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'हमें कौन जवाब देगा?' दिल्ली दंगा मामलों में बरी तीन शख्स कर्ज और सदमे में जी रहे

दिल्ली हिंसा के तीन साल बाद तीन आरोपियों को एक मामले में सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया, और एक में दोषमुक्त कर दिया गया है.

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24 साल के इरशाद ने अपने भविष्य के लिए कुछ और ही सोचा था. उसने सोचा था कि वो कश्मीर वापस जाकर गैरेज में काम करेगा, कार पेंट करेगा और इस उम्र तक तो उसकी शादी भी हो जाएगी. लेकिन, फरवरी, 2020 में पूर्वोत्तर दिल्ली में भड़की हिंसा ने एक झटके में सबकुछ बदल दिया. साल 2023 तक कई FIR, जेल, कर्ज और डर के साए ने उसे पहले जैसा रहने नहीं दिया. इरशाद की कहानी अब सिर्फ उसकी कहानी नहीं. पूर्वोत्तर दिल्ली दंगों में गिरफ्तार ऐसे कई दूसरों की जिंदगियां भी इरशाद जैसी ही हो गई है.

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न्यू मुस्तफाबाद के रहने वाले इरशाद (जो अपने पहले नाम से जाने जाते हैं) ने द क्विंट से बताया, “पुलिस को हमारी लोकेशन मालूम थी, क्योंकि हम वहां रहते थे. इन तीन सालों में उनके पास हमारे खिलाफ कोई सबूत नहीं है. आखिर हमें कौन जवाब देगा?''

इरशाद, अकील अहमद और रहीश खान- दिल्ली दंगों के आरोपियों में से हैं.

इन तीनों के मामलों में कड़कड़डूमा कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश पुलस्त्य प्रमाचला ने मामले की "ठीक जांच’ नहीं करने और "पूर्व निर्धारित, मेकेनिकल और गलत तरीके से" चार्जशीट दाखिल करने के लिए दिल्ली पुलिस को जमकर फटकार लगाई थी.

लेकिन सबसे पहले, आखिर ये तीनों दिल्ली दंगों के मामले में फंसे कैसे और फिलहाल वो किस हाल में हैं?

आखिर वो जेल कैसे गए?

इरशाद के पिता इकराम पेशे से दर्जी हैं. इरशाद खुद कार पेंटिंग करके रोजाना करीब 500 रुपये कमाता था.

24 फरवरी 2020 को इरशाद उस्मानपुर में काम पर था और उसने अपने दोस्त जुनैद से कहा था कि अगर कुछ भी ऐसा-वैसा हो तो वो उसे बताए. जुनैद ने उसे कई बार फोन किया. तीसरी कॉल पर ही इरशाद को स्थिति की गंभीरता का एहसास हुआ और वह अपने घर की ओर भागा.

इरशाद खजूरी खास से होते हुए अपने पिता की दुकान पर गया. दंगों के दिन वह यहीं था. हालांकि, दो महीने बाद दिल्ली क्राइम ब्रांच के अधिकारी उसके बारे में पूछताछ करने उनके इलाके में पहुंचे.

“मेरे दोस्त जुनैद को भी गिरफ्तार किया गया था. पिटाई के दौरान जब उससे उसके दोस्तों के बारे में पूछा गया तो दबाव में आकर उसने मेरा नाम भी लिया. इसके अलावा, फरवरी में हिंसा के दौरान एक मुस्लिम लड़के शाहिद की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. उसके शव को मुस्लिम लोग मेरी गली से ले गए थे, इसलिए उन्होंने मुझ पर हत्या और कथित रूप से विरोध प्रदर्शन करने का मामला दर्ज कर लिया."
इरशाद

इरशाद को 9 अप्रैल 2020 को उसके घर से उठाया गया. फिर कुछ सवालों के जवाब लेने के बहाने पहले यमुना विहार क्राइम ब्रांच, फिर दयालपुर पुलिस स्टेशन ले जाया गया. अगले दिन पुलिस उसे कड़कड़डूमा कोर्ट और फिर मंडोली जेल ले गई. सब कुछ 24 घंटे के अंदर हुआ.

