पिछले साल फरवरी की शुरुआत में जब फहद शाह (Fahad Shah) पहली बार पुलवामा पुलिस स्टेशन गए थे, तब उन्होंने अपनी मां से कहा था कि वहां उन्हें रात भर रुकने के लिए कहा जा सकता है. लेकिन उस दिन को बीते एक साल से अधिक हो गया है और अभी तक शाह अपने घर नहीं लौटे हैं.
एक पार्सल की तरह एक इधर से उधर भेजते हुए शाह को भी इस जेल से उस जेल भेजा गया है. जम्मू-कश्मीर के पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत कई एफआईआर और डिटेंशन ऑर्डर का सामना करने वाले शाह वर्तमान में जम्मू की कोट भलवाल जेल में बंद हैं.
इस दौरान, पिछले महीने जम्मू में एक स्पेशल जज ने भी फहद शाह के खिलाफ यूएपीए (UAPA) मामले में आरोपों की पुष्टि की है.
प्रॉसिक्यूशन (अभियोजन) पक्ष का तर्क
यह मामला पीएचडी स्कॉलर आला फाजिली द्वारा लिखे गए एक आर्टिकल से संबंधित है, जो 2011 में द कश्मीर वाला में पब्लिश हुआ था. जैसा कि अदालत के आदेश में उल्लेख किया गया है प्रॉसिक्यूशन (अभियोजन) पक्ष का तर्क यह है कि
"यह आर्टिकल अत्यधिक उत्तेजक, देशद्रोही है और जम्मू-कश्मीर में अशांति पैदा करने का इरादा रखता है, यह भोले-भाले युवाओं को हिंसा का रास्ता अपनाने और सांप्रदायिक अशांति पैदा करने के लिए उकसा सकता है. आर्टिकल पब्लिश होने के परिणाम स्वरूप जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद और गैरकानूनी गतिविधियों में वृद्धि हुई है."
अभियोजन पक्ष आगे यह दावा करता है कि "जांच के दौरान यह पता चला है कि आर्टिकल पब्लिश होने के बाद 2011 से राज्य के खिलाफ कई युवाओं ने हथियार उठा लिए. इस तरह पता लगता है कि जो आर्टिकल लिखा गया था वह उन भोले-भाले युवाओं में जिहाद की भावना या चिंगारी को जगाने की एक वजह बना, जो स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित थे."
अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया है कि "आतंकी गतिविधियों और उसके बाद होने वाली हत्याओं में वृद्धि हुई है, जोकि स्पष्ट तौर पर अलगाववादी और आतंकवादी अभियान को बनाए रखने के लिए आवश्यक झूठी कहानी गढ़ने और प्रचारित करने के लिए चल रहे ऑपरेशन का हिस्सा है."
जब तक कि हम अभियोजन पक्ष के तर्क को पूरी तरह से गलत नहीं समझते हैं. तब तक ऐसा प्रतीत होता है कि अभियोजन पक्ष ने दावा किया है कि फाजिली द्वारा लिखे गए और शाह के समाचार-पोर्टल में प्रकाशित हुए इस एक आर्टिकल ने 2011 के बाद से कश्मीर में हिंसा में वृद्धि में योगदान दिया है.
हालांकि, अभियोजन पक्ष के दावे को संदेहास्पद कहा जा सकता है.
ऐसा इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि कश्मीर में हिंसा का इतिहास कोई आज का नहीं है, वहां 1947 में भारत के विभाजन के समय से रहा है. 80 के दशक के अंत में (फाजिली द्वारा कथित तौर पर आर्टिकल लिखे जाने और शाह द्वारा इसे पब्लिश किए जाने से दो दशक पहले) वहां हिंसा ने काफी उग्र रूप धारण कर लिया था.
"आर्टिकल पब्लिश होने के बाद (2011 के बाद) से कई युवाओं ने राज्य के खिलाफ हथियार उठा लिए." सरकार इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंची यह भी स्पष्ट नहीं है.
क्या जांच एजेंसी द्वारा वार्षिक आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है? यदि हां, तो डेटा किसने और कब संग्रह किया? क्या गुप्तचरों (खुफिया विभाग के लोगों) ने हर एक स्टेकहोल्डर से बात की और उनसे इस बारे में सवाल किया कि आप इस आर्टिकल से कैसे प्रभावित हुए- क्या आपने इसे पढ़ा है? क्या इसने आपको हथियार उठाने के लिए प्रेरित किया है? यदि हां, तो क्यों? यदि नहीं, तो क्यों? ओह, तुम एक उग्रवादी हो, क्या यह 2011 के उस आर्टिकल की वजह से हुआ?
खैर चाहे जो भी हो, फाजिली पर यूएपीए की धारा 13, 18 और भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 121, 153बी और 201 के तहत आरोप लगाया गया है. जबकि शाह पर यूएपीए की धारा 13, 18 और आईपीसी की धारा 121, 153बी के साथ ही एफसीआरए की धारा 35 और 39 के तहत आरोप लगाए गए हैं.
