“सरकार कह रही है कि नियमित रूप से अपने हाथ धोएं, सफाई बनाए रखें, दरवाजों को न छूएं और दूसरे लोगों के घरों में न जाएं. लेकिन मैं जहां काम करती हूं, वे कहते हैं कि मुझे छुट्टियां नहीं देंगे, मुझे आना ही होगा. इसके विपरीत वे मुझे आते ही हाथ धोने के लिए फटकारते रहते हैं, वे दूसरों के घरों में नहीं जाते और अपने घर मेहमानों को नहीं बुलाते”
दिल्ली के अलकनन्दा इलाके के एक अपार्टमेंट में खाना बनाने का काम करती हैं 35 साल की भानु. वो जहां काम करती हैं उन लोगों ने क्या करने और क्या नहीं करने की हिदायत दी है, वो उसकी पूरी लिस्ट बताती हैं.
भानु कहती हैं कि उसने महसूस किया है कि बीते कुछ दिनों से उसके नियोक्ता की जीवनशैली में बदलाव आया है. वह कहती हैं, “वे सुबह में देर तक सोते रहते हैं”. घर में कुछ और लोग अब आ गये हैं. परिवार के दूसरे सदस्य उसके लिए दरवाजे खोलते हैं. बहरहाल भानु अतिरिक्त नींद नहीं लेती. वह हर सुबह 7 बजे घर से निकल जाती है. उसके रूटीन में कोई बदलाव नहीं आया है.
20 मार्च तक भारत में कोविड 19 से मरने वालों की संख्या 4 और इससे पीड़ित मरीजों की तादाद 195 हो गयी है. ऐसे में सामाजिक दूरी और घर से काम करना आम बात है. द क्विंट ने घरेलू सहायक, ड्राइवर और गार्ड से बातचीत कर यह समझने की कोशिश की कि किस तरह की आर्थिक और सामाजिक स्थिति में रहने को वे मजबूर हो गये हैं. गलत सूचनाओं और निराशा के बीच उनके लिए कोई छुट्टी या आराम नहीं है. वे कोविड-19 को दूर करने के लिए अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर रहे हैं ताकि वे इतना कमा पाएं कि उनके पेट भर सके.
“मालूम नहीं कि जहां काम करती हूं, वे बीमार हैं या नहीं”
भानु अपने पति, तीन बेटे, एक बहू और एक पोते के साथ दिल्ली के तुगलकाबाद इलाके में रहती हैं. उसके पास एक मात्र नियमित नौकरी है जिससे उसे हर महीने 15 हजार रुपये मिलते हैं. उसके बेटे एक टीम के साथ काम करते हैं जो लाइट और म्यूजिक की व्यवस्था करते हैं. लेकिन, उनके कामकाज को धक्का लगा है क्योंकि दिल्ली सरकार ने लोगों को भीड़ इकट्ठी करने से मना कर दिया है. चूकि बेटे हर दिन काम खोजने के लिए घर से बाहर निकलते हैं, भानु अपनी नौकरी में कोई बाधा झेलने की स्थिति में नहीं है.
लेकिन, वह कहती है कि काम पर जाना उसके लिए समस्या नहीं है. इसके विपरीत स्वस्थ और मजबूत रहते हुए उसकी चिंता है, “मैं यह भी नहीं जानती कि जिन घरों में मैं काम करती हूं वहां बीमार लोग हैं या उनमें ऐसी बीमारी के लक्षण हैं. लोग हमें ये बातें नहीं बताते मानो वे भूल गये हों कि ऐसा करना जरूरी है.”
सरकार की बातों को सुनने के साथ-साथ अब वह अपने नियोक्ता को भी सुनती है. इसमें अपने हाथों को धोना और अपने परिवार को बारंबार आगाह करना शामिल है कि बीमारी से बचने के लिए ऐसा करना जरूरी है.
“मैं उनको बताती हूं कि नियमित वेतन पाने वाली मैं अपने घर में अकेली हूं. इसलिए उन्हें साफ-सुथरा रहने की आदत रखने की जरूरत है अन्यथा घर में कोई आमदनी नहीं होगी. बीमार होना मैं सहन नहीं कर सकती. इसी तरह काम पर नहीं जाना भी मेरे वश में नहीं है. मेरे नियोक्ता इसका लेखा-जोखा रखते हैं कि मैं कितने काम पर दिन आयी. मेरी छुट्टियों को ध्यान में रखते हुए वे पैसे काट लेते हैं और जैसा कि मैंने कहा चाहे कोरोना वायरस हो या नहीं, वे मुझे छुट्टियां देने के बारे में नहीं सोचते.”
