खतरे में सरकारों की साख
बिजनेस स्टैंडर्ड में टीसीए राघवन ने अपने मित्र अजित रानाडे से बातचीत का हवाला देते हुए वर्तमान स्थिति की तुलना कॉनवेक्स यानी उत्तल लेंस से की है. ऐसे लेंस पर कोई ऐसा बिन्दु नहीं होता, जहां से लाइन खींची जा सके या जिसे मूल बिन्दु कहा जा सके. राघवन यह भी कहते हैं कि ऐसी सतह पर हर बिन्दु या हर लकीर का पॉजिटिव वैल्यू होता है. कोई नकारात्मक नहीं होता. सब जुड़कर एक हो जाते हैं. कहने का अर्थ यह है कि कोई प्रतिक्रिया बेमतलब नहीं होती और हर आलोचना का भी कुछ न कुछ महत्व होता है. टीसीए राघवन कहते हैं कि सरकार से लेकर आम लोग तक, वैज्ञानिकों से लेकर महामारी विशेषज्ञों तक सभी ने गलतियां कीं, मतलब ये कि हमाम में हम सब थोड़े-थोड़े नंगे हैं.
टीसीए राघवन कहते हैं कि ‘हेडलेस चिकन’ भी वर्तमान परिस्थिति को बयां करता है. वे बताते हैं कि 1945 में अमेरिका में माइक नाम के चिकन का सिर काट कर अलग कर दिया गया. किसी तरह उसे 18 महीने जीवित रखा गया. वास्तव में उसे इस तरह रखा गया मानो कुछ हुआ ही नहीं. इस दौरान ऐसा हुआ कि मस्तिष्क का नस कट नहीं सका था और खून शरीर के बाकी हिस्सों में जाता रहा.
सरकारों के संदर्भ में भी इस कहानी की प्रासंगिकता है. ‘हेडलेस चिकन’ सरकार का क्या उपयोग हो सकता है! विश्वसनीयता, प्रभाव और ताकत खो चुकी ऐसी सरकार को जाती हुई सरकार कहते हैं. सोचकर भी सरकारें ऐसी स्थिति से उबर नहीं पाती हैं. ऐसी स्थिति में सरकार की विश्वसनीयता बहाल करना ही राष्ट्रीय जिम्मेदारी होती है. लेखक 1940 में इंग्लैंड की चैम्बलेन सरकार का उदाहरण देते हैं जिसकी विश्वसनीयता हिटलर ने खत्म कर डाली थी. तब विन्स्टन चर्चिल ने राष्ट्रीय सरकार का नेतृत्व किया था. बदला कुछ भी नहीं था. फिर भी सांसदों ने जनता का मूड समझ लिया था.
सुप्रीम कोर्ट ने ली जिम्मेदारी
सुनंदा के दत्ता राय ने द टेलीग्राफ में लिखा है कि महामारी से निबटने के भारत सरकार के तरीकों पर सुप्रीम कोर्ट ने बहुत सही स्वत: संज्ञान लिया है. ऐसा ही कोरोना के पहले वेब के दौरान भी किया जाना चाहिए था, जब लॉकडाउन के बाद प्रवासी मजदूर सड़क पर निकल पड़े थे, लोगों ने नौकरियां खोयी थीं. बंगाल में 8 चरणों में चुनाव कराने पर उंगली उठाते हुए लेखक का कहना है कि देश में कोरोना की महामारी कहर बरपा रही थी और नीरो बंसी बजा रहा था.
20 हजार करोड़ के सेंट्रल विस्टा प्रोग्राम के जारी रखने पर भी लेखक सवाल उठाते हैं. वे कहते हैं कि यह तब हो रहा है जब लोगों के पास ऑक्सीजन सिलेंडर नहीं हैं, मरीज सांस नहीं ले पा रहे हैं और भारत दुनिया से मदद की भीख मांग रहा है.
सुनंदा दत्ता राय लिखते हैं कि कुंभ मिनी कुंभ में बदल गया. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बदल गये. नये मुख्यमंत्री भी कुंभ से कोरोना खत्म कराते दिखे. वहीं, नरेंद्र मोदी ‘दीदी ओ दीदी’ का नारा लगाते हुए रविन्द्र नाथ टैगोर जैसी दाढ़ी लेकर जनता के हाथों नकार दिए गए. नंदीग्राम में ममता की हार और पूरे प्रदेश में टीएमसी की जीत को लेखक एक नेता के बजाए संगठन की जीत बताते हैं. हिंदू या मुसलमान मुद्दा न होकर स्थानीय और बाहरी ही मुद्दा रहा. अवसरवाद की हार हुई.