लेकिन जरा रुकिए...
यूएपीए की धारा 13 'गैरकानूनी गतिविधियों' के लिए सजा से संबंधित है. यह यूएपीए में एक विशिष्ट अपराध है, जो आतंकवादी अपराधों से अलग है, जो कठोर कानून के तहत भी दंडित किया जाता है.
यूएपीए में 'गैरकानूनी गतिविधि' की परिभाषा ऐसे व्यक्ति या संगठन द्वारा की गई किसी भी कार्रवाई को शामिल करती है जो
भारत के एक हिस्से के अलगाव के बारे में किसी भी दावे का समर्थन करता है या समर्थन करने का इरादा रखता है
भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को अस्वीकार करता है, उस पर सवाल उठाता है, उसे बाधित करता है या बाधित करने का इरादा रखता है;
भारत के खिलाफ असंतोष की वजह बनता है या असंतोष का इरादा रखता है.
हालांकि, यूएपीए की धारा 18 एक आतंकवादी कार्य (धारा 15 के तहत परिभाषित) करने की साजिश के लिए सजा से संबंधित है.
पिछले साल अप्रैल में जब शाह और फाजिली पर इस मामले में पहली बार मामला दर्ज किया गया था तब सीनियर एडवोकेट रेबेका जॉन ने द क्विंट को बताया था कि :
"धारा 18 आतंकवादी कृत्य के लिए साजिश रचने की सजा है, लेकिन इसे धारा 15 (आतंकवादी अधिनियम) के साथ पढ़ा जाना चाहिए, इसलिए जब आप धारा 13 को 18 के साथ लागू करते हैं तो वास्तव में एक कानूनी असंगति है."
उसी दौरान, द क्विंट से बात करते हुए मानवाधिकार वकील मिहिर देसाई ने कहा था कि धारा 18 को धारा 15 से संबंधित उल्लेख के बिना शामिल करने से पता चलता है कि ऐसा इसलिए किया गया ताकि यूएपीए के तहत सख्त जमानत शर्तों को शाह और फाजिली के खिलाफ लागू किया जा सके.
देसाई ने समझाते हुए कहा कि "इस तथ्य को लेकर सचेत रहने की आवश्यकता है कि यूएपीए के तहत कठोर जमानत की शर्तें केवल आतंकवादी संबंधित अपराधों पर लागू होती हैं, न कि उन पर जिन्हें गैरकानूनी गतिविधियों के रूप में वर्गीकृत किया गया है."
इस प्रकार, देसाई ने कहा : "इस मामले में ऐसा प्रतीत होता है कि धारा 18 को केवल यह सुनिश्चित करने के लिए जोड़ा गया ताकि आला फाजिली और फहद शाह को जमानत पर न छोड़ा जाए."
वहीं पिछले एक साल की रिपोर्टों से पता चलता है कि फहद शाह को उनके खिलाफ यूएपीए मामले में अभी तक जमानत नहीं मिली है.
तो क्या कोर्ट ने इस प्रतीत होने वाली असंगति को ध्यान में रखा?
अगर कोर्ट ने इसे ध्यान रखा भी है तो हमें इसके बारे में जानकारी नहीं है. इस "कानूनी असंगति" का एकमात्र स्पष्ट उल्लेख शाह के वकील द्वारा रिकॉर्डेड (आदेश में) कही गई बातों से संबंधित है :
"वरिष्ठ एडवोकेट पीएन रैना ने ए2 (फहद शाह) की ओर से कोर्ट के समक्ष जोरदार तरीके से दलील दी है कि धारा 18 यूएपीए 1967 के घटक ए2 के खिलाफ नहीं बनते हैं, क्योंकि धारा 18 का उद्देश्य आतंकवादी कार्य करना या किसी भी कार्रवाई की तैयारी करना है न कि अवैध (गैरकानूनी) गतिविधि में शामिल होना. यह तर्क दिया जाता है कि धारा 15 यूएपीए की शर्तों को पूरा करने पर ही धारा 18 यूएपीए के तहत अपराध बनता है."
भले ही कोर्ट ने इस दलील को रिकॉर्ड किया गया हो, लेकिन हकीकत में कोर्ट अपने आदेश में इस पर ध्यान नहीं देती है. फहद शाह के खिलाफ उक्त आरोपों की पुष्टि के लिए कोर्ट द्वारा बताए गए कारणों को संक्षेप में इस प्रकार बताया जा सकता है :
पुलिस द्वारा लगाए गए आरोपों, गवाहों के बयानों और अन्य सामग्री जिस पर जांच एजेंसी (विवादास्पद लेख की एक प्रति सहित) पूरी तरह से निर्भर हैं को ध्यान में रखते हुए, प्रथम दृष्टया "आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ पर्याप्त सामग्री है..."
