हितों का टकराव क्या है?
- परिभाषा 1: भरोसे वाले पद पर बैठे शख्स की आधिकारिक जिम्मेदारी और निजी हितों के बीच टकराव [ मेरियम-वेबस्टर डिक्शनरी]
- परिभाषा 2: जब कोई व्यक्ति या कंपनी (सरकारी या प्राइवेट) अपने पद का इस्तेमाल करके खुद को या कंपनी को किसी भी तरह से फायदा पहुंचाता है.” [OECD]
नौ जून 2016 को प्रशांत नारायण सुकुल को डिफेंस अकाउंट का एडिशनल कंट्रोलर जनरल नियुक्त किया गया. जाहिर है ये नियुक्ति चर्चा में नहीं आई क्योंकि ये रक्षा मंत्रालय का रुटीन मामला था, जो कि रक्षा सौदों के पेमेंट और ऑडिटिंग की जिम्मेदारियों से जुड़ा था.
इसके बाद 1 फरवरी 2018 को प्रशांत की पत्नी मधुलिका सुकुल को कंट्रोलर जनरल ऑफ डिफेंस अकाउंट (CGDA) बनाया गया तो भी ये नियुक्ति रूटीन ही लगी. पति-पत्नी दोनों 1982 से इंडियन डिफेंस अकाउंट सर्विस में काम करते आ रहे थे.
इसलिए ये बात सामने लाने की वजह नजर नहीं आई कि पति और पत्नी दोनों एक ही विभाग के दो सबसे वरिष्ठ पदों पर बैठे हैं. प्रशांत की मुख्य जिम्मेदारियों में एयरफोर्स भी शामिल थी और इसमें किसी ने ऐतराज नहीं जताया क्योंकि वो कई बार सिविल एविएशन और एयरफोर्स में काम कर चुके थे. इसके अलावा 31 अगस्त, 2018 को फाइनेशल एडवाइजर (डिफेंस सर्विसेज) के तौर पर मधुलिका सुकुल की नियुक्ति भी किसी को अजीब नहीं लगी.
लेकिन रक्षा मंत्रालय में इन तमाम रुटीन गतिविधियों के बीच कुछ ऐसा भी था जो नहीं होना चाहिए था.
करीब एक दशक पहले प्रशांत के छोटे भाई शांतनु सुकुल नेवी से रिटायर होकर डिफेंस सेक्टर में लॉबिस्ट बन चुके थे और साल 2015 से अनिल अंबानी के रिलायंस डिफेंस ग्रुप में काम कर रहे थे.
द क्विंट और ब्रूट इंडिया की जांच में पता चला कि रक्षा मंत्रालय के इन दो सीनियर अधिकारियों और रिलायंस की डिफेंस कंपनियों के कंस्लटेंट/कर्मचारी के रिश्तों से संभावित हितों का ऐसा टकराव पैदा होता है, जो चौंकाने वाला है. खास कर राफेल डील के ऑफसेट कांट्रेक्ट के मामले में.
प्रशांत सुकुल ने हितों के टकराव पैदा होने के दावे का विरोध किया है ( उनका पूरा जवाब इस आर्टिकल के अंत में छापा गया है). उनका कहना है कि हितों के टकराव को रोकने के लिए हाल में ऐसे कदम उठाए गए थे जिनसे भविष्य में इनके होने की संभावना खत्म हो गई थी. लेकिन उनकी दलीलों पर गौर करने के बाद भी कई सवाल ऐसे हैं, जिनके जवाब मिलने बाकी हैं.
कैसे पैदा हो रही थी इस रिश्ते से हितों के टकराव की संभावना?
CGDA और फाइनेंशियल एडवाइजर (डिफेंस सर्विसेज)
प्रशांत और मधुलिका सुकल CGDA दफ्तर में सीनियर पदों पर हैं और CGDA डिफेंस अकाउंट्स डिपार्टमेंट (DAD) को हेड करता है. DAD ही सेना से जुड़े सभी मामलों के ऑडिट, पेमेंट और अकाउंटिंग के लिए जिम्मेदार है.
