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संडे व्यू : काश राहुल कहते सॉरी, खतरे में विश्वगुरू की छवि

पढ़ें आज करन थापर, पी चिदंबरम, प्रभु चावला, ग्वेन डायर और खालिद अनीस अंसारी के विचारों का सार.

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भारत
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सॉरी कहने से छोटे हो जाएंगे राहुल?

हिन्दुस्तान टाइम्स में करन थापर ने लिखा है कि राहुल गांधी को सीखना होगा कि माफी कैसे मांगी जाती है. वे लगातार दोहरा रहे हैं कि मेरा नाम गांधी है और गांधी कभी माफी नहीं मांगता. वे यह बात तब बोल रहे हैं जब स्पष्ट रूप से उन्हें दो लोगों से माफी मांगनी चाहिए. एक माफी डॉ मनमोहन सिंह से मांगनी चाहिए 2013 में घटी उस घटना के लिए, जब उन्होंने अध्यादेश फाड़ा था. अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया होता तो आज वे सदन से बाहर नहीं होते. तब लालू प्रसाद यादव को अनैतिक रूप से बचाने के लिए वह अध्यादेश लाया जा रहा था जिसका घोर विरोध हो रहा था. राहुल उस विरोध के प्रभाव में आ गये थे और उन्होंने सार्वजनिक रूप से प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह का अपमान किया था. उन्हें सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी चाहिए.

करन थापर लिखते हैं कि दूसरी माफी राहुल गांधी को उस पत्रकार से मांगनी चाहिए जिसने ओबीसी से अपमान वाला सवाल प्रेस कॉन्फ्रेन्स में पूछा. राहुल ने उस पत्रकार को बीजेपी का आदमी बताते हुए कहा, “क्यों आप इतना खुलकर बीजेपी के लिए काम कर रहे हो...क्या आपको आदेश हुआ है....अगर आप बीजेपी के लिए काम करना चाहते हैं तो बीजेपी का झंडा लाएं...चुनाव चिन्ह अपने सीने से चिपकाएं...तब मैं आपको उसी तरीके से जवाब दूंगा. पत्रकार होने का बहाना ना करें.” फिर अगले सवाल पर ‘हवा निकल गयी’ वाली टिप्पणी और भी बुरी थी. माफी मांगने से गांधी का कद और बड़ा होगा और हमारा आदर उनके लिए बढ़ेगा. अगर वे अपने रुख पर कायम रहते हैं तो यही कहा जाएगा कि वे ऐसे नेता बन चुके हैं जो नहीं जानते कि माफी कैसे मांगी जाए.

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राहुल पर ज्यादती

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि राहुल गांधी को मानहानि के अपराध में जो सजा सुनाई गयी और उसके बाद लोकसभा सचिवालय की ओर से जिस तरह उन्हें अयोग्य घोषित किया गया, वह चौंकाने वाला है. राहुल गांदी ने 13 अप्रैल 2019 को कोलार में भाषण दिया था जिस पर 16 अप्रैल 2019 में पूर्णेश मोदी नामक व्यक्ति ने सूरत के मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत दर्ज करायी. इस शिकायत पर शिकायतकर्ता ने 7 मार्च 2022 को स्थगन आदेश ले लिया. वहीं जैसे ही 7 फरवरी 2022 को राहुल गांधी ने लोकसभा में अडानी समूह से जुड़े मुद्दों को उठाया तो शिकायतकर्ता ने 16 फरवरी को स्थगन याचिका वापस ले ली. फिर चौंकाने वाली तेजी देखने को मिली और एक महीने के भीतर राहुल गांधी को दोषी करार दिया गया. लोकसभा के अयोग्य ठहराने में भी लोकसभा सचिवालय ने अभूतपूर्व तेजी दिखलायी.

चिदंबरम इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के हवाले से लिखते हैं कि ‘मोदी’ जाति नहीं है. हिन्दू, पारसी और मुसलमान सभी इस टाइटल का उपयोग करते हैं. ओबीसी की केंद्रीय सूची में भी मोदी जाति नहीं है. लेखक दूसरा सवाल उठाते हैं कि आईपीसी की धारा 500 के तहत अधिकतम 2 साल की सजा का उदाहरण भी नहीं मिलता.

तीसरी बात यह है कि राहुल को संसद के अयोग्य ठहराने का अधिकार भी राष्ट्रपति के पास है जो निर्वाचन आयोग से इस बाबत फैसला करने से पहले विमर्श करते हैं. राहुल के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. लेखक कानूनी भाषा का जिक्र करते हुए भी राहुल गांधी की अयोग्यता पर लिए गये फैसले पर सवाल उठाते हैं.

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पुतिन पर गंभीर आरोपों की अनदेखी

ग्वेन डायर ने टेलीग्राफ में लिखा है कि इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट ने हाल में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन के खिलाफ वारंट जरूर जारी किया है लेकिन इस बात को लेकर अब भी उहापोह है कि वास्तव में पुतिन ने क्या अपराध किया है. पुतिन ने बिना उकसावे के यूक्रेन पर आक्रमण किया. यूक्रेन का अस्तित्व नहीं होना चाहिए और न यूक्रेनी पहचान होनी चाहिए- ऐसा मानते हुए पुतिन ने साफ किया कि जो लोग रूसियों को आक्रमणकारी मानते हैं उन्हें ‘नाजी’ समझा जाना चाहिए और उनका सफाया कर दिया जाना चाहिए. ये बातें पुतिन को सामूहिक नरसंहार का दोषी साबित करती है. अनुमान है कि 1.2 लाख यूक्रेनी सैनिक या तो मारे गये हैं या फिर घायल हैं. पुतिन पर बड़ी संख्या में युद्ध अपराध के आरोप हैं.