इरशाद की मां, रिहाना (35) को उसकी गिरफ्तारी के दिन की सब बात साफ-साफ याद है. उन्होंने बताया कि पुलिसवाले सिर्फ उसे ढूंढ रही थे, और 'उसकी पहचान करवानी है’ कह रहे थे. लेकिन रेहाना ने पहचान के लिए खुद थाने जाने की जिद की.

रिहाना ने द क्विंट से कहा कि, “पुलिस ने मुझसे कहा था कि काम पूरा हो जाने पर मैं उसे अपने साथ घर ले जाऊं. चूंकि COVID-19 के कारण लॉकडाउन था, हमें पुलिस स्टेशन पहुंचने में काफी देर हुई. जब तक हम पहुंचे, तब तक वो उसे मंडोली जेल ले जा चुके थे."

पुलिस ने उनके साथ कैसा बर्ताव किया, इस बारे में पूछने पर इरशाद असहज हो जाता है.

इरशाद ने बताया कि, "पुलिस ने जुनैद से पूछा, तुम्हारी मां विरोध प्रदर्शन में जाती थीं? वह किस तरह का काम करती हैं? वो दोहराते रहे कि हम ही हैं जिन्होंने दंगा किया और उन्होंने हमें मारा.''

इरशाद ने दावा करते हुए बताया कि लड़कों को लाठियों और पाइप से पीटा गया. उसने आगे बताया कि, जब उन्हें जेल ले जाया जा रहा था तो इरशाद ने पुलिस की टिप्पणी पर कुछ पूछा तो वो भड़क गए.

इरशाद कभी पुलिस स्टेशन नहीं गया था, जेल जाना तो दूर की बात है. इरशाद जैसा ही अकील अहमद और रहीश खान का भी मामला है.

55 साल के अकील अहमद चांदबाग के रहने वाला हैं और अपने परिवार में इकलौता कमाने वाले हैं. उनकी गिरफ्तारी और जेल ने उनकी पत्नी और पांच बच्चों को तबाह कर दिया, जिसका असर उनका परिवार आज भी महसूस कर रहा है.

15 साल से ड्राइवरी कर रहे अहमद आमतौर पर अरवन से भजनपुरा तक गाड़ी चलाते थे. 42 वर्षीय उनकी पत्नी जेबुन्निसा याद करते हुए बताती हैं कि 24 फरवरी को उनके दो सबसे छोटे बच्चे- अयान (तब 10 साल) और हिब्सा (तब 7 साल) भजनपुरा के आसपास खो गए थे, जिन्हें वो ढूंढ रहे थे.

इस दौरान उन्होंने एक-दूसरे को कई बार कॉल भी किया था, ये जानने के लिए कि बच्चे मिल तो नहीं गए. पुलिस ने अकील को इसी लोकेशन के आधार पर गिरफ्तार किया था.

"उन्हें उनकी लोकेशन भजनपुरा में मिली. ऐसा इसलिए क्योंकि हम उस इलाके में थे और पास में ही रहते हैं, पुलिस ने मेरे सवालों का जवाब तक नहीं दिया और उन्हें ले गई. ये देखकर मेरी बड़ी बेटी रोने लगी थी."
जेबुन्निसा, अकील अहमद की पत्नी

इरशाद की तरह ही अहमद को भी दो महीने बाद न्यू मुस्तफाबाद इलाके से गिरफ्तार किया गया था. घर का किराया नहीं भर पाने की वजह से अहमद के परिवार को चांदबाग में शिफ्ट होना पड़ा.

