कमजोर हो रहा है लोकतंत्र
इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह लिखती हैं कि नरेंद्र मोदी (PM Nareendra Modi) ने भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक मे दोहराया है कि परिवारवाद की लोकतंत्र में जगह नहीं होनी चाहिए. यह सही है. उन्होंने अपनी जगह अपने दम पर राजनीति में बनायी है. 2014 में उनके मुकाबले सोनिया गांधी और राहुल गांधी थे जबकि 2019 में प्रियंका भी जुड़ गयीं. प्रियंका ने अपनी सभाओं में इदिरा गांधी को बारंबार याद किया लेकिन युवा पहले ही इंदिरा को भुला चुके थे. लिहाजा फर्क नहीं पड़ा.
तवलीन सिंह परिवारवाद के उदाहरणों में एक से बातचीत के आधार पर लिखती हैं कि विरासत की सियासत करने वाले पैसे बनाने के लिए राजनीति में आते हैं. कम समय में ही विलासिता की जिन्दगी जीने लग जाते हैं. मगर, लेखिका नरेंद्र मोदी को याद दिलाती हैं कि लोकतंत्र सिर्फ परिवारवाद से कमजोर नहीं होता. यह कमजोर तब होता है जब आतंकियों के लिए बनाए गये कानूनों के आधार पर पत्रकारों को गिरफ्तार किया जाता है. राष्ट्रद्रोह कानून के आधे से ज्यादा मामले 2014 के बाद इस्तेमाल हुए हैं.
मोहम्मद जुबैर का उदाहरण नया है. मोहम्मद खालिद एक साल से जेल में बंद है. दंगाई कहकर मकान तोड़ा जाना भी लोकतंत्र पर चोट की तरह है. इसलिए, परिवारवाद से इतर उन चीजों की ओर प्रधानमंत्री को ध्यान देना चाहिए जिससे देश के लोकतंत्र को चोट पड़ रही है.
घर में दुबका है मध्यम वर्ग
पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि वर्ग के तौर पर देश में मध्यम वर्ग नजर नहीं आ रहा है. अंग्रेजों के जमाने में पाश्चात्य शिक्षा पद्धति से जुड़कर शिक्षित मध्यवर्ग का जन्म हुआ था. शिक्षकों, चिकित्सकों, वकीलों, जजों, सरकारी व सैन्य अधिकारियों, पत्रकारों और लेखकों का प्रबुद्ध वर्ग उभरा था. किसानों और आद्योगिक कामगारों के साथ आंदोलन ने ऐसा रूप लिया कि उसे रोका नहीं जा सका. चंपारण सत्याग्रह, जलियांवाला बाग कत्लेआम, पूर्ण स्वराज प्रस्ताव, दांडी मार्च, भगत सिंह, राजगुरु औरसुखदेव को फांसी, भारत छोड़ो आंदोलन और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व वाली इंडियन नेशनल आर्मी ने लोगों में जोश भर दिया था.
चिदंबरम लिखते हैं कि आज यह मध्यवर्ग कहीं गायब है. बेतहाशा बढ़ती कीमतें, करबोझ, भारी बेरोजगारी, पलायन, कोविड सेलाखों मौत, मानवाधिकारों का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन, कोविड से लाखों की मौत, नफरती बाषा, फर्जी खबरें, मुस्लिम-ईसाइयों का बहिष्कार, संविधान का उल्लंघन, दमनकारी कानून, संस्थाओँ को खत्म करने, चुनावी जनादेश को पलट देने, चीन-सीमा विवाद जैसे मुद्दे मध्य वर्ग को विचलित नहीं कर रहे हैं.
लेखक याद दिलाते हैं कि महाराष्ट्र में स्पीकर का चुनाव 17 महीने से राज्यपाल ने रोक रखा था कि खुले मतदान के जरिए स्पीकर के चुनाव का मुद्दा अदालत में है. फिर जरूरत के हिसाब से अपना रुख बदल लेते हैं और स्पीकर का चुनाव हो जाता है. कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं होती. जीएसटी परिषद की सैंतालीसवीं बैठक में भारी जीएसटी थोप दी गयीहै लेकिन कहीं से कोई विरोध नहीं है. लेखक याद दिलाते हैं कि किसानों ने लड़ाई लड़ी, सेना के जवान बनने की इच्छा रखने वाले नौजवान संघर्ष कर रहे हैं, कुछ पत्रकार, वकील और कार्यकर्ता भी संघर्षरत हैं. मगर, मध्यवर्ग खामोश है.
विडंबनाओं के बीच परिवहन क्षेत्र
टीएन नाइनन ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखा है कि भारत के परिवहन क्षेत्र में ठहराव है लेकिन निवेश असाधारण है. इस विरोधाभाष के बावजूद अगले दो-तीन वर्षों में हवाई सफर, राजमार्ग या एक्सप्रेसवे और रेलवे परिवहन में जबरदस्त बदलाव देखने को मिल सकता है.
भारतीय विमानन कंपनियां पैसे कमा नहीं पा रही है. फिर भी विमानों के ऑर्डर दिए जा रहे हैं. आकाश ने 72 विमानों का ऑर्डर दिया है तो इंडिगो ने 700 विमानों के ऑर्डर दिए हैं. एयर इंडिया 300 विमानों का ऑर्डर देने जा रहा है. वर्तमान में 665 विमानों का बेड़ा दोगुने का होने जा रहा हैऐसे में किराए बढ़ सकते हैं. अगर तेल की ऊंची कीमतें बनी रहीं तो विमानन कंपनियां घाटे के कारण बंद भी हो सकती हैं.
