कोरोनावायरस से पूरा चीन परेशान है. 400 से ज्यादा मौतें, 20 हजार से ज्यादा पीड़ित. इस खतरनाक वायरस ने अब भारत में भी दस्तक दे दी है. चीन से लौटे तीन लोगों में इसके सबूत मिली हैं. केरल में इनका इलाज चल रहा है. केरल ने कोरोनावायरस को आपदा घोषित कर दिया है. अगर ये वायरस देश के बड़े हिस्से पर अटैक करता है तो हमारा मेडिकल सिस्टम इसके लिए कितना तैयार है?
भारत में डॉक्टरों की कमी
2019 में बिहार के मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार से 100 से अधिक बच्चों की मौत हुई थी. इस दौरान अस्पतालों, दवा और डॉक्टरों की कमी ने राज्य और केंद्र सरकार की स्वास्थ्य व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया था. 1994, 2014 और 2019 के आंकड़ों को मिला लें तो इसी चमकी बुखार (इंसेफेलाइटिस) ने देश भर में 400 से अधिक बच्चों की जान ली थी. लेकिन अब तक सरकार इस बीमारी का एंटीडोट खोजने में सफल नहीं हो पाई है.
WHO के मुताबिक भारत में डॉक्टरों का अनुपात 1:1000 है, यानी 1000 की आबादी पर 1 डॉक्टर. ये यूरोप और पश्चिमी देशों से काफी कम है. हिंदुस्तान टाइम्स ने WHO की 2016 की रिपोर्ट के हवाले से बताया है कि इंडिया में खुद को एलोपैथिक डॉक्टर कहने वाले 31.4% केवल 12 वीं कक्षा तक पढ़े हुए थे और 57.3% डॉक्टरों के पास मेडिकल योग्यता नहीं थी.
बेड के लिए तरसते मरीज
मिनिस्ट्री ऑफ हेल्थ एंड फैमिली वेलफेयर की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सरकारी अस्पतालों की संख्या 35,416 है, जिसमें करीब 14 लाख बेड हैं. आसान भाषा में इसे समझें तो औसतन 879 लोगों के लिए एक सरकारी अस्पताल की बेड है. बिहार, झारखंड और यूपी में तो हालात भयावह हैं.
हेल्थ पर GDP का सिर्फ 3.89% खर्च
भारत के पास दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है. जाहिर है, लोग ज्यादा हैं तो पेशेंट भी ज्यादा ही होंगे. लेकिन विश्व की सातवीं बड़ी इकनॉमी वाला देश भारत अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए जीडीपी का सिर्फ 3.89% खर्च करता है. 2019-20 के बजट में हेल्थ सेक्टर के लिए 61,398 करोड़ रूपए दिए गए थे, जबकि नए बजट में 69 हजार करोड़ दिए गए हैं. पिछले साल के मुकाबले देखा जाए तो यह सिर्फ 8 हजार करोड़ ज्यादा है.
यूके तो अपने देश के छात्रों को लाइफ टाइम स्वास्थ्य बीमा भी देता है. इंग्लैंड में अगर कोई विदेशी छात्र 6 महीने से ज्यादा वक्त बिताता है तो उसे भी ये बीमा मिलता है. एम्स जैसे अस्पताल, जहां अच्छा और सस्ता इलाज मिलता है, देश में बेहद कम हैं. इस कारण मरीजों को हफ्तों और कई बार महीनों का इंतजार करना पड़ता है.
रिसर्च पर ध्यान नहीं
इकनॉमिक्स टाइम्स में छपे एक आर्टिकल के मुताबिक सरकार ने साल 2019-20 में रिसर्च के लिए सिर्फ 1939.76 करोड़ रुपये आवंटित किया था. Who की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत रिसर्च पर अपनी जीडीपी का 1 % से भी कम खर्च करता है.
कुल मिलाकर हम कोरोनावायरस जैसी घातक बीमारी के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है. चीन जो हेल्थ केयर को लेकर हमसे ज्यादा गंभीर दिखता है, उसकी कमर ये वायरस तोड़ रहा है, तो सोचिए हमारे देश में ऐसा कोई वायरस चीन की तरह बड़े पैमाने पर पांव पसारे तो क्या होगा?
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