33 साल के सनोज कुमार यादव मशीन से गिर गए और उनकी पसली टूट गई.
36 साल के गुरप्रीत सिंह की एक उंगली मशीन चलाते समय कट गई.
47 साल के सुभाष कुमार को छह दिन तक बिना खाना-पानी के एक अस्तबल में कैद करके रखा गया.
14 दिसंबर 2022 से करीब दो महीनों तक 12 भारतीय कामगारों के एक जत्थे ने लीबिया में इस तरह के हालात का सामना किया– इन्हें वहां धोखे से कामगार के तौर पर भेजा गया था.
गुरप्रीत बताते हैं-
वहां जब हम उन भयानक हालात से गुजर रहे थे, तो हमें लगा था कि हम वहीं मर जाएंगे और कभी घर नहीं लौट पाएंगे.
हालांकि ये लोग एक सूडानी नागरिक, पंजाब के एक पत्रकार, दुबई में रहने वाली एक भारतीय महिला, जो लीबिया में एक स्कूल चलाती है, पंजाब के एक बीजेपी जिला प्रमुख और विदेश मंत्रालय की मदद से 10 फरवरी और 2 मार्च को घर वापस पहुंच गए.
यह कहानी है किस तरह कामगारों को लीबिया में नौकरी का झांसा दिया गया, कैसे वे विदेशी धरती पर कठिन हालात में रहे, और कैसे बचे.
12 भारतीय कामगार लीबिया पहुंचे कैसे?
पंजाब के मोगा निवासी 47 वर्षीय जोगिंदर सिंह चार दोस्तों के साथ 5 जनवरी को दिल्ली होते हुए दुबई पहुंचे. उन्हें बताया गया था कि, उन्हें दुबई में अल-शेरी नाम की एक सीमेंट फैक्ट्री में मशीन चलानी है, और उन्हें 600 डॉलर यानी 50,000 रुपये महीने की तनख्वाह मिलेगी. फोन पर हुई बातचीत में जोगिंदर ने बताया-
मैंने राजविंदर सिंह के साथ नौ साल तक दिल्ली में काम किया था. उसने मुझे और दूसरे लोगों को दुबई में काम का ऑफर दिया था. उसने अच्छी तनख्वाह और खाने और रहने के ठिकाने का वादा किया.
यह नौकरी मोगा में जोगिंदर के परिवार को बेहतर जिंदगी जीने में मदद करने वाली थी.
इस “आकर्षक” नौकरी को हासिल करने के लिए उन्हें और दूसरे लोगों को सिर्फ एयर टिकट और वीजा का पैसा देना था.
मैंने इसके लिए 1.5 लाख रुपये का भुगतान किया. मैंने जो काम किया उसके लिए एक भी रुपया कमाए बगैर यह सारा पैसा खर्च कर मैं वापस आ गया हूं. मैंने वहां बहुत तकलीफें झेलीं…
ये लोग– जिन्हें दुबई में नौकरी का वादा किया गया था– कैसे लीबिया पहुंचे?
चूंकि, जोगिंदर पहले दुबई में काम कर चुके थे, इसलिए 6 जनवरी को खाड़ी देश के इस शहर पहुंचने तक उन्हें शक नहीं हुआ.
जोगिंदर बताते हैं, “हमें दुबई में एक कंपनी की इमारत में रखा गया था और हमारे ठिकाने के बारे में किसी को नहीं बताने के लिए कहा गया था. मुझे लगा कि कुछ गड़बड़ है.”