DAD फाइेंशियल एडवाइजर (डिफेंस सर्विसेज) के प्रशासकीय नियंत्रण में काम करता है. यह काफी अहम विभाग है जिसमें रक्षा मंत्रालय के लक्ष्य और मकसद से जुड़े वित्तीय कामकाज होते हैं. जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, मधुलिका सुकुल न सिर्फ CGDA हैं बल्कि वह फाइनेंशियल एडवाइजर (डिफेंस सर्विसेज) भी हैं.
अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस कंपनियां
मधुलिका सुकुल और उनके पति प्रशांत सुकुल के पदों से हितों के टकराव की संभावना की वजह है शांतनु सुकुल का रिलायंस से जुड़ाव. अनिल अंबानी की डिफेंस में एंट्री कमोबेश 2015 की शुरुआत में हुई. और उसके बाद से ही उनकी कंपनियां सरकारी डिफेंस कांट्रेक्ट लेने की कोशिश कर रही हैं.
इनमें निसंदेह सबसे खास है राफेल डील. रिलायंस इस डील से जुड़ी ऑफसेट शर्तों को पूरा करने के लिए कांट्रेक्ट हासिल करने की कोशिश कर रहा है. इसके लिए रिलायंस एरोस्ट्रक्चर लिमिटेड ने दसॉ से ज्वाइंट वेंचर कर लिया है और इसके तहत बनी कंपनी का नाम है दसॉ रिलायंस एयरोस्पेस लिमिटेड.
शांतनु सुकुल और रिलायंस
शांतनु सुकुल 2006 में नेवी से रिटायर हो गए और इसके बाद से वो डिफेंस सेक्टर में काम करने वाली कंपनियों के सलाहाकार रहे हैं जिनमें से ज्यादातर गुजराती कारोबारी निखिल गांधी से जुड़ी है. अपनी इन भूमिकाओं में उन्होंने रक्षा मंत्रालय के साथ लायजनिंग की और उन कंपनियों को सरकारी कांट्रेक्ट दिलाने में मदद की. 2015 में वह वह पीपावाव डिफेंस एंड ऑफशोर इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड के जनरल मैनेजर थे, जिसे बाद में रिलायंस ने खरीद लिया.
शांतनु के अपने लिंक्डइन प्रोफाइल ( इस आर्टिकल को प्रकाशित करने के वक्त) के मुताबिक शांतनु उसी कंपनी के कंस्लटेंट थे जिसका नाम अब बदलकर रिलायंस नेवल एंड इंजीनियरिंग लिमिटेड हो चुका है. सूत्रों का कहना है शांतनु सुकुल मोटे तौर पर पूरे रिलायंस डिफेंस ग्रुप के लिए ही काम करते हैं. शायद यही वजह है कि उनके लिंक्डइन प्रोफाइल का एक पुराना वर्जन बताता है कि वह रिलायंस डिफेंस लिमिटेड में डीजीएम रहे हैं.
रिलायंस डिफेंस लिमिटेड रिलायंस डिफेंस ग्रुप की एक प्रमुख कंपनी है जो रिलायंस एयरोस्ट्रक्चर लिमिटेड जैसी कई दूसरी कंपनियों की होल्डिंग कंपनी भी है. जिसने, जैसा कि पहले ही बता चुके हैं, राफेल डील के तहत ऑफसेट कांट्रेक्ट के लिए दसॉ से ज्वाइंट वेंचर किया है.
दिलचस्प बात है कि शांतनु सुकुल ने अपने LinkedIn प्रोफाइल से रिलायंस डिफेंस लिमिटेड में अपने पद को लेकर सारे रेफरेंस हटा दिए.
तो क्या यह हितों के टकराव की संभावना का आरोप लगाने के लिए काफी है?
सरसरी तौर पर देखें तो मधुलिका और प्रशांत सरकार में बड़े पदों पर हैं और शांतनु सुकुल एक ऐसी कंपनी/ग्रुप में काम कर रहे हैं जो सरकारी कॉंट्रेक्ट लेने की कोशिश कर रही है. यानी, हितों का संभावित टकराव तो बनता है.