‘मास्क पहन रही हूं क्योंकि हर कोई पहन रहा है’
49 साल का दुखरन डेलिवरी एजेंट है. वह मास्क लगाकर एक अपार्टमेंट में आया है. 28 साल के लल्लन से उसकी बात होती है जो एक गार्ड है और उसने भी मास्क पहन रखा है. वे एक-दूसरे से हंसी-मजाक करते हैं और फिर बात करते हैं कि मास्क कितने में खरीदी है. दुखरन को 100 रुपये लगे हैं तो लल्लन को 80 रुपये. बात करते समय दोनों अपने-अपने चेहरों से मास्क हटा लेते हैं.
रिपोर्टर उनसे पूछती है कि उन्होंने मास्क क्यों पहन रखा है और क्या उनमें बीमारी के कोई लक्षण मिले थे या फिर वे जिस घर में रहते हैं वहां कोई इस बीमारी के लक्षण वाले लोग हैं. दोनों का जवाब होता है कि वे स्वस्थ हैं.
“मैंने इसे पहन रखा है क्योंकि मैं देखता हूं कि हर कोई पहन रहा है. अगर आप कहते हैं कि मैं नहीं पहनूं तो मैं उतार देता हूं.” ऐसा कहते हुए दुखरन मास्क को उतार लेता है और मुस्कुराता है. यह बताने में वह देरी नहीं करता कि इसे पहनने में उसे कोई आनन्द नहीं है. लल्लन अपने कपड़े वाले मास्क की तारीफ करता है और बताता है कि वह उसे हर दिन धोता है. चिंतित होते हुए वह बताता है, “मैंने कुछ दिनों पहले इसी काम के लिए डेटोल खरीदा है. हर सुबह मैं इसे धोता हूं.”
डॉक्टर और स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने लगातार कहा है कि किसी को मास्क पहनने की जरूरत नहीं है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है, “अगर आप स्वस्थ हैं तो आपको मास्क पहनने की जरूरत तभी है जब आप संदिग्ध संक्रमित व्यक्ति की सेवा कर रहे हों. इसे उचित जगह रखे कूड़े के डब्बे में फेंकना जरूरी है.”
गम्भीर बीमारियों के विशेषज्ञ डॉ सुमित रे ने ‘क्विंट फिट’ के साथ बातचीत में बताया है कि, “केवल खास किस्म का मास्क एन95 ही काम करता है और उसे पहनना आसान नहीं है. यह जरूरी है कि मास्क अच्छे से फिट हो और इस्तेमाल के बाद नष्ट कर दिया जाए. केवल डॉक्टरों को इसकी जरूरत होती है जो संक्रमित मरीज को देखते हैं. प्रदूषण वाले मास्क काम नहीं करते.”
और अगर कोई मास्क पहन रहा है तब डब्ल्यूएचओ कहता है, “मास्क तभी प्रभावी है जब अल्कोहल से जुड़े हैंड रब या साबुन या पानी से लगातार हाथ धोते हुए इसका इस्तेमाल किया जाए.”
बहरहाल दुखरन और लल्लन अपने मास्क हटा लेते हैं जब बीड़ी पीने के लिए उनको ब्रेक लेना होता है, मोबाइल फोन पर बात करनी होती है, खाना या फिर एक-दूसरे से बातचीत करनी होती है.
‘अमीरों की बीमारी’
लल्लन बेचैन है, दुखरन निश्चिंत है कि उसे बीमारी नहीं होगी. वह अपने निजी एजेंसी के लिए हर दिन दिल्ली भर में पार्सल बांटता है. इसका मतलब है कि नियमित रूप से लोगों से मिलता है. यह बताते हुए कि वह इसकी कोई परवाह नहीं करता, वह कहता है, “जब से यह कोरोना शब्द आया है हमारे बॉस ने कोई छुट्टी नहीं दी है. हमें काम करना है.”