उनकी ही तरह पंजाब के नवांशहर के रहने वाले सुभाष कुमार ने भी करीब 25 साल तक सऊदी अरब, कतर और अबू धाबी में मैकेनिक के तौर पर काम किया था. उन्हें भी शुरू में इस ऑफर पर शक नहीं हुआ. सुभाष द क्विंट को बताते हैं-
लेकिन जब हम दुबई पहुंचे, तो हमें दो-तीन महीने के लिए लीबिया में काम करने या भारत लौट जाने के लिए कहा गया.सुभाष
36 वर्षीय गुरप्रीत सिंह के लिए पंजाब के कपूरथला में अपने घर लौट जाना कोई मतलब नहीं था. 750 डॉलर यानी 61,000 रुपये महीना तनख्वाह पर ड्राइवर की नौकरी के वादे के साथ दुबई बुलाए गए गुरप्रीत बताते हैं-
मैं पहले ही एयर टिकट पर इतना पैसा खर्च कर चुका था कि खाली हाथ वापस लौटना बेकार था... मुझे नहीं पता था कि लीबिया किस तरह का देश है या वहां कैसे हालात हमारा इंतजार कर रहे हैं. राजविंदर नाम के जिस शख्स ने हमें नौकरी की पेशकश की थी, उसने वादा किया था कि काम के बाद मुझे किसी भी खाड़ी देश में गाड़ी चलाने का स्थायी लाइसेंस और लंबी अवधि का वर्क वीजा मिलेगा.गुरप्रीत
राजविंदर को 6 फरवरी को पंजाब पुलिस ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 420 (धोखाधड़ी) के तहत गिरफ्तार कर लिया और फिलहाल वह रोपड़ जेल में बंद है.
लीबिया में खाली मैदान में ‘हवाई पट्टी’
जोगिंदर, सुभाष और गुरप्रीत बताते हैं कि कुछ दिनों बाद जब वे लीबिया पहुंचे तो उनका सबसे बुरा डर सच हो गया.
ऐसा लग रहा था जैसे किसी खाली खेत में प्लेन उतार दिया था, जमीन एकदम उजाड़ थी.गुरप्रीत
गुरप्रीत ने यह भी बताया कि जैसे ही वे प्लेन से उतरे, एक एजेंट (जो जाहिर तौर पर लीबिया के ठेकेदार के लिए काम कर रहा था और बाद में जिसके लिए उन्होंने काम किया) आया और उनसे मिला और उनके पासपोर्ट और दूसरे पहचान पत्र ले लिए.
कोई इमिग्रेशन प्रोसेस नहीं हुई, किसी ने हमारे पासपोर्ट पर मुहर नहीं लगाई और कोई रुटीन जांच नहीं हुई.सुभाष
सुभाष ने बताया कि कामगारों को बेनगाजी में लीबिया सीमेंट कंपनी (LCC) की एक फैक्ट्री में ले जाया गया. उन्होंने बताया कि फैक्टरी के रास्ते में उन्हें “फायरिंग” की आवाज सुनी. उन्होंने बताया कि सीमेंट फैक्ट्री के ठीक पीछे मजदूरों के क्वार्टर थे.
क्वार्टर में खाना, कपड़े, गद्दे कुछ नहीं था
कामगारों को अभी तक काम या काम के घंटों के बारे में कुछ नहीं बताया गया था, लेकिन रहने के हालात बहुत खराब थे. जोगिंदर बताते हैं-
शुरू में हमें एक वर्कशॉप में रखा गया. हमारे पास न खाना था, न पैसा, न कपड़े, और बहुत ठंड थी. कोई बिस्तर या गद्दा भी नहीं था… मैंने सोचा कि नई जगह है, बाद में आदत पड़ जाएगी.
क्विंट हिंदी ने जिन दूसरे लोगों से बात की, उन्होंने भी यही बताया कि क्वार्टर “गंदे, खस्ताहाल और सुविधाहीन थे”. शुरुआती दिनों में कामगारों ने क्वार्टर में रहने वाले दूसरे भारतीयों से मदद मांगी.
गुरप्रीत बताते हैं, “एक दिन, मैंने एक कमजोर से दुबले-पतले आदमी को अकेला बैठकर रोते देखा. मैंने उससे पूछा कि क्या हुआ तो उसने बताया कि उत्तर प्रदेश में उसकी मां गुजर गई हैं, लेकिन ठेकेदार उसका पासपोर्ट नहीं लौटा रहा है. तभी मेरे मन में ख्याल आया– मैं कभी वापस नहीं लौट पाउंगा.
रोजाना 16 घंटे काम किया, सिर्फ 2500 रुपये महीना दिया
गुरप्रीत बताते हैं कि करीब दो महीने तक, वह सीमेंट फैक्ट्री में रोजाना 60 टन रेत भरकर कम से कम 16 घंटे ट्रक चलाते थे. इसके एवज में उन्हें एक महीने के 150 लीबियाई दीनार या करीब 2,500 रुपये दिए गए.
