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चोका सिस्टम: इस किसान से सीखने के लिए इजराइल से भी आते हैं लोग

हाईटेक तकनीकी का नाम ‘चोका सिस्टम’ है.

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ये प्रेरणादायक कहानी उस गांव की है, जिसे कभी पागलों का गांव कहा जाता था, जहां का हर घर गरीबी से जूझ रहा था, लेकिन आज यहां के लोग गांव में रहते हुए 10 हजार से 50 हजार रुपए कमाते हैं. जानिए कैसे हुआ ये करिश्मा..

तकनीकी के मामले में इजरायल दुनिया का सबसे हाईटेक देश माना जाता है. भारत समेत दुनिया के कई देश इस छोटे से देश से सीखने जाते हैं. लेकिन भारत का एक किसान है, इजरायल के लोग उससे सीखने आते हैं. इस किसान ने जो तकनीकी विकसित की है, अब वो इजरायल में लागू की जा रही है.

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इस हाईटेक तकनीकी का नाम ‘चोका सिस्टम’ है. यह एक ऐसी तकनीकी है जिसे देश के हर कोने, हर गांव का किसान अपने हिसाब से इस्तेमाल कर सकता है. शायद यही वजह है कि इजरायल में भी लोकप्रिय हो रही है. ये तकनीक है किसान को कमाई कराने की, उसे गांव में ही रोजगार देने, पानी बचाने की और जमीन को सही रखने की. इस किसान की मानें, तो यही तो तकनीकी है, जिसके सहारे गायों को लाभकारी बनाते हुए उन्हें बचाया भी जा सकता है.

‘चोका सिस्टम’ की जिस गांव से शुरुआत हुई है वहां हर घर सिर्फ दूध के कारोबार से हर महीने 10 से 50 हजार रुपए कमाता है.

इजरायल को ज्ञान देने वाले इस किसान का नाम है लक्ष्मण सिंह. 62 साल के लक्ष्मण सिंह राजस्थान के जयपुर से करीब 80 किलोमीटर दूर लापोड़िया गांव के रहने वाले हैं. ये गांव कभी भीषण सूखे का शिकार था. गरीबी और जागरुकता की कमी के चलते यहां आए दिन लड़ाई दंगे होते रहते हैं, युवा गांव छोड़-छोड़ शहर में मजदूरी करने को मजबूर हो रहे थे.

ये किसान हैं लक्ष्मण सिंह (62 साल) जो राजस्थान राज्य के जयपुर जिला मुख्यालय से 80 किमी दूर लापोड़िया गांव के रहने वाले हैं. इस गांव में 350 घर हैं जिसकी करीब 2,000 आबादी है.

करीब 40 साल पहले लक्ष्मण सिंह ने अपने गांव को बचाने के लिए मुहिम शुरू की. बदलाव रंग भी लाया कि आज इजरायल जैसा देश इस गांव का मुरीद है. आज लापोड़िया समेत राजस्थान के 58 गांव चोका सिस्टम की बदौलत तरक्की की ओर है. यहां पानी की समस्या काफी हद तक कम हुई है. किसान साल में कई फसलें उगाते हैं. पशुपालन करते हैं और पैसा कमाते हैं. 350 घर वाले इस गांव में आज 2000 के करीब आबादी रहती है.

लक्ष्मण सिंह गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, “40 साल पहले गांव में पानी की बहुत किल्लत थी. पशुओं तक के लिए पानी कई किमी दूर से लाना पड़ता था, गांव में इतने विवाद और मारपीट होते थे कि लोगों ने इसका नाम लपोड़ शब्द से जोड़ कर रख दिया. आम बोलचाल की भाषा में हमारे यहां लपोड़ का मतलब पागल होता है.”

लक्ष्मण सिंह, पागलों के इस गांव के कलंक को मिटाना चाहते थे. गांव कनेक्शन को वो बताते हैं, इसके लिए मैंने जो सबसे पहला काम किया वो था पानी रुकने की व्यवस्था, इसे मैने चोका सिस्टम नाम दिया, यही वो तकनीक है जिसे सिखाने मैं इजरायल गया हूं और वहां के लोग हमारे गांव आए हैं.”

देश के हर गांव में पंचायती जमीन होती है जिस जमीन पर गांव वालों का बराबरी का हक होता है. राजस्थान में इस जमीन को चारा गृह और आम बोलचाल भाषा में गोचर कहते हैं. ये जमीन हर गांव में 400 से 1,000 बीघा तक होती है.