नाइनन लिखते हैं कि रेलवे में होने वाला निवेश भी अभूतपूर्व है. रेलवे में हर साल जीडीपी का एक प्रतिशत तक निवेश हो रहा है. अब ट्रेनें सेमी हाई स्पीड की जा रही हैं. डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर में निर्माण गति कम होने से बदलाव की गति धीमी है. तेज गति की ट्रेनों पर आरामदेह यात्रा की शुरुआत होने से इसका असर छोटी दूरी के उड़ान मार्गों पर प्रतिस्पर्धा के रूप में भी देखने को मिल सकता है. विडंबना यह है कि यह सब तब हो रहा है जब यात्रियों की तादाद में ठहराव है. सड़कों और राजमार्गों में सालाना निवेश रेलवे की तुलना में आधी है. एक्सप्रेसवे का निर्माण तेज हुआ है और बंदरगाहों को सड़क मार्ग से जोड़ने काकाम तेजी से चल रहा है.
सियासत में ऊंचाई तक पहुंचकर फिसले आरसीपी
अदिति फडणीस ने बिजनेस स्टैंडर्ड में आरसीपी सिंह के बहाने नीतीश की सियासत को सामने रखा है. राज्यसभा में आरसीपी का कार्यकाल खत्म हो गया. वे दोबारा राज्यसभा नहीं भेजे गये. आखिरकार मोदी मंत्रिपरिषद से भी त्यागपत्र देकर उन्हें बाहर होना पड़ा. बीजेपी में वे शामिल नहीं हुए. इस तरह नौकरशाह से ताकतवर राजनीतिज्ञ बनने वाले आरसीपी राजनीति की मुख्य धारा से बाहर होते दिख रहे हैं.
अदिति फडणीस लिखती हैं कि जब नीतीश के छोटे-छोटे सुधारों के बड़े असर के बाद का दौर आया तो तब आरसीपी सिंह का उदय हुआ. 2010 में अफसरशाही छोड़कर वे राजनीति में आए. 2005 से वे राज्य में मुख्य सचिव थे. 2010 में राज्यसभा पहुंच चुके थे. राजनीतिक लोगों से भी उनकी करीबी बढ़ी खासकर बीजेपी से. प्रशांत किशोर ने जेडीयू से बाहर निकलने के बाद खुलकर कहा था कि अमित शाह की ओर से अनुशंसित व्यक्ति की बात नीतीश ना सुनें.
आरसीपी जेडीयू अध्यक्ष भी हुए और केंद्रीय मंत्री भी बने. मगर, उतनी ही क्रूरता के साथ उन्हें बाहर कर दिया गया है. उन्हें आवंटित सरकारी आवास तक किसी और को आवंटित किया जा चुका है.
प्रतीकात्मक सड़कें
मुकुल केसवान ने टेलीग्राफ में दिल्ली की सड़कों के नामकरण पर रोशनी डाली है. औरंगजेब रोड का नाम एपीजे अब्दुल कलाम रोड किया जा चुका है लेकिन औरंगजेब लेन का अस्तित्व बरकरार है. एक सड़क औपनिवेशिक काल की याद दिलाती है बाकी सारी सड़कें मुगल शासकों की याद में हैं. लटियन्स और बेकर ने मुगलकालीन स्मारकों- हुमायूं का मकबरा, लालकिला, जामा मस्जिद, सफदरजंग का मकबरा- के लिए लाल रंग और बलुआ पत्थर का इस्तेमाल किया है. मिठाई की दुकानों के लिए मशहूर बाबर रोड है तो हुमायूं रोड मॉडर्न स्कूल और खान मार्केट को जोड़ता है. शाहजहां रोड पर यूपीएससी की बिल्डिंग है जहां मशहूर पापड़ी चाट मिलती है. शाहजहां रोड पर पारसियों की कब्रिस्तान है जो आगे पृथ्वीराज रोड में बदल जाती है.
मुकुल केसवान लिखते हैं कि अकबर और शाहजहां के बीच जहांगीर दबकर रह गये हैं जिनके नाम पर कोई रोड नहीं है. सांत्वना के तौर पर मिन्टो रोड से हटकर नूरजहां रोड जरूर है. एक इतिहासकार ने पूछने पर बताया कि जहांगीर ने दिल्ली के बजाए लाहौर से शासन किया था शायद इसलिए ऐसा है.
बहादुर शाह जफर के नाम पर सड़क का नामकरण उनकी मौत के सौ साल बाद 1962 में हुआ जब दिल्ली गेट पर उनके बेटों को मार डाले जाने की सौवीं वर्षगांठ मनायी गयी थी. इस सड़क पर इंडियन एक्सप्रेस और टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे मशहूर अखबार हैं.
उपन्यासकार अमीष त्रिपाठी बताते हैं कि मुगल विदेशी थे. यह हिन्दू बनाम मुसलमान का मामला नहीं था. यह भारतीय बनाम विदेशी का मुद्दा है. नागरिकता कानून को भी वे इसी नजरिए से देखते हैं. इतिहासकार नारयणी गुप्ता बताती हैं कि दिल्ली की सड़कें औपनिवेशिक प्रयोग हैं. इससे पहले स्थान का नाम हुआ करती थीं. सड़कों के नाम पहली बार इस रूप में रखे गये हैं. मथुरा रोड या अजमेर रोड दिशा बताने के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं. 60 और 70 के दशक में वेल्सले रोड, जाकिर हुसैन रोड, सुब्रमण्य भारती मार्ग, कर्जन की जगह कस्तूरबा गांधी मार्ग, किंग्सवे की जगह राजपथ और क्वीन्सवे की जगह जनपथ मार्ग का पुन: नामकरण हुआ. लिट्टन रोड का नाम कोपरनिकस मार्ग हुआ.
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