मैं बमुश्किल बर्तन और खाना खरीद पाया, जो केवल 12 दिन तक चला. यह वह नहीं था जिसका उनसे वादा किया गया था.गुरप्रीत
जोगिंदर का काम मशीन चलाना था. वह बताते हैं कि मशीन चलाने के लिए उन्हें यूनिफॉर्म, सेफ्टी शूज, दस्ताने या आईग्लासेज कुछ भी नहीं दिया गया.
सुभाष ने द क्विंट को बताया-
मैंने मिडिल ईस्ट में काफी समय तक काम किया है और जानता हूं कि सेफ्टी रूल्स काफी सख्त हैं, लेकिन यहां, हमें कोई सुरक्षा उपकरण नहीं दिया गया. यहां तक कि बिहार का रहने वाला एक शख्स (सनोज यादव) एक मशीन से गिर गया और उसकी पसली टूट गई.
सीमेंट फैक्ट्री में मशीन चलाते समय गुरप्रीत की भी उंगली कट गई. वह उस हादसे को याद करते हुए बताते हैं, “उन्होंने घाव को सिर्फ पानी से साफ किया और उस पर पट्टी बांध दी. घाव पर न तो कोई दवा लगाई और न ही कोई पेन किलर दिया.”
मैं दर्द से कराह रहा था. मैंने एकदम से उम्मीद खो दी थी कि हम कभी वापस लौट पाएंगे. दिल ही खत्म हो गया था.गुरप्रीत
उन्होंने बताया कि आखिरकार एक भारतीय डॉक्टर ने आगे बढ़कर उनकी मदद की. वह आगे बताते हैं कि, वहां फंसे 12 लोगों में से दो ने खुदकुशी की भी कोशिश की थी.
'हमें 3,000 डॉलर में खरीदा गया था'
सुभाष ने बताया, “हमारे पास हमारे पासपोर्ट या वीजा नहीं थे. हमारे पास कोई हेल्थ कार्ड नहीं था... सनोज यादव की पसली में फ्रैक्चर होने के कुछ दिनों बाद वह दर्द बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे तो हम उनको एक प्राइवेट क्लीनिक में ले गए.”
सुभाष लीबिया में बोली जाने वाली स्थानीय भाषा समझते हैं. उन्होंने बदहाल हालात के बारे में ठेकेदार से सवाल किया. सुभाष बताते हैं-
मुझे छह दिन तक बिना खाना-पानी के अस्तबल में कैद कर दिया गया. शुक्र है कि गार्ड बांग्लादेशी नागरिक था और चोरी-छिपे मुझे दिन में एक बार कुछ चावल देता था.सुभाष
वह यह भी बताते हैं कि सवाल करने पर कई दूसरे लोगों की तरह वहां उन्हें भी पीटा गया और प्रताड़ित किया गया. जब उन्होंने अपने ठेकेदार से सवाल किया तो एक चौंकाने वाला सच सामने आया.
जोगिंदर उस दिन को याद करते हुए कहते हैं, “हमारे पांव तले जमीन खिसक गई.”
कामगारों को पता चला था कि उन्हें कथित तौर पर राजविंदर ने ठेकेदार को 3,000 डॉलर या करीब 2.5 लाख रुपये में “बेचा” था. सुभाष ने बताया कि जब कामगारों ने ठेकेदार से अपने पासपोर्ट वापस मांगे ताकि वे भारत लौट सकें, तो उसने कहा कि उन्हें बेनगाजी में कम से कम तीन साल काम करना होगा, क्योंकि उसने उनमें से हर एक के लिए “भुगतान” किया है.
जोगिंदर याद करते हुए कहा कि “लीबिया में एक महीना और पांच दिन 10 साल की कैद के बराबर थे.”
वह बताते हैं कि जब उन लोगों ने “विरोध” किया तो कुछ लोगों को बुलाया गया जो सैनिक जैसे लगते थे.
उन्होंने हमें कमरे में बंद कर हमारी पिटाई की. हम डर गए थे... हम राजविंदर को बार-बार कॉल कर रहे.जोगिंदर
जल्द ही उन्हें समझ में आ गया कि राजविंदर के साथ उनकी बातचीत लीबिया फैक्ट्री के ठेकेदार तक पहुंच जा रही थी, जिसने बाद में उन्हें सजा दी और उन्हें और ज्यादा प्रताड़ित किया.