लापोड़िया में ये जमीन 400 बीघा है, इस खाली पड़ी जमीन में लक्ष्मण सिंह ने चोका सिस्टम बनाया, जिसमें बरसात के नौ इंच पानी को रोका जा सके और उसमें ‘धामन’ घास डाली जिससे इसमें पशुओं के चरने के लिए घास उगाई जा सके. आस-पास कई छोटी नालियां बनाईं, जिसमें पशु घास चरकर वहीं पानी पी सके. गांव में जगह-जगह टैंक और गड्ढे बनाए गये, जिसमें बरसात का पानी रुक सके.

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गांव के विकास के लिए रुपयों की कम से कम जरूरत पड़े, इसके लिए श्रमदान का सहारा लिया गया. गांव के लोगों को इससे जोड़ने के लिए 1977 में उन्होंने ग्राम विकास नवयुवक मंडल लापोड़िया रखा. इस समूह को ये जिम्मेदारी दी गयी कि गांव के हर किसी व्यक्ति में ये भाव पैदा करना है कि वो अपने गांव का मजदूर नहीं बल्कि मालिक है.

इस गांव के कायाकल्प के पीछे भी दिलचस्‍प किस्सा है. लक्ष्मण सिंह बताते हैं, कई ऐसी घटनाएं हुईं जिन्होंने मुझे मजबूर किया कि गांव का कुछ करना होगा. वो बताते हैं, एक बार मैं कहीं गया था, गांव का नाम बताया तो लोग हंसने लगे.. बाद में मुझे पता चला हमारे गांव की छवि बहुत खराब है. उसी दिन से मैंने ने सोचना शुरू किया, कुछ भी करके इस गांव को ऐसा बनाना है कि लोग गर्व करें और मिसाल दें.

राजस्थान के जयपुर और टोंक जिले के 58 गांव लापोड़िया गांव जैसे बन चुके हैं. लक्ष्मण सिंह को उनके सराहनीय कार्यों के लिए साल 1992 में नेशनल यूथ अवॉर्ड और 2007 में जल संरक्षण के अनोखे तरीके को इजाद करने के लिए राष्ट्रपति अवॉर्ड से सम्मानित किया गया.

पहला काम, लालटेन जलाकर रात में पढ़ाना शुरू किया

गांव में बदलाव के लिए सबसे जरूरी थी, कि सब लोग शिक्षित हों, इसलिए चौपाल में लालटेन जलाकर लोगों को पढ़ाना शुरू किया. साथ ही इस पर भी काम शुरू किया कि गांव में ही रोजगार मिल सके.

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चालीस साल पहले गांव में चलते थे 117 मुकदमे

पहले इस गांव का माहौल ऐसा था कि कोई एक गली से दूसरी गली निकल जाए, तो उसका सिर फोड़ देते, कोई किसी का हाथ तोड़ देता ये हर दिन घटने वाली सामान्य घटनाएं थी. इसके बाद लोग रिपोर्ट लिखाते मुकदमा चलता और फिर एक दूसरे की झूठी गवाही देते. ऐसा करते-करते 117 मुकदमें थे.

जब गांव के लोग लक्ष्मण सिंह के पढ़ाने के बाद कुछ साक्षर हुए यानी उनकी समझ बढ़ी, तो सबसे पहला काम इनके चल रहे मुकदमों को लक्ष्मण सिंह ने खत्म कराया. लक्ष्मण सिंह ने जब ये काम करना शुरू किया था, उसके कुछ दिन बाद सरकार की तरफ से इनके पास नोटिस भी गया था कि ये किसकी मर्जी से काम कर रहे हैं. लेकिन लक्ष्मण सिंह अपनी मुहिम में लगे रहे.

बरसात के पानी को संरक्षित हो, ये सभी की जिम्मेदारी

बरसात का पानी हर कोई अपने स्तर से संरक्षित करे ऐसी व्यवस्था बनाई गयी है. खेतों की मेढ़ बंदी हर किसान करता है. यहां तीन बड़े सार्वजनिक तालाब हैं, जिसका पानी पूरे गांव के लोग इस्तेमाल करते हैं.