संकट की घड़ी में सरकार और पीएम नदारद
करन थापर हिंदुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि सरकारें जनता के साथ संवाद रखती हैं, क्योंकि उनका मकसद लोगों को साथ लेकर चलना होता है. इसलिए सरकार केवल सूचना नहीं देती बल्कि संदेश देती है कि हमें एकजुट होकर चलना है. यही संदेश लोगों को जोड़ता है और इसी से सरकार जनता का विश्वास जीत पाती है. दूसरी सच्चाई यह है कि महान नेता वो शब्द और अभिव्यक्ति खोज लेते हैं जो जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप हो.
लेखक विंस्टन चर्चिल का उदाहरण देते हैं, जिन्होंने तट पर, जमीन पर, खेत में, मैदान में, पहाड़ियों पर या कहीं भी लड़ने और कतई आत्मसमर्पण नहीं करने की बात कही थी. इसी तरह वे फ्रैंकलीन डी रूजवेल्ट का भी उदाहरण रखते हैं, जिन्होंने कहा था कि केवल डर ही है जिससे हमें डरना है.
करन थापर कहते हैं कि सरकार और हमारे प्रधानमंत्री दोनों ने हमें निराश किया है. यही वजह है कि लोग खुद को अकेला और असहाय समझ रहे हैं, निराशा में डूबे है और आशा की कोई किरण उन्हें नजर नहीं आती. लेखक सरकारी प्रेस कॉन्फ्रेंस को महत्वपूर्ण नहीं मानते, जो हिंदी में होते हैं और जिन्हें निजी टीवी चैनल भी पूरा नहीं चलाते और न किसी की उसमें दिलचस्पी होती है. संकट की घड़ी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बेहतर कोई संवाद बनाने वाला नहीं है. इस वक्त हमें ताकत, उत्साह, दृष्टि और दृढ़ता की जरूरत है लेकिन वे कुछ कहना ही नहीं चाहते. न सिर्फ वे खामोश हैं, बल्कि नदारद हैं.
मोदी के मुकाबले कौन?
हिंदुस्तान टाइम्स में चाणक्य लिखते हैं कि भारत के विपक्ष के सामने वही समस्या आज भी बरकरार है जो समस्या 2014 और 2019 में थी. विपक्ष का कोई नेता नहीं था जिसके पास राजनीतिक दक्षता और स्वीकार्यता के साथ-साथ आम लोगों से जुड़ाव हो और वह इस मामले में नरेंद्र मोदी से मुकाबला कर सकें. आज भी सवाल यही है कि 2024 में मोदी का मुकाबला कौन करेगा और क्या चुनाव प्रेसिडेन्सियल स्टाइल में होंगे?
चाणक्य लिखते हैं कि कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में अध्यक्ष का चुनाव महामारी के कारण टाल देना वास्तव में समस्या को बरकरार रखने जैसा है. सोनिया चाहती हैं कि राहुल पार्टी की बागडोर संभालें और कांग्रेस के भीतर असंतुष्ट समूह में उन्हें चुनौती देने का दम दिखता. इसलिए उहापोह की स्थिति जारी है. विपक्ष के जिन नेताओं ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी है उनमें से कांग्रेस, टीएमसी और एनसीपी अपने-अपने नेताओं को 2024 में सत्ता में देखना चाहती है.
महामारी के दौर में सत्ता को चुनौती देने की विपक्ष की चाहत अच्छी है, लेकिन वह इस महत्वपूर्ण सवाल को नकार नहीं सकता कि अगर मोदी नहीं तो कौन? नेता विहीन विपक्ष जब 2014 या 2019 में सफल नहीं हुआ तो अब कैसे सफल हो सकता है?
लेखक बताते हैं कि 2014 में कांग्रेस ने मोदी में अपील करने की ताकत को कम कर आंका था. तब औपचारिक रूप से मनमोहन प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नहीं थे. पीएम पद के उम्मीदवार राहुल गांधी थे. संभव है कि एक बार फिर राहुल ही सामने दिखें. मगर, उनके साथ दिक्कत है कि वे वंश परंपरा में छठी पीढ़ी के हैं और कांग्रेस इतनी कमजोर है कि उनकी आवाज को बहुत बुलंद नहीं कर पाती. उनका राजनीतिक और प्रशासनिक रिकॉर्ड भी बेहतर नहीं रहा है. वोटरों को विश्वास कैसे हो कि वे देश का नेतृत्व कर सकते हैं? विपक्ष को अपना नेता चुनना होगा और उसमें अब और देरी नहीं की जानी चाहिए.