उन्होंने आगे कहा, “जब पुलिस उन्हें ले जा रही थी, तो मैंने कहा, 'वह परिवार में इकलौते कमाने वाला हैं, मेरे 5 बच्चे हैं. अगर उन्हें ले जाओगे तो मेरा घर कैसे चलेगा?' इस पर पुलिस ने जवाब दिया, 'तुम्हारे पास बहुत वकील हैं, तुम खुद ही उसे कोर्ट से छुड़ा लो'."

लॉकडाउन की वजह से जेबुन्निसा को थाने तक जाने के लिए ऑटो भी नहीं मिला, ऐसे में वो सूजे पांव के साथ पैदल ही थाने पहुंची.

पुलिस ने क्या कहा?

क्विंट ने 1 सितंबर को दयालपुर पुलिस स्टेशन का भी दौरा किया, जहां इस रिपोर्टर की मुलाकात एक कांस्टेबल से हुई, जिसने एक मामले में इरशाद के खिलाफ गवाही दी थी, जिस पर अभी भी अदालत में मुकदमा चल रहा है.

जब उनसे इस बारे में सवाल किया गया तो वो काफी परेशान हो गया और उसने द क्विंट से कहा, ''कोर्ट आइए.'' हर सवाल पर सिर्फ कोर्ट आने की बात दोहराने के सिवाय वो कुछ और बताने से इनकार कर दिया.

हमने दयालपुर पुलिस स्टेशन के SHO से भी संपर्क किया. लेकिन उन्होंने भी बात करने से मना कर दिया.

पुलिस स्टेशन के एक अधिकारी ने अपनी पहचान उजागर न करने की शर्त पर द क्विंट को बताया, "जिन लोगों ने अपराध किया है, जिनके खिलाफ सबूत थे, उनको गिरफ्तार किया गया था. जिनके खिलाफ कुछ नहीं था, उन्हें छोड़ दिया गया था."

इसके साथ ही उन्होंने कहा, ''कोई भी पुलिसकर्मी आपसे इस बारे में बात नहीं करेगा.''

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अहमद को पहले तीन महीने वही कुर्ता-पायजामा पहना पड़ा जो उन्होंने गिरफ्तारी के दिन पहन रखा था. बाद में जब उनकी पत्नी ने पैसे भेजे तब उन्होंने दूसरे कपड़े खरीदे. इस दौरान उनका हाथ भी टूट गया था, जिसका इलाज 15 दिन बाद हुआ. जिसकी वजह से उन्हें बाएं हाथ की हड्डी ठीक से जुट नहीं पाई है.

रहीश खान को भी इसी तरह एक महीने बाद चांदबाग से उठाया गया था. वह एक प्रिंटिंग प्रेस में काम करते थे और घर जाते समय उन्हें गिरफ्तार किया गया था. उन्होंने द क्विंट को बताया,

“जेल में हालात बहुत खराब थे. पुलिसवाले हमें शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करते थे. मेरी मुस्लिम पहचान की ओर इशारा करते हुए कहते थे, 'दंगा करके आए हो तुम लोग'."

उनपर क्या आरोप लगाए गए थे?

FIR 71/20, जिसमें उन्हें कोर्ट ने दोष मुक्त कर दिया है. इसमें IPC की धारा जैसे- (147-दंगा करने के लिए सजा, 148-घातक हथियार से लैस, 188-लोक सेवक द्वारा आदेश की अवज्ञा, 436-आग, विस्फोटकों द्वारा शरारत) और पीडीपीपी (जनता को नुकसान की रोकथाम) की धाराएं संपत्ति) अधिनियम, 1984 शामिल हैं.

दूसरा मामला FIR 78/20 है, जिसमें अभी मुकदमा चल रहा है. वहीं FIR 108/20 में उन्हें बरी कर दिया गया है, जिसमें मुख्य रूप से गैरकानूनी तरीके से कहीं इकट्ठा होने और चोरी के आरोप लगाए गए थे. चौथा FIR 84/20 है, जिसमें IPC की धारा 302 (हत्या) के आरोप लगाए गए हैं. इस मामले की सुनवाई अभी शुरू नहीं हुई है.