इस तर्क को central civil service (conduct) rules,1964 के सेक्शन 4(2)(ii) से बल मिलता है जिसके मुताबिक जब भी किसी ब्यूरोक्रेट के परिवार का कोई सदस्य किसी कंपनी या फर्म में नौकरी शुरू करता है तो उसे इसकी जानकारी सरकार को देनी होती है. इस बात ये कोई फर्क नहीं पड़ता कि ब्यूरोक्रेट किस महकमे में काम करता है और उनके रिश्तेदार की कंपनी सरकार के किस महकमे से डील कर रही है.
इस हिसाब से प्रशांत और मधुलिका को शांतनु सुकुल के रिलायंस ज्वाइन करने पर सरकार को इसकी जानकारी देनी चाहिए थी. साथ ही उन कंपनियों की जानकारी भी देनी चाहिए थी जिनसे शांतनु पहले जुड़े रहे हैं, इस दौरान प्रशांत और मधुलिका किन पदों पर काम कर रहे हैं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.
प्रशांत सुकुल ने अपने जवाब में इशारा किया है कि उन्होंने इतने सालों में शांतनु की नौकरी के बारे में सरकार को कुछ नहीं बताया. उनका कहना है कि उनके और मधुलिका के इतने साल के करियर में शांतनु के काम से उनका कोई लेनादेना नहीं रहा है. लिहाजा हितों के टकराव के खुलासे का कोई सवाल पैदा नहीं होता.
खास बात है कि उन्होंने अपने जवाब में कहा है कि ‘फरवरी 2018’ तक मधुलिका के लिए शांतनु के बारे में किसी खुलासे की जरूरत नहीं थी क्योंकि तब तक उनके काम का राफेल या रिलायंस से कोई कोई लेनादेना नहीं था.
फरवरी, 2018 में मधुलिका की CGDA के तौर पर नियुक्ति हुई. अब चूंकि राफेल डील पब्लिक मनी और आर्मड फोर्सेस से जुड़ी है तो मधुलिका का किसी ना किसी तरीके से उससे जुड़ाव हो सकता है- जैसा कि प्रशांत सुकुल के खुद के जवाब से भी लगता है.
वह लिखते हैं कि इसके बावजूद मधुलिका ने सितंबर 2018 में फाइनेंशियल एडवाइजर (डिफेंस सर्विसेज) बनाए जाने के बाद ही हितों के टकराव के बारे में जानकारी दी. मधुलिका सुकुल ने हमारे सवालों का कोई जवाब नहीं दिया है. इसलिए यह स्पष्ट नहीं है फरवरी और सितंबर 2018 के बीच कोई खुलासा क्यों नहीं किया गया.
हमने प्रशांत को भेजे अपने सवाल में यह खास तौर पर पूछा था कि क्या उन्होंने अपने भाई से जुड़ा कोई खुलासा किया था लेकन उन्होंने कहा कि जून 2016 जून में CGDA में उनकी नियुक्ति के बावजूद इसकी कोई जरूरत नहीं थी. उनके मुताबिक एडिशनल CGDA के तौर पर उनका राफेल डील और रिलायंस से कोई लेना देना नहीं है.
क्या CGDA ऑफिस का रिलायंस या राफेल डील से कोई लेना देना है?
ये बताए जाने की इसलिए जरूरत है क्योंकि CGDA का राफेल सौदा से रिश्ता है. खास कर डील के तहत ऑफसेट शर्तों के संदर्भ में.
अब ये तो पहले से साफ है कि राफेल और इसके कंपोनेंट्स के मैन्यूफैक्चरर्स को ऑफसेट कांट्रेक्ट के तहत सौदे की आधी रकम भारत में निवेश करनी है. यह टेक्नोलॉजी ट्रांसफर का विकल्प होगा.
इस तरह के ऑसफेट कांट्रेक्ट्स में भले ही प्राइवेट कंपनियां शामिल हों लेकिन सरकार को इनकी जांच करके ये देखना होता है कि सौदे जायज हैं या कोई गड़बड़ी है.