फहद शाह के बयान और उनकी फाइल को देखते हुए "यह स्पष्ट है" कि शाह को उनके एचडीएफसी खाते में "रिपोर्टर्स सैंस फ्रंटियर्स नामक एक अंतरराष्ट्रीय एनजीओ से टीकेडब्ल्यू मीडिया प्राइवेट लिमिटेड के नाम पर" 10,59,163.00 रुपये की विदेशी फंडिंग मिली थी.
लेकिन फिर भी क्या कानूनी जांच-पड़ताल के दायरे में यूएपीए आरोप आया? आतंकवादी कृत्य करने की साजिश के रूप में एक ऐसा गंभीर आरोप है, जिसमें जमानत पाना लगभग असंभव हो जाता है, वहीं इसमें जेल की सजा का भी प्रावधान है जिसकी अवधि कम से कम पांच वर्ष से लेकर आजीवन हो सकती है, इसके अलावा इसमें जुर्माना भी लगाया जा सकता है.
कोर्ट ने खुद जोर देते हुए यह नोट किया कि "आरोप तय करते समय रिकॉर्ड में मौजूद सामग्री के सबूत के तौर पर चर्चा नहीं की जा सकती है, लेकिन आरोप तय करने से पहले कोर्ट को रिकॉर्ड में रखी गई सामग्री पर अपने न्यायिक दिमाग का इस्तेमाल करना चाहिए और इस बात से संतुष्ट होना चाहिए कि अभियुक्त द्वारा अपराध करना संभव था..."
इससे पहले कर्नाटक सरकार बनाम एल मुनिस्वामी (1997) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था :
"…आरोप तय करने का आदेश किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को काफी हद तक प्रभावित करता है और इसलिए यह कोर्ट का कर्तव्य है कि वह न्यायिक रूप से विचार करे कि उसके सामने जो सामग्री पेश की जा रही है वह आरोप तय करने के लिए उपयुक्त है या नहीं. यह अभियोजन पक्ष के इस फैसले को आंख मूंदकर स्वीकार नहीं कर सकती कि आरोपी को मुकदमे का सामना करने के लिए कहा जाए."
तो क्या कोर्ट को अपने आदेश में कम से कम इस तर्क पर चर्चा नहीं करनी चाहिए थी कि चूंकि यूएपीए की धारा 15 नहीं लगी है, इसलिए यूएपीए की धारा 18 भी नहीं लग सकती है? इस तर्क के मुताबिक, क्या किसी भी गैरकानूनी कार्रवाई को आतंकवादी साजिश की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है?
मूल बात यह है कि
फहद शाह सिर्फ एक और कश्मीरी लेखक या पत्रकार हैं जिन्हें उनके कार्य के लिए जेल में डाल दिया गया है, ऐसे लोगों की कतार काफी लंबी है, यहां कोई राहत नजर नहीं आ रही है. लेकिन क्या शाह या फाजिली इस तरह के कठोर नियमों के तहत आरोपित होने के योग्य हैं, वे भी मूल रूप से बारह साल पहले लिखे गए एक आर्टिकल के लिए?
हाल ही में, भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने पत्रकारों के एक पुरस्कार समारोह में अपने भाषण में कहा था :
"अगर किसी देश को लोकतांत्रिक बनाए रखना है तो प्रेस को स्वतंत्र रहना चाहिए."
सुप्रीम कोर्ट ने अतीत में यह भी माना है कि भले ही "गलत या दोषयुक्त रिपोर्टिंग" के कुछ उदाहरण हों, लेकिन पत्रकारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए.
इसके अलावा, आत्महत्या के लिए उकसाने के एक मामले में टीवी न्यूज जगत की शख्सियत अर्नब गोस्वामी को जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में उल्लेख किया था कि :
"भारत की स्वतंत्रता उस समय तक सुरक्षित है जब तक पत्रकार बगैर किसी भय के सत्ता के सामने अपनी बात रख सकते हैं."
तो ऐसे में हमारी अदालतों द्वारा सरकार को किस हद तक कड़े कानूनों के तहत पत्रकारों और लेखकों और शोधकर्ताओं पर आरोप लगाने की अनुमति दी जानी चाहिए, वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि उनके द्वारा लिखी गई किसी बात से सरकार थोड़ा नाखुश या असंतुष्ट है?
अर्नब गोस्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी नोट किया था :
"न्यायालयों को स्पेक्ट्रम के दोनों सिरों पर जीवित होना चाहिए - एक ओर आपराधिक कानून के उचित प्रवर्तन को सुनिश्चित करने की आवश्यकता और दूसरी ओर, यह सुनिश्चित करने के लिए कि लक्षित उत्पीड़न के लिए कानून का दुरुपयोग ना हो."
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