FIR 108 मामले में वकील महमूद प्राचा कहते हैं “ पुलिस आरोपियों के खिलाफ लगाए गए धाराओं और आरोपों को साबित करने में पूरी तरह से विफल रही है.”

वो आगे कहते हैं, “ये बात भी सामने आई है कि आरोपियों को गलत तरीके से फंसाया गया और बिना किसी सबूत के उन्हें गिरफ्तार किया गया. आरोपियों के खिलाफ सनसनीखेज और अतिरंजित आरोप लगाने के लिए स्टॉक गवाहों का इस्तेमाल किया गया."

इरशाद और रहीश खान के वकील सलीम मलिक और शवाना सिद्दीकी के मुताबिक, उनका मानना ​​है कि "प्रथम दृष्टया" इस केस का कोई मतलब नहीं है.

"पुलिस ने आसान रास्ता अख्तियार किया. जिनको आसानी से फंसा सकती है उसको फंसा दिया. जिनको पकड़कर जेल में रखा, उनका नाम दूसरे केस में भी डाल दिया. यह एकतरफा जांच थी."
वकील सलीम मलिक

उन्होंने आगे कहा कि पुलिस ने "चार शिकायतों को एक साथ जोड़ दिया, लेकिन उनके जो गवाह थे वो इन घटनाओं का समय और तारीख भूल गए, जिससे उनकी पोल खुल गई."

वकील शवाना ने कहा कि यह सप्लीमेंट्री चार्जशीट से पुलिस जांच में हुई लापरवाही का खुलासा हुआ. जिन दो मामलों में उन्हें डिस्चार्ज किया गया है, उनमें कई विरोधाभासी बातें थी.

उनमें से एक तो यह था कि पहले पुलिस के चश्मदीदों ने कहा कि घटनाएं 24 फरवरी को हुईं लेकिन बाद में सप्लीमेंट्री चार्जशीट में इसे बदलकर 25 फरवरी को सुबह 9:30 बजे कर दिया गया.

शवाना ने द क्विंट को बताया “पुलिस ने घटना का जो ब्योरा पेश किया था उसका कोई मतलब नहीं निकल रहा था. पुलिस ने इस मामले में उस इलाके की विक्टोरिया स्कूल को नुकसान पहुंचाने की बात कही थी, लेकिन वह एक मुस्लिम व्यक्ति का है. कोई मुसलमान इसे क्यों जलाएगा?”
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वक्त, पैसा- सब बर्बाद

इरशाद, अहमद और खान जेल में बिताए दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि कैसे क्रमशः जेल नंबर 12, 11 और 13 में रातें एक साथी तेजी से और फिर भी धीरे से बदलती थीं.

इरशाद और अहमद कोरोना महामारी की वजह से अपने परिवार से 7-8 महीनों तक नहीं मिल पाए थे. जब इरशाद जेल में था तभी उसके बड़े भाई दानिश की शादी हुई थी.

इरशाद ने कहा, “मुझे सबसे बड़ा अफसोस यह है कि जब मैं जेल में था, मेरे सबसे बड़े भाई की शादी हुई और यह सब देख नहीं पाया. मुझे उसकी शादी के बारे में दो महीने तक बताया नहीं गया क्योंकि मुझे दुख होता.''

जब इरशाद को दानिश की शादी के बारे में पता चला तो वह हैरान रह गया. इरशाद ने जेल से साप्ताहिक पांच मिनट की कॉल के बारे में बताते हुए कहा, “अम्मी कॉल पर रोती थीं. परिवार के लोग सामान्य रहने की कोशिश करते थे, वो बताते थे कि घर में क्या चल रही है."

इस बीच इरशाद की मां रिहाना कहती हैं कि उन्हें दिली की बीमारी है, आयरन की कमी है और लो बीपी की भी शिकायत है, ऐसे में उन्हें जब इराशाद की कोई जानकार नहीं मिलती थी तो वो अपनी तबीयत का भी ध्यान नहीं रख पाती थीं.