सुप्रीम कोर्ट को दिए जवाब में सरकार ने खुद कहा है कि यहीं CGDA की भूमिका आती है. ऑफसेट कांट्रेक्ट पर सरकार के जवाब के पैराग्राफ 8 में कहा गया है :
‘कॉन्ट्रेक्ट के बाद वेंडर डीओएमडब्ल्यू (DOMW) के पास छमाही ऑफसेट रिपोर्ट और इससे जुड़े जरूरी दस्तावेज जमा करता है. कंट्रोलर जनरल ऑफ डिफेंस अकाउंट्स यानी सीजीडीए इन रिपोर्टों की स्वतंत्र ऑडिटिंग करता है ताकि ऑफसेट कांट्रेक्ट से जुड़े ट्रांजेक्शन की प्रामाणिकता साबित हो. सीजीडीए की ओर से सौंपी जाने वाली ऑडिट रिपोर्ट के आधार पर ऑफसेट क्रेडिट दिया जाता है या फिर पेनाल्टी लगाई जाती है.’
इसका मतलब है कि ऑफसेट कॉंट्रेक्ट के ऑडिट में सीजीडीए की भूमिका अहम होगी. और उसी ऑडिट रिपोर्ट पर क्रेडिट या पेनेल्टी लगेगी, चाहे वो रिलायंस पर हो दूसरी कंपनियों पर.
मधुलिका और प्रशांत सुकुल के लिए इसका क्या मतलब है?
ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट का जब अगले साल ऑडिट होगा तो सीजीडीए में अपने पद के नाते मधुलिका सुकुल को उसमें अपनी मजूंरी देनी होगी. मधुलिका सुकुल अगर सीजीडीए छोड़ भी देती हैं तो फाइनेंशियल एडवाइजर के नाते उनका सीजीडीए पर प्रशासनिक कंट्रोल रहेगा.
प्रशांत सुकुल एडिशनल सीजीडीए के नाते उस संस्था में दूसरा सबसे बड़ा औहदा रखते हैं. क्योंकि एयरफोर्स के मामले वो ही देखते हैं इसलिए यह मानना मुश्किल है कि ऑडिट की प्रक्रिया से उनका कोई लेना-देना नहीं होगा.
चूंकि रिलायंस ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट चाहता है, इसका मतलब ये हुआ कि ये सेंट्रल सिविल सर्विस(कंडक्ट) नियम 1964 के सेक्शन 4(3) का संभावित उल्लंघन हो सकता है. जिसके मुताबिक-
कोई भी सरकारी कर्मचारी अपनी सरकारी जिम्मेदारी निभाते वक्त ऐसी किसी भी कंपनी या फर्म के साथ कॉन्ट्रैक्ट को मंजूरी नहीं देगा जिसमें उसके परिवार का कोई भी सदस्य नौकरी कर रहा हो … अगर उसके परिवार का कोई सदस्य उस कंपनी या फर्म में नौकरी करता है या फिर वो या फैमिली का कोई सदस्य कॉन्ट्रैक्ट में किसी भी तरह से इच्छुक है या जुड़ा है तो सरकारी कर्मचारी इस तरह के सभी मामलों को अपने सीनियर की जानकारी में लाएगा. इसके बाद उस मामले पर सीनियर अथॉरिटी के निर्देशों के मुताबिक फैसला किया जाएगा.
इसका मतलब ये हुआ कि न सिर्फ मधुलिका और प्रशांत सुकुल को हितों के टकराव की जानकारी देनी चाहिए थी बल्कि सरकार को ये भी सुनिश्चित करना चाहिए था कि संभावित हितों के टकराव से बचा जाए.
इस जानकारी का खुलासा करने का मकसद यह बताना नहीं है कि प्रशांत सुकुल या मधुलिका सुकल ने किसी गलत काम को अंजाम दिया है. और न इसका मतलब यह है कि वह अगर अपने पद पर बने रहे तो अगले साल ऑफसेट कांट्रेक्ट शुरू होंगे तो ऑडिट रिपोर्ट में कोई घालमेल होगा. हालांकि यहीं पर हितों का संघर्ष अपने आप पैदा हो जाता है क्योंकि CGDA में उनकी मौजूदगी ऑफसेट कांट्रेक्ट देने की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अगले साल कांट्रेक्ट पर इसका असर पड़ सकता है.
