की बैठक में यह चिंता प्रमुख है. आईएमएफ की सोच भी एक जैसी है. महामारी में केंद्रीय बैंकों ने राजनीतिक नेतृत्व के निर्देश पर मौद्रिक नीति को असाधारण ढंग से शिथिल किया. यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद आपूर्ति बुरी तरह से प्रभावित हुई. दोनों का मिलाजुला प्रभाव मुश्किलें बढ़ाने वाला साबित हुआ.
टीसीए राघवन आइएमएफ के उस बयान की याद दिलाते हैं जिसमें 2023 को सबसे मुश्किल समय बताया है. उसके बाद मंदी का खतरा काफी बढ़ जाएगा. आईएमएफ की रिपोर्ट बताती है कि जिन केंद्रीय बैंकों पर आईएमएफ नज़र रखता है उनमें से तीन चौधाई ने जुलाई 2021 के बाद से ब्याज दरों में बढ़ोतरी की है. आईएमएफ राजकोषीय नीति को सख्त बनाने की हिदायत दे रहा है. संतोष की बात यह है कि भारत पहले से ही राजकोषीय नीति सख्त कर चुका है.
महंगे ऋण से निपटने में इससे मदद मिलेगी. भारत के खाद्यान्न निर्यात नीति पर क्या आईएमएफ को सवाल उठाना चाहिए?- यह महत्वपूर्ण सवाल है. अफ्रीकी और फश्चिम एशिया के देशों में खाद्यान्न का संकट होने जा रहा है. ऐसे में निर्यात प र प्रतिबंध से भारतीय किसानों को ही अतिरिक्त आय से वंचित होना पड़ रहा है. राघवन खासतौर से इस बात का जिक्र करते हैं कि चीन अपनी औद्योगिक क्षमता का बमुश्किल आधा इस्तेमाल कर पाएगा-ऐसी स्थिति बन रही है.
सृष्टि का वजूद बताएगा वेब टेलीस्कोप
फरहद मंजू ने टेलीग्राफ में लिखा है कि जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप ने पताका लहराया है. यह ऐसा टेलीस्कोप है जो काल के लगभग शुरुआत को देख सकता है और शायद अस्तित्व के सवाल को जानने की जिज्ञासा का समाधान कर सकता है. क्या जिस दुनिया में हम हैं जिन्दगी केवल वहीं है? पहली तस्वीरें विज्ञान की जीत से कहीं बड़ी है. मानवजाति के लिए यह एक वसीयतनामे की तरह है. एक नीरस समय में यह दूरबीन मील का पत्थर है जो हमें हमारी प्रजाति के बारे में हमारे अनुमानों से बहुत दूर ले जाकर वास्तविकता का परिचय कराता है.
वेब प्रोजेक्ट के बारे में वैज्ञानिक एरिक स्मिथ के हवाले से लेखक बताते हैं कि तस्वीरों को देखकर ऐसा लगता है मानो हम सबसे ताकतवर हों. मनुष्य होकर गर्व महसूस होता है कि जब हमें जो चाहिए हम कर सकते हैं. SMACS 0723 नाम से मशहूर ये तस्वीरें पूरी गैलेक्सी को कुछ इस तरह बयां करती हैं मानों वो बिल्कुल पास हों.
8 हजार प्रकाश वर्ष पूर्व के नजारे भी यह वेब टेलीस्कोप कॉस्मिक धूल के जरिए देख और दिखा सकता है. नासा के मुताबिक आने वाले समय में हम यह बताने की स्थिति में होंगे कि कब, कैसे और क्यों तारे, गैलेक्सी, विशालकाय पिंड, अंतरिक्ष व्यवस्था और दूसरी चीजें बनीं और पूरी कायनात का निर्माण हुआ.
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