महामारी है मजाक नहीं, उत्सव की मानसिकता छोड़ें
टीएन नाइनन बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखते हैं कि बीते साल अप्रैल महीने में भारत का स्वास्थ्य मंत्रालय जहां कोरोना संक्रमण का डबलिंग रेट समझाते हुए स्थिति पर नियंत्रण की बात समझा रहा था, इस वर्ष स्थिति यह है कि 8 दिन में 20 हजार से 40 हजार, 14 दिन में 40 हजार से 80 हजार और 10 दिन में 80,000 से 1,60,000 का संक्रमण दिख रहा है. कहीं ऐसा न हो कि मई के मध्य तक हम प्रतिदिन 6 लाख कोरोना संक्रमण के स्तर तक जा पहुंचें.
बीते वर्ष जहां कोरोना के चंद मामलों के बाद देश को लॉकडाउन में भेज दिया था, इस वर्ष महामारी बुरी तरह से देश को जकड़ रहा है और कोई रास्ता नहीं दिख रहा.
नाइनन लिखते हैं आलोचनाओं के बाद सरकार ने वैक्सीन की आपूर्ति बढ़ायी है, लेकिन वैक्सीन के उत्पादक को आर्थिक मदद पर चुप्पी बरकरार है. वैक्सीन पर सरकारी नियंत्रण खत्म होना चाहिए. वैक्सीन का अधिक से अधिक उत्पादन जरूरी है. दाम बढ़े तो बढ़ाए जाने चाहिए. स्वास्थ्य सुविधाओं का तेजी से विस्तार करना भी महामारी से लड़ने के लिए जरूरी है. आर्थिक रूप से देश को पटरी पर लाना भी उतना ही अधिक जरूरी है. सप्लाई चेन एक बार फिर गड़बड़ाता दिख रहा है.
इससे पहले कि महामारी से नुकसान स्थायी हो जाए, यह जरूरी है कि बीते साल शुरू की गयी आर्थिक सहायता, अनाज की मदद आदि दोबारा शुरू किए जाएं. संकट से निपटने के लिए कुप्रबंधन का खामियाजा राजस्व घाटा और सार्वजनिक ऋण बढ़ने के रूप में होगा. वैक्सीन उत्सव जैसे कार्यक्रमों से संकट का मजाक बनाने के बजाए हर स्तर पर सरकार को व्यावहारिक कदम उठाने होंगे.
रोके जाएं धार्मिक स्थलों का धर्मांतरण
एसए अय्यर द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखते हैं कि धार्मिक स्थलों के धर्मांतरण पर रोक लगाया जाना चाहिए. इसके बजाए अलग-अलग अदालतें उपासना स्थल के धर्मांतरण की मांग करने वाली याचिकाओं पर विचार कर रही हैं. लेखक चिंता जताते हैं कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से वाराणसी में हिंदू मंदिर को तोड़ कर ज्ञानव्यापी मस्जिद बनाए जाने के दावे की जांच करने को कहा गया है. कृष्ण जन्म स्थान के दावे के साथ मथुरा के शाही मस्जिद को सुपुर्द करने की मांग पर विचार और कुतुब मीनार कॉम्प्लेक्स में कथित तौर पर तोड़े गये मंदिरों को सुपुर्द करने जैसी मांग पर सुनवाई की जा रही है.
एसए अय्यर आगाह करते हैं कि 15 अगस्त 1947 के समय की स्थिति बनाए रखने वाला उपासना स्थल कानून 1991 बेअसर हो सकता है और अंतहीन नये सांप्रदायिक संघर्षों की शुरुआत हो सकती है. लेखक उपासना स्थल के धर्मांतरण की कोशिशों को आपराधिक बताते हैं. वे याचिकाकर्ताओं के खिलाफ मुकदमे चलाने की वकालत भी करते हैं. लेखक पूछते हैं कि क्यों नहीं ऐसी याचिकाएं स्वीकार कर रही निचली अदालतों के जजों को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का दोषी ठहराया जाए?
अय्यर कहते हैं कि औरंगजेब ने मंदिर तोड़कर ज्ञानव्यापी मस्जिद बनाई तो पल्लवों ने चालुक्यों के शाही मंदिरों को लूटा. दुनिया में भी ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं. हाल में बाइजेन्टाइन चर्च को इस्तांबुल के हाजिया सोफिया में बदल दिया गया है. स्पेन में 16 मस्जिदों को चर्च में बदले जाने के उदाहरण हैं. लेखक ने हरियाणा से कई उदाहरण सामने रखा है जिसमें मस्जिदों को तोड़कर मंदिर बनाए गए हैं. उदाहरण के लिए सोनीपत के जामा मस्जिद को दुर्गा मंदिर में बदल दिया गया. फर्रुखनगर में 1732 ईस्वी में बने जामा मस्जिद को मंदिर और गुरद्वारा में बदल दिया गया.