प्रशांत सुकुल ने अपने जवाब में कहा है कि मधुलिका सुकुल ने रिलांयस के हर मामले से अपने आप को 19 सितंबर 2018 को अलग कर लिया था ताकि उनके और शांतनु के बीच हितों के टकराव से बचा जा सके. शांतनु उस वक्त तक रिलांयस में काम कर रहे थे. जवाब से हमें ये ठीक से पता नहीं चल पा रहा है कि ऑफसेट ऑडिट प्रक्रिया में मधुलिका सुकुल की कोई भागीदारी नहीं होगी. हमें ये ध्यान रखना चाहिए कि मधुलिका को पूरे ऑडिट प्रक्रिया से अपने आप को अलग कर लेना चाहिए था.
प्रशांत सुकुल का दावा है कि शांतनु सुकुल ने रिलांयस से इस्तीफा दे दिया है और 30 सितंबर 2018 को कंपनी ने इस्तीफा मंजूर कर लिया है. लेकिन, शांतनु सुकुल के पब्लिक प्रोफाइल के मुताबिक वो अभी भी रिलायंस की एक कंपनी के कंसलटेंट हैं. चूंकि शआंतनु और रिलायंस ने हमारे सवालों का जवाब नहीं दिया है इसलिए हम ये पक्के तौर पर नहीं कह सकते कि उन्होंने रिलायंस से पूरी तरह से नाता तोड़ लिया है.
इन मसलों पर सफाई की जरूरत
अगर ये मान लें कि प्रशांत सुकुल का जवाब सही है तो इसके बावजूद मधुलिका सुकुल और प्रशांत सुकुल जिस पद पर हैं, उन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर अब भी सवाल उठते हैं. सवाल उठता है कि क्या इस तरह की परिस्थिति बननी चाहिए थी कि मधुलिका को पूरी प्रक्रिया से अलग होना पड़े, प्रशांत को शायद अलग होना पड़े, शांतनु का इस्तीफा हो और सरकार को हितों का टकराव रोकने के लिए फिर भी कदम उठाने पड़े.
- मधुलिका और प्रशांत की सीजीडीए में नियुक्ति से पहले ही पता था कि शांतनु का रिलायंस से रिश्ता है. शायद प्रशांत और मधुलिका को इस बात की जानकारी सरकार को दे देनी चाहिए थी. हमारे ब्यूरोक्रेट्स के लिए इस तरह के नियमों में स्पष्टता क्यों नहीं है?
- केंद्र को ऑफसेट कॉन्ट्रेक्ट के ऑडिट की प्रक्रिया के बारे में पहले से ही पता था, ऐसे में अगर एसीसी(अपॉइंटमेंट कमेटी ऑफ कैबिनेट) के पास सारी जानकारी थी तो एसीसी जिसके प्रधानमंत्री मुखिया होते हैं, क्या उसे ऐसी नियुक्ति से बचना नहीं चाहिए था? और अगर जानकारी नहीं थी तो ये पूरी प्रक्रिया पर ही सवाल उठाता है.
- अगर सरकार को जानकारी थी और फिर भी ये नियुक्तियां हुईं तो हमें इस बात की जानकरी होनी चाहिए कि हितों के टकराव को रोकने के लिए कौन से कदम उठाए गए.
- ये भी जानना जरूरी है कि क्या फ्रांस की सरकार और दसॉ को इस संभावित हितों के टकराव की जानकारी थी? हमें पता है कि इस मामले में यूरोप के कानून काफी सख्त हैं.
ये स्टोरी पब्लिश करने से 24 घंटे पहले हमने रक्षा मंत्रालय, मधुलिका सुकुल, प्रशांत सुकुल, शांतनु सुकुल और रिलायंस को वो तमाम सवाल भेज दिए हैं जो हमने इस स्टोरी में उठाए हैं. हमें अब तक सिर्फ प्रशांत सुकुल का जवाब आया है जो ज्यों का त्यों इस स्टोरी के आखिर में छापा गया है. बाकि जवाब आने पर हम उन्हें अपनी स्टोरी में शामिल करेंगे.
प्रशांत सुकुल का जवाब
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