बेफिक्र भाव से मुस्कुराते हुए वह कहते हैं, “मैं बाहर नहीं खाता. मैं भारत के बाहर यात्रा भी नहीं करता. मैंने तो दिल्ली और यूपी के बाहर भी कभी कदम नहीं रखा. यह अमीर लोगों की बीमारी है. मेरे लिए नहीं बनी है.”
42 साल के जोगिन्दर सिंह ड्राइवर हैं और हर महीने 14 हजार रुपये कमाते हैं. वह भी वही बात कहते हैं, “उतना डरने की बात नहीं है. ओखला में मेरे मोहल्ले में किसी के पास इतना पैसा नहीं है कि वे देश से बाहर जाएं. बीमार होने वाले ये लोग हमारे जैसे नहीं हैं.”
हालांकि सिंह आश्वस्त करते हैं कि उनके पास रुमाल है और जब भी काम पर होते हैं तो वे अपने हाथ नियमित रूप से धोते हैं. घर में उनका अभ्यास बिल्कुल अलग होता है. सामाजिक दूरी बनाए रखने की अपील के बावजूद सिंह नियमित रूप से अपने 12 से 15 लोगों के एक्सटेंडेड फैमिली यानी विस्तारित परिवार से मिलते-जुलते रहते हैं. “पिछले महीने हम पांच से छह बार जरूर मिले होंगे. कभी कोरोनावायरस के बारे में चर्चा नहीं की. इतना डर कभी नहीं था जितना आज है.”
नॉन-वेज और हैंड सैनिटाइजर से परहेज
लल्लन कहते हैं वह कभी भी इस बीमारी के शिकार नहीं होंगे. उनके विश्वास का आधार है कि वह शाकाहारी है. “मैं मांस या मछली भी नहीं खाता. मेरी उस किस्म की आदत नहीं है. मुझमें किसी जानवर या किसी अन्य चीज से यह बीमारी होने के कोई आसार नहीं हैं. तो यह मुझे क्यों होगा?”
कोरोनावायरस के प्रसार से जुड़ा एक और मिथ है जिसे अन्य लोगों के अलावा पशुपालन और डेयरी मंत्रालय ने खंडन किया है. केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने खुद कहा है कि ‘अंडा, चिकन, मांस और मछली खाना पूरी तरह सुरक्षित है.‘
सामाजिक दूरी के आह्वान को गम्भीरता से नहीं लेने और खुद का आश्वस्त करने के बावजूद कि वे वायरस को दूर करने के प्रयासों में शामिल हैं, सिंह ने बहुत ज्यादा खरीदारी कर रखी है.
“हमने पहले कभी हैंड सैनिटाइजर नहीं खरीदा था. मैंने इसके बारे में सुना तक नहीं था. मैंने इसे कुछ दिन पहले खरीदा था जब मेरे नियोक्ता ने अपनी कार के लिए एक खरीदा. हर कोई इसका इस्तेमाल कर रहा है. इसलिए मैं भी कर रहा हूं.” सिंह ने सबसे बड़ी बोतल खरीदने के फैसला किया. इसपर हंसते हुए वह कहते हैं, “मैंने सबसे बड़ी बोतल खरीदी. मेरे पड़ोस में इतनी बड़ी बोतल किसी के पास नहीं है.” स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने इस बात पर जोर दिया है कि किसी को सैनिटाइजर की जरूरत नहीं है और वह साबुन या पानी इस्तेमाल कर सकता है. संक्रमण खत्म करने के लिए यह भी उतना ही प्रभावी है.
सिंह जबकि शान से अपने हैंड सैनिटाइजर दिखाते हैं, लल्लन और दुखरन मास्क पहनते हैं जो बहुत प्रभावी नहीं है और भानु अगले दिन काम पर जाने के लिए तैयार होती है- ये सभी लोग सहमत हैं कि उन्हें घर से काम करने की सुविधा नहीं है या फिर खुद को और अपने नजदीकी लोगों को सुरक्षित रखने के लिए छुट्टी भी नहीं मांग सकते.
महामारी को देखते हुए एक ऐसे समय में जब समूचा भारत शटडाउन की ओर बढ़ रहा है, क्या सुविधा प्राप्त वर्ग उन लोगों का संज्ञान लेगा जिन्हें यह बीमारी उनके मुकाबले आसानी से हो सकती है- यह बड़ा सवाल है.
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