देवसागर और फूलसागर नाम के दो ऐसे तालाब जिसका पानी पशु-पक्षी पीते हैं और भूजल स्तर रिचार्ज होता है, एक तालाब के पानी से 1400 बीघा जमीन सिंचित होती है. इन तीन सार्वजनिक बड़े तालाबों के अलावा पांच से 10 किसानों के बीच एक सामूहिक तालाब जरुर होता है. दस सार्वजनिक नालियां हैं, जहां जानवर चरते हैं, वहीं उनके पीने के पानी का इंतजाम किया गया है. इन तालाब और नालियों में कोई भी कूड़ा नहीं फेक सकता है. पूरे गांव में 103 कुएं भी हैं, यहां वृक्षों की ज्यादातर सभी प्रजातियां मिल जाएंगी,

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गर्मियों में रहता है त्योहारों जैसा माहौल

गर्मियों में लोगों के पास कोई काम नहीं रहता है, इसलिए इस खाली समय में लापोड़िया गांव की तरह कई गांव के लोग एक साथ एक गांव में एकत्र होकर तालाब खोदना शुरू करते हैं. दो-दो हजार लोग जब एक साथ काम करते हैं तो एक बड़ा तालाब चार से पांच दिन में तैयार हो जाता है.

यहां आसपास के नये गांव में हर दिन तालाब बनने का काम जारी रहता है. एक यात्रा भी निकलती है जिसमें कई गांव के हजारों लोग शामिल होते हैं. जो हर गांव में रुक-रुककर बैठक करते हैं. यह यात्रा पानी, वृक्ष, जमीन, पशुपालन, मिट्टी को बचाने का संदेश देता है. अब यहां का जलस्तर इतना अच्छा हो गया है जिससे गेहूं की एक फसल में सिर्फ तीन पानी ही लगाने पड़ते हैं.

अच्छी नस्ल होने की वजह से तीन से चार हजार लीटर दूध डेयरी पर आता है जो जयपुर जाता है. दूध से होने वाली आय यहां हर परिवार की पशुओं के हिसाब से हर महीने दस हजार से पचास हजार रुपए तक है.

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डेयरी में आता है तीन से चार हजार लीटर दूध

पहले यहां मवेशियों को चरने के लिए गोचर नहीं थे, उनके पीने के पानी का इंतजाम नहीं था. जब ये दोनों सुविधाएं हो गयीं तो लक्ष्मण सिंह ने गुजरात से 80 सांड मंगाए, जिससे गायों की अच्छी नस्ल यहां होनी शुरू हुई. अच्छी नस्ल होने की वजह से तीन से चार हजार लीटर दूध डेयरी पर आता है जो जयपुर जाता है. दूध से होने वाली आय यहां हर परिवार की पशुओं के हिसाब से हर महीने दस हजार से पचास हजार रुपए तक है.

ऐसे बनता है ‘चोका सिस्टम’

चोका सिस्टम हर पंचायत की सार्वजनिक जमीनों पर बनता है. एक ग्राम पंचायत में 400 से 1,000 बीघा जमीन खाली पड़ी रहती है, इस खाली जमीन में चोका सिस्टम ग्राम पंचायत की सहभागिता से बनाया जाता है. खाली पड़ी जमीन में जहां बरसात का नौ इंच पानी रुक सके वहां तीन चौड़ी मेड़ (दीवार) बनाते हैं, मुख्य मेड 220 फिट लम्बाई की होती है और दोनों साइड की दीवारें 150-150 फिट लम्बी होती हैं.

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भूमि का लेवल नौ इंच का करते हैं, जिससे नौ इंच ही पानी रुक सके इससे घास नहीं सड़ेगी. इससे ज्यादा अगर पानी रुका तो घास जमेगी नहीं. हर दो बीघा में एक चोका सिस्टम बनता है, एक हेक्टेयर में दो से तीन चोका बन सकते हैं.

एक बारिश के बाद धामन घास का बीज इस चोका में डाल देते हैं, इसके बाद ट्रैक्टर से दो जुताई कर दी जाती है. सालभर इसमें पशुओं के चरने की घास रहती है. इस घास के बीज के अलावा देसी बबूल, खेजड़ी, बेर जैसे कई और पेड़ों के भी बीज डाल जाते हैं. चोका सिस्टम के आसपास कई नालियां बना दी जाती हैं, जिसमें बरसात का पानी रुक सके. जिससे मवेशी चोका में चरकर नालियों में पानी पी सकें.

(नीतू सिंह की ये रिपोर्ट गांव कनेक्शन से ली गई है.)

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