लापरवाही ने देश को संक्रमण में डुबोया
तवलीन सिंह द इंडियन एक्सप्रेस में लिखती हैं कि टीकाकरण उत्सव के दौरान टीकों की कमी साफ तौर पर सामने आ गयी, जिससे सरकार लगातार इनकार कर रही थी. जो नजारा बीते वर्ष ब्राजील और इटली में हमने देखा था वही नजारा अपने देश में भी हमें देखने को मिल रहे हैं. कब्रिस्तानों और श्मशानों के बाहर कतारें लग गई हैं.
ऐसा लगता है कि संक्रमण की पहली लहर को रोकने में मिली कामयाबी का जश्न हमने जल्दी मना लिया.
तवलीन लिखती हैं कि 30 करोड़ की आबादी वाला अमेरिका अपने देश में 60 करोड़ वैक्सीन की खुराक दे चुका है, जबकि दुनिया में 60 फीसदी वैक्सीन बनाने वाले भारत ने केवल एक करोड़ के वैक्सीन का ऑर्डर दे रखा था. आत्मविश्वास इतना कि 80 देशों को वैक्सीन भेज डाले. बजट में 53 हजार करोड़ की रकम केवल वैक्सीनेशन के लिए आवंटित की गई थी, लेकिन सीरम इंस्टीट्यूट को देने के लिए 3 हजार की मामूली रकम भी नहीं है.
विदेशी टीका स्पुतनिक वी को मंजूरी दी गई है. संक्रमण पूरे देश में फैल रहा है. स्थिति नाजुक है. महाराष्ट्र लॉकडाउन की ओर है जबकि लॉकडाउन समस्या कम नहीं करता, बढ़ा देता है. लेखिका जनता को भी दोष देती हैं कि वह कुंभ मेले में क्यों जाती है, शादियों में क्यों जाती है. वहीं रैलियों में नेताओं की भीड़ के जरिए बताती हैं कि जनता को शायद यही सबक मिला है कि कोरोना है ही नहीं. इसी वजह से हो रही है दुर्गति.
दूसरी लहर से अर्थव्यवस्था का बचाव जरूरी
हिंदुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं कि बीते साल महामारी के बाद देश की तिमाही जीडीपी 24.4 फीसदी तक सिकुड़ गई थी. 2020-21 में 8 प्रतिशत की बढोतरी के साथ रिकवरी की उम्मीद थी. अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर लौट रही थी. वी आकार से अर्थव्यवस्था के उभरने के संकेत मिल रहे थे.
मगर, इन सबके बीच अब कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर आ पहुंची है. नोमुरा समेत बड़ी-बड़ी एजेंसियां भारत में आर्थिक गतिविधियों का नए सिरे से आकलन करते हुए देश को आगाह किया है. अगर लॉकडाउन या आंशिक लॉकडाउन जैसी स्थिति बनी तो 11 या 12 प्रतिशत विकास दर का अनुमान भी सही नहीं रह सकता है.
चाणक्य लिखते हैं कि किसी भी सूरत में सप्लाई चेन को बनाए रखना होगा. बीते साल लॉकडाउन में देश इसमें सफल रहा था. मगर, हम निश्चिंत होकर नहीं बैठ सकते. इस वक्त संक्रमण बहुत तेज है और इस हाल में सप्लाई चेन में किसी भी बाधा से स्थिति खतरनाक हो सकती है.
ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर कदम उठाने होंगे. कोरोना के संक्रमण को रोकने के लिए प्रतिबंध लगाने होंगे और जरूरत के सामानों की सप्लाई बरकरार रखनी होगी. इस वक्त देश के पास वैक्सीन है. वैक्सिनेशन की प्रक्रिया को तेज करना होगा. टेस्टिंग से लेकर संक्रमण चेन तक को पकड़ने की प्रक्रिया तेज रखनी होगी और वैक्सीनेशन बढ़ाना होगा. आर्थिक तौर पर संघीय ढांचे में विश्वसनीयता को बनाए रखना भी उतना ही जरूरी है. राज्य सरकारों को सकारात्मक रुख दिखाना होगा. वहीं, बिहार जैसे राज्यों की आर्थिक मदद करनी होगी जहां मजदूर लौट रहे हैं. मजदूर तबके पर खास तौर पर ध्यान देने की जरूरत रहेगी.