रिहाना ने याद करते हुए बताया , ''हमें कोई कॉल नहीं आई और पुलिस ने भी हमें सूचित नहीं किया. तीन-चार महीने बाद, उसने मुझे बताने के लिए जेल से फोन किया. मैं बाथरूम में बेहोश हो गई और मेरे दोनों हाथ टूट गए. कई दिनों तक दोनों बाहों में फ्रैक्चर था."

वकील करने और कोर्ट के चक्कर में उनका बहुत सारा पैसा खर्च हो गया. सही वकील की तलाश में और वकील सलीम मलिक के मिलने तक इरशाद का 25,000 रुपये से ज्यादा खर्च हो चुका था.

जहां तक अहमद की बात है, उसकी कार भी चली गई, जिससे उसके घर-परिवार का खर्चा चलता था. उन्होंने 1.5 साल के लिए 2 लाख रुपये का डाउन पेमेंट किया था लेकिन फिर उन्हें उसी टाइम जेल हो गई, जिसकी वजह से उनकी कार चली गई.

अहमद ने कहा, “मैंने अपनी बेटी की शादी के लिए लगभग 5 लाख रुपये बचाए थे. हम इसकी योजना बना रहे थे. लेकिन मेरे जेल जाने के कारण वह सारा पैसा कोर्ट-कचहरी और घर खर्च में चला गया.”

गुस्से से जेबुन्निसा कहती हैं कि उस दौरान उनपर दोहरी मार पड़ी थी, एक तरफ कोरोना फैला हुआ था, दूसरी तरफ उनके पति को जेल में डाल दिया गया छा. जिसकी वजह उनके लिए बच्चों की देखभाल करना मुश्किल हो गया था.

वो आगे बताते हैं कि, "उस समय हमारी स्थिति बहुत खराब हो गई थी. अगर ऑटोवाला मुझसे 100 रुपए भी मांगता था तो मैं देने से पहले 100 बार सोचती थी."

कोरोना महामारी के दौरान उन्होंने दो महीने फेस मास्क बनाकर अपना घर चलाया. वो रोजाना 100-200 रुपए कमा लेती थीं. हालांकि, उन्होंने एक बार अपनी चचेरी बहन से 1.5 लाख का कर्ज लिया और फिर अपने छोटे भाई से हर महीने 2000-5000 रुपये लेती थीं. फिलहाल उन पर 3.5 लाख रुपये का कर्ज है.

जब उनके पिता को जेल हुई तो उनका सबसे छोटा बेटा अयान पूरी रात बैठकर रोता रहता था. वह जेबुन्निसा से पूछता था, “आप पापा को घर लेकर क्यों नहीं आईं?” उन्होंने अपने बेटे को बता रखा था अहमद यूपी के बदायूं के पास अपने गांव सहसवान गए हुए हैं.

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हालांकि, स्कूल में कुछ बच्चे थे जो अयान को परेशान करते थे और कहते थे कि "तेरा बाप तो जेल में है" और अयान यह सुनकर रोता हुआ घर लौटता था.

जब तक अहमद जेल में रहे वो अपने बच्चों से कभी फोन पर बात नहीं कर पाते थे. हफ्ते में दो मिनट के फोन कॉल में उनकी बात सिर्फ जेबुन्निसा से ही हो पाती थी.

दूसरी ओर, रहीश खान बताते हैं कि वह सप्ताह में एक या दो बार अपने परिवार से मिलते थे, लेकिन जेल के शुरुआती महीनों में बस फोन पर ही बात हो पाती थी. उसके बाद, उन्हें पूरे एक साल तक कॉल करने का मौका नहीं मिला.

वकील शवाना बताती हैं कि खान के अभी जो मौजूदा वकील हैं, उनके मिलने से पहले उनका बहुत पैसा खर्च हो गया था. इस वजह से वो इस बारे में बात नहीं करना चाहते हैं.

