एक लड़की जिसने सपना देखा और उस सपने को साकार करने के लिए पूरी मेहनत से लग गई. पिता की असमय मृत्यु ने उसे कूड़ा बीनने पर मजबूर कर दिया. लेकिन, वो पीछे नहीं हटी. अपना बचपन स्लम में गुजारा और अब स्लम में गुजारा कर रहे बच्चों का सहारा बन गई है. जी, हां हम बात कर रहे हैं वॉइस ऑफ स्लम्स NGO की संस्थापक चांदनी की.
चांदनी का NGO 'वॉइस ऑफ स्लम्स' स्लम के बच्चों की पढ़ाई में मदद करता है. खुद स्लम में रह चुकीं चांदनी स्लम के बच्चों की जिंदगी बदलना चाहती हैं. 10 साल की उम्र में चांदनी ने एक NGO में काम किया, बाल अधिकारों के बारे में सीखा. चांदनी जिस स्लम में रहती थीं, वहीं के बच्चों के लिए काम किया.
एक NGO के साथ 8 साल काम करके चांदनी को पहचान मिली, लेकिन जैसे ही चांदनी की उम्र 18 साल की हुई, NGO ने उन्हें आगे काम करने की इजाजत नहीं दी.
बता दें, चांदनी हमेशा से स्लम में नहीं रहती थीं. वो अपने पिता के साथ सड़कों पर खेल-तमाशा करती थीं. पिता की असमय मृत्यु के बाद चांदनी को कूड़ा बीनने का काम करना पड़ा, ताकि अपनी मां और दो छोटी बहनों की देखभाल कर सकें.
चांदनी ने एक सपना देखा और उसी सपने का आधार बना 'वॉइस ऑफ स्लम्स' NGO की शुरुआत. इस NGO को शुरू करने का मकसद स्लम के बच्चों को स्लम से बाहर निकालना था.
वॉयस ऑफ स्लम्स ने कई बच्चों के बचपन को संवारा. इन्हीं में से एक शमा हैं, जो दसवीं की छात्रा हैं. जब क्विंट ने उनसे पूछा की वो आगे चलकर क्या बनना चाहती हैं तो उन्होंने बताया कि वो कंप्यूटर की उस्ताद बनना चाहती हैं.
ऐसी ही पलक भी वॉयस ऑफ सलम्स की स्टूडेंट हैं. वो IAS अफसर बनना चाहती है. उनका कहना है कि वो IAS अफसर बनकर स्लम में रहने वाले बच्चों की मदद करना चाहती हैं.
कुछ ऐसी ही कहानी 'वॉइस ऑफ स्लम्स' के सह संस्थापक देव प्रताप की भी है. देव प्रताप 11 साल की उम्र में घर से भाग गए थे. तीन साल एक रेलवे स्टेशन पर रहे, वेटर और सेल्स बॉय का काम करके उन्होंने गुजारा किया.
'वॉइस ऑफ स्लम्स' से मदद पा चुके कई और बच्चों ने क्विंट को अपनी कहानियां सुनाई. इन्हीं में से एक पलक हैं. पलक नवीं की छात्रा हैं. वो IAS अफसर बनना चाहती हैं. उन्होंने बताया कि “ जब मेरे पिता की मौत कोरोना से हो गई तो हम स्कूल की फीस नहीं दे पा रहे थे. तब हमारी प्रिसिंपल और टीचर ने 'वॉइस ऑफ स्लम्स' के बारे में बताया और हम यहां आए. ये संस्था हमारी मदद कर रही है.”
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