बहुत स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं हो रहे है चुनाव
पी चिदंबरम ने द इंडियन एक्सप्रेस में 1977 में हुए चुनाव और 2021 में हो रहे चुनाव के अनुभवों को व्यक्त किया है. 1977 में हो रहा चुनाव आपातकाल के बाद का चुनाव था. लेकिन, तब भी वह चुनाव शालीन, निष्पक्ष और स्वतंत्र था. चुनाव आयोग बेहद स्वतंत्र था जिसने अन्नाद्रमुक के सभी उम्मीदवारों को साझा चुनाव चिन्ह आवंटित किया था. तब इस दल ने एक उपचुनाव मात्र ही जीता था. वहीं 2021 में हुए चुनाव में डर नहीं है. अमीरों का गरीबों पर या जातिगत प्रभाव भी नहीं के बराबर है.
चिदंबरम ने चुनाव में धन के इस्तेमाल की बुराई की ओर सबका ध्यान खींचा है. तमिलनाडु में मतदाताओं को पैसा दिया जाता है और मतदाता पैसे लेते हैं. वे एलईडी स्क्रीन पर प्रधानमंत्री, गृहमंत्री की दिखाई जा रही रैलियों का भी जिक्र करते हैं और चुनाव आयोग की भूमिका का भी.
लेखक का कहना है कि चुनाव आयोग हेमंत बिस्वा शर्मा पर 48 घंटे के प्रतिबंध को आधा कर देता है लेकिन तमिलनाडु में डी राजा पर वैसे ही अपराध के लिए 48 दिन का प्रतिबंध लगाता है. आयोग को ममता बनर्जी के हर भाषण की समीक्षा करना जरूरी लगता है, लेकिन पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के भाषण की समीक्षा जरूरी नहीं लगती. फिर भी लेखक को भरोसा है कि आखिरकार चुनाव आयोग अपना काम सही तरीके से कर दिखाने में सफल रहेगा.
बंगाली महिलाओं की अमिट यादें
गोपाल कृष्ण गांधी ने द टेलीग्राफ में 5 अमिट तस्वीरों के बारे में लिखा है. ये सारी तस्वीरें महिलाओं से जुड़ी हुई उनकी यादें हैं. इन तस्वीरों को याद करते हुए वह लिखते हैं कि पश्चिम बंगाल के चुनाव में ये महिलाएं निश्चित रूप से मतदान कर रही होंगी. उनके मत की अहमियत रहेगी. इन महिलाओं को लेखक बंगाल की बेटियां बताते हुए पेश करते हैं.
पहली तस्वीर में लेखक कामना विश्वास का जिक्र करते हैं जो उनके मुताबिक निश्चित रूप से सही नाम नहीं है, लेकिन उसकी लिखी चिट्ठी यादगार रही. यह उन दिनों की बात है जब नंदीग्राम संग्राम चल रहा था. तब राज्यपाल के तौर पर अपने नाम आयी व्यक्तिगत किस्म की चिट्ठियों को लेखक स्वयं खोला करते थे. सुंदर-सुंदर हस्तलिपि में लिखी गयी चिट्ठियों में एक थीं कामना विश्वास की लिखी चिट्ठी.
दूसरी तस्वीर कलकत्ता के युवा महिला की उभरती है जिसकी उम्र 30 रही होगी. साथ में उसकी एक बच्ची होती है. टीबी रोग से ग्रसित. डॉक्टर से लेखक को पता चलता है कि बच्ची गर्भवती होती है.
तीसरी तस्वीर आइला तूफान के वक्त मई 2009 की है. जायजा लेते वक्त दार्जिलिंग में एक गोरखा महिला को अपने बर्बाद हुए घर के सामने खड़ी पाते हैं. अगले दिन एक मां को गोद में एक बच्चे के साथ देखते हैं. वह आशा की तस्वीर होती है. चौथी तस्वीर मुर्शिदाबाद में बीडी मजदूरों और उनके जीवन से जुड़ी है. लेखक को इस पेशे में लगे परिजनों के प्रति लगाव हो जाता है. वहीं एक बच्ची से उसकी पढ़ाई के बारे में पूछते वक्त उसके पास संजो कर रखी गई एक किताब देखने को मिलती है. वह किताब होती है भारतीय संविधान. बच्ची को उसकी प्रस्तावना याद रहती है.
पांचवीं तस्वीर पूरबा मेदिनीपुर की है. यहां विभूति भूषण बंदोपाध्याय की पाथेर पांचाली की फिल्म शूट हुई थी. यहां की झोपड़ी और यहां रह रहे लोगों का प्यार लेखक भुला नहीं पाते. कल्याणी नाम की महिला लेखक को याद है जो उनकी आरती करती है. लेखक उसे राजनीतिक मर्यादा के तौर पर याद रखे हुए हैं.
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