इस मामले का एक और नकारात्मक पक्ष यह है कि अब इन लोगों और इनके परिवार में पुलिस को एक डर पैदा हो गया है.

इरशाद की 18 वर्षीय बहन अलीशा ने कहती है कि, "अब, जब भी कोई पुलिसकर्मी किसी काम के लिए इधर आते हैं, तो अम्मा बहुत डर जाती हैं, उन्हें लगता है कि वो फिर से घर में आएंगे, कुछ करेंगे और किसी को उठाकर ले जाएंगे."

इसके अलावा, अगर उनके माता-पिता को किसी विरोध-प्रदर्शन की भनक भी लगती है तो, "वो हमें कॉल करते हैं और वहां जाने से मना करते हैं. वो अभी भी भाई को फोन करके वहां जाने से मना करते हैं. वो इस बात से भी चिंतित हैं कि अब उनके लिए रिश्ता कहां से आएगा.''

अहमद की पत्नी ने कहा, ''मैं अब भी जब पुलिस को देखती हूं तो डर जाती हूं. मैं दोबारा ये सब नहीं झेल सकती, अगर कुछ हुआ तो मैं अपने पूरे परिवार को लेकर अपने गांव चली जाऊंगी.”

रहीश खान ने कहा कि अब उन्हें लगातार डर सताता रहता है कि फिर कहीं कुछ गलत न हो जाए. कुछ महीने पहले जब क्राइम ब्रांच के अधिकारी रूटीन जांच के लिए उनके घर आए थे तब वो घबरा गए थे.

"अगर कोई व्यक्ति घर पर भी सुरक्षित नहीं रह सकता, तो वह कहां जाएगा?"
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दिल्ली पुलिस को कोर्ट की कड़ी फटकार

इन तीन व्यक्तियों के मामलों में, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश पुलस्त्य प्रमाचला ने देखा था कि सप्लीमेंटरी चार्जशीट बदल दी गई और शिकायतों को क्लब करने के लिए IO (जांच अधिकारी) ने गलत और गैरकानूनी कार्रवाई की थी.

  • घटनाओं के समय और तारीख में विरोधाभास के अलावा, अदालत ने कहा कि IO भी "कोई ऐसा सबूत लेकर नहीं आए, जिससे पता चले कि इन गवाहों के बयान सही थे."

  • ना ही यह साबित हो पाया कि ये लोग किस भीड़ (समर्थक या सीएए/एनआरसी विरोधी) का हिस्सा थे.

  • FIR 108/20 के मामले में भी अदालत ने पाया कि अभियोजन पक्ष ने कथित चोरी, आग- बमों के इस्तेमाल के पीछे भीड़ के हिस्से के रूप में आरोपियों की पहचान साबित करने के लिए कोई दूसरा गवाह पेश नहीं किया.

शवाना ने कहा कि उनके पास से कोई हथियार नहीं मिला, न ही कोई सीसीटीवी फुटेज है. आखिरी मामले में, जिसमें हत्या का आरोप है, इसको लेकर उन्होंने कहा,

“अब पुलिस अपना केस बनाने की कोशिश कर रही है. हम एफएसएल (फॉरेंसिक) रिपोर्ट आने का इंतजार कर रहे हैं और फिर हम अगला कदम उठाएंगे."

इरशाद, अहमद और रहीश खा- जो इन मामलों में आरोपी होने से पहले एक-दूसरे को नहीं जानते थे, अब अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए कानूनी लड़ाई में एक साथ हैं.

घर पर 90 वर्षीय इरशाद की दादी, करीब से बैठी अपने परिवार की बातें सुन रही थीं. पहले तो उनकी आवाज काफी धीमी थी, लेकिन फिर बहुत साफ-साफ कुछ यूं कहा.

“मैं जीवन भर यहीं रही हूं. मैंने यहां कभी ऐसा दंगा-हिंसा नहीं देखी था. हिंदू और मुस्लिम यहां पर हमेशा से साथ रहते आए हैं."

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