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SC के सामने बड़ा सवाल, प्राइवेसी मौलिक अधिकार है या नहीं?

राइट टू प्राइवेसी से होगा आधार योजना के भविष्य पर फैसला

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भारत
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‘राइट टू प्राइवेसी’ मौलिक अधिकार है या नहीं, ये तय करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की 9 सदस्यों वाली संवैधानिक बेंच ने सुनवाई शुरू कर दी है.

इससे पहले, मंगलवार को मामले पर जस्टिस खेहर की अध्यक्षता वाली 5 सदस्यों की बेंच ने सुनवाई की थी. इस बेंच ने केस को बुधवार में 9 सदस्यीय बेंच के सामने सुनवाई के लिए भेजने का आदेश दिया था.

11 अगस्त, 2015 को सुप्रीम कोर्ट की एक तीन जजों वाली बेंच आधार योजना की वैधता पर सुनवाई कर रही थी. इसी बेंच ने राइट टू प्राइवेसी के मौलिक अधिकार होने के बारे में संवैधानिक बेंच (5 या उससे ज्यादा जजों वाली बेंच) बनाने की अपील की थी.

पूरे दिन चली सुनवाई के दौरान जस्टिस जे चेलमेश्वर, एस ए बोबड़े, आर के अग्रवाल, रोहिंटन फली नरीमन, अभय मनोहर सप्रे, डी वाई चंद्रचूड, संजय किशन कौल और एस अब्दुल नजीर की पीठ ने कहा,

स्नैपशॉट
  • निजता का अधिकार अस्पष्ट तौर पर परिभाषित अधिकार है और यह पूरी तरह नहीं मिल सकता. यह स्वतंत्रता का एक छोटा सा हिस्सा है.
  • सरकार के पास कुछ शक्ति होनी चाहिए कि वह इस पर तर्कसंगत बंदिश लगा सके.
  • पीठ ने फिर उदाहरण देकर समझाया कि बच्चे को जन्म देना निजता के अधिकार के दायरे में आ सकता है और माता-पिता यह नहीं कह सकते कि सरकार के पास यह अधिकार नहीं है कि वह हर बच्चे को स्कूल भेजने के निर्देश दे.
  • पीठ ने कहा, ‘ ‘हम ‘बिग डेटा ‘ के जमाने में जी रहे हैं और सरकार को डेटा के नियमन का हक है, चाहे यह अपराध, कर या अन्य गतिविधियों के नियमन के उद्देश्य के लिए हो...निजता का अधिकार इतना संपूर्ण नहीं हो सकता कि यह सरकार को इस पर कानून बनाने या इसके नियमन से रोके. ‘ ‘
  • न्यायालय ने कहा कि यदि किसी बैंक ने लोन देने के लिए निजी ब्यौरे मांगे हैं, तो यह नहीं कहा जा सकता कि यह निजता के अधिकार का उल्लंघन है.

आखिर क्यों है राइट टू प्राइवेसी के मौलिक अधिकार होने पर सवाल?

संविधान के भाग 3 में मौलिक अधिकारों की चर्चा की गई है. राइट टू प्राइवेसी इसमें लिखित तौर पर शामिल नहीं है. लेकिन मौलिक अधिकारों को बड़े फलक पर देखते हुए कोर्ट ने अलग-अलग केसों में कई अधिकारों को मौलिक अधिकारों के अंतर्गत शामिल माना है.

फिलहाल राइट टू प्राइवेसी आर्टिकल 21 (जीवन एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत अंर्तनिहित अधिकार माना जाता है.

1963 में खड़क सिंह (6 सदस्यों वाली बेंच) और 1954 में एमपी खन्ना (8 सदस्यों वाली बेंच) के केस में सुप्रीम कोर्ट ने राइट टू प्राइवेसी को मौलिक अधिकार नहीं माना था. बाद में दूसरे केसों में कोर्ट ने राइट टू प्राइवेसी को मौलिक अधिकार माना. लेकिन यह फैसले 2 और 3 सदस्यों वाली छोटी बेंचों ने लिए थे.

राइट टू प्राइवेसी और आधार योजना

अगर राइट टू प्राइवेसी को मौलिक अधिकार मान लिया जाता है, तो सरकार की बहुप्रतीक्षित आधार योजना पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. आधार योजना के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई गई थी.

इसमें आरोप लगाया गया कि आधार योजना से नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन होता है. आधार बनवाने में आंखो का स्कैन किया जाता है, साथ ही फिंगर प्रिंट लिए जाते हैं. इनके जरिए लोगों का सर्विलांस किया जा सकता है. आधार के खिलाफ दायर याचिकाओं, सर्विलांस स्टेट बनाने के विरोध और राइट टू प्राइवेसी के पक्ष में हैं.
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अगर बुधवार को संवैधानिक बेंच राइट-टू-प्राइवेसी को मौलिक अधिकार मान भी लेती है, तो भी यह बेंच आधार योजना पर कोई फैसला नहीं करेगी. आधार पर फैसला पहली बेंच ही लेगी.

दुनिया में राइट टू प्राइवेसी के हाल

मानवाधिकारों के यूनीवर्सल डॉक्यूमेंट में राइट टू प्राइवेसी को शामिल किया गया है. लेकिन आज भी बहुत कम देशों में इसे संवैधानिक या मौलिक अधिकार में शामिल किया गया है.

जो देश मानवाधिकारों के यूरोपियन कंवेशन से बंधे हुए हैं, उनमें ही ठीक से इन्हें लागू किया गया है. अमेरिका में भी राइट टू प्राइवेसी की व्याख्या के लिए कई संशोधनों की जरूरत पड़ी थी.

9 सदस्यों की संवैधानिक बेंच होने के चलते लंबे समय तक इसका असर पड़ने के आसार हैं.

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