डायर सवाल उठाते हैं कि पुतिन पर केवल रूसी बच्चों को यूक्रेन ले जाए जाने के आरोप ही क्यों हैं? इसका जवाब बीते वर्ष जॉर्ज डब्ल्यू बुश के टेक्सास में दिए गये भाषण में मिलता है जब उन्होंने गलती से यूक्रेन की जगह इराक का नाम ले लिया था, “एक व्यक्ति का फैसला जो पूरी तरह से अन्यायपूर्ण था और वह इराक पर आक्रमण था...मेरा मतलब है यूक्रेन पर.”

इराक और यूक्रेन पर हुए आक्रमण वास्तव में दूसरे विश्व युद्ध के बाद ‘कानून का शासन’ बनाने के उद्देश्य पर आक्रमण था. सामूहिक नरसंहार के आरोप दोनों मामलों में साफ दिखते हैं. केवल एक आरोप पुतिन पर नया है. वह है यूक्रेनी बच्चों को सामूहिक रूप से परवरिश के लिए रूस भेजना. इसी नये आरोप पर पुतिन के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी करना बताता है कि इराक हमले के गुनाहों की पर्देदारी की जा रही है.

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विदेश में विश्वगुरु की छवि को नुकसान!

प्रभु चावला ने न्यू इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि विश्व गुरु भारत और भारतीय प्रधानमंत्री के लिए अपने राजनयिक अनुकूल छवि नहीं बना पा रहे हैं. इसके उलट वे इस छवि को नुकसान पहुंचा रहे हैं. विदेशी धरती पर खालिस्तान की मांग करते हुए भारतीय दूतावासों के सामने प्रदर्शन और ब्रिटेन में भारतीय उच्चायुक्त पर खालिस्तानी झंडे फहराने की घटनाओं का लेखक जिक्र करते हैं. ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा समेत कई देशों में भारत की छवि को धूमिल करने के लिए लगातार विरोध प्रदर्शन की घटनाएं हुई हैं.

प्रभु चावला लिखते हैं कि 20 मर्ई को जी 7 शिखर बैठक में भाग लेने प्रधानमंत्री हिरोशिमा जाने वाले हैं. उसके बाद क्वाड की बैठक के वे सिडनी और फिर जून महीने में अमेरिका जाने वाले हैं. ऐसे में उपरोक्त घटनाएं महत्वपूर्ण हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अब तक 69 विदेशी दौरों में 80 देशों की यात्राएं की हैं. लेकिन, वर्तमान में जो अप्रिय परिस्थिति विदेश में बनी हैं वैसी पहले कभी नहीं बनी.

चिंतित भारत ने अब प्रवासी भारतीयों के बीच आरएसएस और दूसरे राष्ट्रवादी समूहों को सक्रिय करना शुरू किया है जो इस माहौल को संभालेंगे. बांग्लादेश से भी रिश्ते सुधारने हैं. लेखक कहते हैं कि बीते पांच सालों में एस जयशंकर के विदेश मंत्री रहते भारतीय राजनयिकों ने केवल आत्मघाती गोल किए हैं. भारतीय मिशन को जीरो मिशन के साथ आंखें बंद किए रखने की लाइन छोड़नी पड़ेगी.

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कर्नाटक में आरक्षण के बहाने मुस्लिम सियासत

टाइम्स ऑफ इंडिया में खालिद अनीस अंसारी ने लिखा है कि कर्नाटक में हाल ही में कैटेगरी 2बी को आरक्षण सूची से खत्म कर दिया गया है जिसे लेकर विधानसभा चुनाव से पहले विमर्श तेज हो गया है. 1994 में एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार ने आरक्षित वर्ग में 2बी श्रेणी जोड़ी थी. तब भी उस कदम को राजनीतिक माना गया था और आज भी इसे खत्म करने के बीजेपी सरकार के फैसले को राजनीतिक माना जा रहा है. ताजा फैसले के बाद मुसलमानों को मिलने वाला आरक्षण आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को मिलेगा.

खालिद लिखते हैं कि जादी के बाद से ही धर्म के आधार पर आरक्षण को संदेह की नजर से देखा जाता रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह विभाजन रहा है. पहले और दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग ने मुसलमानों को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा माना लेकिन आरक्षण के लिए उन्हें उपयुक्त मानने से परहेज किया.

कर्नाटक में तीन महत्वपूर्ण फैक्टर हैं. यहां गैर ब्राह्मण जातियां एकजुट रही हैं और सत्ता का समीकरण तय करती रही हैं. दूसरा फैक्टर है कि कर्नाटक में जाति का अर्थ थोड़ा व्यापक है. गैर हिन्दू भी इसमें आते रहे हैं. तीसरी बात यह है कि मुसलमानों में जाति खोज निकालना हमेशा से चुनौती रही है. शायद यही वजह है कि पूरे मुस्लिम समुदाय को ही पिछड़ा मान लिया जाता रहा है. ऐसा अंग्रेजों के जमाने से हुआ है. कर्नाटक में मुसलमानों को आरक्षित श्रेणी से बाहर किए जाने के बाद यह चुनावी मुद्दा है और बना रहेगा क्योंकि इस बहाने हिन्दुओं के पिछड़े वर्ग को भी सहलाने-बहलाने की सियासत होनी है.

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