हम या तो मारे जाएं या विरोध करें और जिंदा रहें
यह लड़ाई लड़ने का समय था. जोगिंदर ने द क्विंट को बताया,
हमने फैसला किया कि अगर हमें जिंदा रहना है, तो हमें लड़ना होगा.
तभी इन लोगों ने लीबिया में अपने हालात का एक वीडियो बनाया, एक सूडानी नागरिक से इंटरनेट लिया और इसे पंजाब के एक पत्रकार जगदीप सिंह थाली को भेज दिया. यह वायरल हो गया, और जल्द ही पंजाब के सरकारी अधिकारियों तक पहुंच गया.
सुभाष ने बताया कि इस वीडियो को ठेकेदार के साथियों ने कामगारों के भारत लौटने से पहले डिलीट करा दिया था. क्विंट हिंदी ने ये वीडियो नहीं देखा है.
पंजाब में रोपड़ के बीजेपी के जिला सचिव अनमोल जोशी ने द क्विंट को बताया-
पत्रकारों ने रोपड़ में स्थानीय अधिकारियों के सामने इस मामले को उठाया, जिन्होंने आगे इस मुद्दे को रोपड़ के बीजेपी जिला अध्यक्ष अजयवीर सिंह लालपुरा के सामने रखा. अजयवीर ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष इकबाल सिंह लालपुरा, जो उनके पिता हैं, के सामने इस मुद्दे को रखा.
जोशी ने कहा कि इकबाल सिंह ने इस मुद्दे को विदेश मंत्रालय तक पहुंचाया.
जोशी बताते हैं कि चूंकि लीबिया में भारत का दूतावास नहीं है, इसलिए ट्यूनीशियाई दूतावास से संपर्क किया गया और दुबई में तबस्सुम नाम की एक महिला, जो लीबिया में एक NGO चलाती हैं, को हालात के बारे में बताया गया.
जोशी ने क्विंट हिंदी को बताया, ‘तबस्सुम मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ की रहने वाली हैं और उनकी शादी एक पाकिस्तानी शख्स से हुई है. वह लीबिया में एक NGO और एक स्कूल चलाती हैं. 4 फरवरी को उन्होंने उस क्वार्टर का दौरा किया, जिसमें भारतीय कामगारों को रखा गया था, और उन्हें खाना और मेडिकल सामग्री दी. फिर उन्होंने उनके लीबिया से बाहर निकलने का इंतजाम किया और ठेकेदार के कब्जे से उनके पासपोर्ट हासिल किए.
रेस्क्यू अभियान में मदद करने वाले एक शख्स ने क्विंट हिंदी को बताया कि भारतीय विदेश मंत्रालय ने 12 लोगों की रिहाई के लिए दबाव बनाया.
कामगार दो बैच में मिस्र के काहिरा और फिर मुंबई लौटे, उनमें से चार 9 फरवरी को लौटे, और बाकी आठ 2 मार्च को.
गुरप्रीत परिवार से दोबारा मिलने पर फूट-फूट कर रोए
करीब दो महीने की तकलीफ झेलने के बाद गुरप्रीत इसी साल 12 फरवरी को अपनी पत्नी और दो बच्चों के पास पंजाब वापस पहुंच गए. वह बताते हैं, 'सबसे पहले स्वर्ण मंदिर जाकर सेवा की.'
उन्होंने अगले ही दिन कपूरथला के एक गुरुद्वारे में सेवा करके काम शुरू कर दिया, जहां उनके परिवार के खेत हैं और गेहूं उगाया जाता है.
यह पूछने पर कि ठेकेदार ने उन्हें कुछ पैसा दिया या नहीं, वह कहते हैं, 'जान बच गई, यही काफी है.'
सुभाष कहते हैं, 'जब हम भारत की जमीन पर उतरे, तो हम फूट-फूट कर रो रहे थे. हमने कभी नहीं सोचा था कि अपनी जमीन को छू पाएंगे.' पांच लोगों के परिवार में वह इकलौते कमाने वाले हैं.
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