केंद्र-राज्य संबंध के लिए बुरा अध्याय
जूलियो रिबेरो द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि जब 1986 में राजीव गांधी ने उनसे खालिस्तानी आतंकियों के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व सौंपा तो उन्होंने मुझे अपनी सुरक्षा के लिए एनएसजी का ‘ब्लैक कैट’ कमांडो लेने को कहा. रिबेरो लिखते हैं कि अगर उन्होंने इसे मान लिया होता तो पंजाब के पुलिस का भरोसा उन पर कैसे होता, जिनके भरोसे आतंकवाद के खिलाफ पूरी लड़ाई उन्हें लड़नी थी. बंगाल में बीजेपी विधायकों की सुरक्षा में केंद्रीय अर्धसैनिक बलों को लगाना गलत फैसला है. हो सकता है कि ममता बनर्जी सरकार को सबक सिखाने के लिए यह फैसला किया गया हो, लेकिन इससे स्थानीय पुलिस के मनोबल को यह तोड़ने वाला कदम है.
रिबेरो लिखते हैं कि इससे यह भी पता चलता है कि केंद्र सरकार को राज्य सरकार पर भरोसा नहीं है. रिबेरो याद करते हैं कि 1993 में रोमानिया में रहते हुए उन्हें ऐसी सुरक्षा मिली थी जो संभावित हत्यारों से बचाते हुए उन्हें लाने-ले जाने का काम करते थे. यही काम केंद्रीय अर्धसैनिक बल बीजेपी विधायकों के लिए किया करेगा. पश्चिम बंगाल में इस कवायद का मकसद नविर्वाचित विधायकों के अहं की तुष्टि करना नहीं हो सकता. निश्चित रूप से केंद्रीय गृहमंत्री केंद्र और राज्य संबंध के बीच ऐसा युग शुरू करने जा रहे हैं जो बहुत खतरनाक साबित होगा. केंद्रीय अर्धसैनिक बल और स्थानीय पुलिस के बीच के बीच का परस्पर विश्वास ऐसे कदम से कमजोर होगा. बगैर स्थानीय पुलिस के सहयोग के कैंद्रीय अर्धसैनिक बल अपना काम कैसे कर पाएंगे- यह बड़ा सवाल है.
असम में बीजेपी की जीत और बंगाल में हार की वजह हिंदू वोट
स्वपन दास गुप्ता ने द टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा है कि कोविड-19 महामारी के कारण विधानसभा चुनाव नतीजों की जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, नहीं हो सकी. पश्चिम बंगाल में अंतिम तीन चरणों के चुनाव में मतदान कम हुआ और खासकर शहरी इलाकों में कम वोट पड़े. यह बात महत्वपूर्ण है कि चाहे बंगाल हो या फिर असम वर्तमान सरकारें दोबारा जीतकर सत्ता में आईं. दोनों ही राज्यों में मतदाताओं का ध्रुवीकरण हुआ. असम में बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन को 44.5 फीसदी वोट मिले तो कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन को 43.3 प्रतिशत वोट. बंगाल में यही फर्क 9.8 फीसदी रहा.
स्वपन दास गुप्ता ने सीएसडीएस-लोकनीति के सर्वे के हवाले से लिखा है कि ममता को 2019 के लोकसभा चुनाव में 70 फीसदी मुसलमानों ने वोट दिया था जो 2021 में बढ़कर 75 फीसदी हो गया. वहीं 50 फीसदी हिंदू वोटरों ने बीजेपी को पसंद किया जबकि ममता के पक्ष में 39 फीसदी हिंदू रहे.
असम में 81 फीसदी मुस्लिम समुदाय के लोगों ने महाजोत को वोट किया. एनडीए को 11 फीसदी मुसलमानों को समर्थन असम में में मिला. असम में महाजोत के लिए मुसमलानों का समर्थन उतना ही था जितना ममता बनर्जी के लिए बंगाल में. असम में 67 प्रतिशत हिंदू बीजेपी के साथ रहे, वहीं महाजोत के पक्ष में 19 प्रतिशत हिंदू ही रह सके. संक्षेप में असम में बीजेपी की जीत और बंगाल में हार का कारण एक है. यह है हिंदुओं का ध्रुवीकरण.
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