18 जून 2021 को अपने ट्विटर अकाउंट से एक वीडियो शेयर कर केंद्रीय कृषि मंत्री ने कहा था कि कृषि कानून वापसी को छोड़कर, एक्ट से संबंधित प्रावधान पर कोई भी किसान (Farmer) समिति आधी रात को बात करने को तैयार है तो नरेंद्र सिंह तोमर (Narendra Singh Tomar) उसका स्वागत करता है. लेकिन अब कानून वापस हो चुके हैं और किसान एक साल से ज्यादा आंदोलन करने के बाद घर वापस लौट रहे हैं. इतना ही नहीं एमएसपी (MSP) पर भी कमेटी बनाने की बात भी की गई है.
अब किसानों की घर वापसी के वक्त क्विंट हिंदी से बात करते हुए किसान आंदोलन का अहम हिस्सा रहे योगेंद्र यादव ने कहा कि,
इस आंदोलन के दौरान किसानों ने अपनी ताकत डिस्कवर की है. देश भर के नेताओं को समझ आ गया है कि भूल कर भी आगे से किसानों से पंगा नहीं लेना है.योगेंद्र यादव, किसान नेता
इन दोनों बयानों को आज के परिपेक्ष्य में रखकर आप खुद मतलब समझ सकते हैं. कभी कानून वापसी पर बात तक ना करने वाली सरकार आखिरकार एक साल बाद मानी तो उसे इससे क्या हासिल हुआ? और क्या नुकसान हुआ?
हासिल की बात बाद में करेंगे पहले नुकसान समझ लेते हैं. क्योंकि जिस डैमेज को कंट्रोल करने की कोशिश खुद प्रधानमंत्री ने की टीवी पर आकर की हो, उसकी गंभीरता का अंदाजा आप लगा सकते हैं.
प्रधानमंत्री मोदी की छवि
2014 में जब से बीजेपी की सरकार बनी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने, तभी से भारतीय जनता पार्टी ने एक छवि बनानी शुरू की. एक सख्त फैसले लेने वाले प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र ने भी खुद को सामने रखा. फिर चाहे वो नोटबंदी का फैसला हो या जीएसटी. हर फैसले पर बीजेपी ने कहा कि नरेंद्र मोदी बड़े-बड़े फैसले लेते हैं और पीछे नहीं हटते हैं.
किसान आंदोलन में भी शुरू से यही कहा जा रहा था कि अब जब फैसला ले लिया गया है तो वापसी का सवाल नहीं है, संशोधन के लिए हम तैयार हैं. लेकिन एक दिन अचानक आकर प्रधानमंत्री ने ना सिर्फ कानून वापसी का ऐलान कर दिया बल्कि माफी भी मांगी. जिससे उनकी सख्त प्रशासक वाली छवि को डेंट लगा. फिर इसके बाद भी किसानों ने मोर्चा नहीं छोड़ा और सरकार को बातचीत की टेबल पर आना पड़ा.
इसके बाद दोनों में बातचीत हुई और तय हुआ कि...
एमएसपी पर कमेटी बनेगी
किसानों पर लगे केस वापस होंगे
मृतक किसानों के परिवारों को मुआवजा मिलेगा
बिजली बिल बिना किसानों से बातचीत किये पेश नहीं होगा
पराली जलाने पर किसानों के खिलाफ आपराधिक मुकदमा नहीं होगा
ये वो पांच बिंदु हैं जिन्हें सरकार से लिखित में मिलने के बाद ही किसान घर जाने को तैयार हुए हैं और कहकर गए हैं कि अगर जरूरत पड़ी तो फिर आ जाएंगे. इसे अपनी जीत बताते हुए किसान अपने टेंट समेट रहे हैं.
पंजाब का सपना
पंजाब में पैर जमाने की कोशिश में लगी बीजेपी ने अकाली दल को कृषि कानूनों की वजह से ही खो दिया. जिसके साथ मिलकर उन्होंने तीन बार पंजाब में सरकार चलाई. अकाली दल की वजह से ही बीजेपी को ग्रामीण इलाकों में समर्थन मिलता था. पंजाब में अपने पैरों पर खड़े होने का सपना देखने वाली पार्टी अब खुद को चार कदम पीछे ही पा रही है, हालांकि कृषि कानून वापसी के बाद पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमिरिंदर सिंह से गठबंधन के रास्ते खुल गए हैं, लेकिन इन रास्तों में आगे कितने मोड़ और गड्ढे हैं कहा नहीं जा सकता.
कांग्रेस और अकाली दल के बाद जिस जगह की तलाश बीजेपी कर रही थी. वहीं आम आदमी पार्टी भी चक्कर काट रही है, और तो और अब एक किसान नेता गुरनाम चढ़ूनी ने भी पंजाब चुनाव में अपनी पार्टी बानकर उतरने का ऐलान कर दिया है. तो कृषि कानून भले ही बीजेपी सरकार ने वापस ले लिए हों लेकिन पंजाब में उनकी उम्मीदों को बड़ा झटका लगा है. क्योंकि इस आंदोलन में पंजाब सबसे आगे था और वहां के ही सबसे ज्यादा लोगों ने जान गंवाई.
यूपी का डैमेज कंट्रोल?
कृषि कानून वापसी में उत्तर प्रदेश का बड़ा रोल है, विपक्ष लगातार आरोप लगा रहा है कि चुनाव हारने के डर से मोगी सरकार ने कृषि कानून वापस ले लिए. लेकिन क्या कृषि कानून वापस लेने से पूरा डैमेज कंट्रोल हो गया. ये कहना मुश्किल है क्योंकि पंजाब-हरियाणा के बाद सबसे ज्यादा किसान आंदोलन का असर उत्तर प्रदेश में ही था. राकेश टिकैत संयुक्त किसान मोर्चा के अहम नेताओं में से एक हैं. उन्होंने गाजीपुर में किसान आंदोलन की मशाल लगातार जलाए रखी.
मुजफ्फरगर दंगे से बिगड़ी जाट-मुस्लिम एकता के दानों को किसान आंदोलन ने फिर से तसबीह में पिरोया है. जिससे बीजेपी को फायदा तो नहीं होगा. क्योंकि मुजफ्फरनगर दंगो के बाद जाट बीजेपी की तरफ आकर्षित हुए तो 2012 में पश्चिमी यूपी की 110 में से केवल 38 सीटें जीतने वाली बीजेपी 2017 में 88 सीटें जीत ले गई.
बीजेपी को यही समीकरण सबसे ज्यादा परेशान कर रहा था, इसीलिए पीएम मोदी खुद ने सामने आकर इतना बड़ा फैसला लिया.
हरियाणा
पंजाब के बाद किसान आंदोलन में सबसे ज्यादा सक्रिय हरियाणा के किसान थे. इस आंदोलन ने पंजाब-हरियाणा के बीच बरसों से चली आ रही पानी की टसल को भी पीछे छोड़ दिया और भाईचारे ने ऐसे कदम बढ़ाये कि पंजाब से दिल्ली की ओर बढ़ रहे किसानों के लिए हरियाणा के किसानों ने रास्ता बनाया. किसान आंदोलन का हरियाणा में ऐसा असर था कि बीजेपी सरकार के मंत्री तक अपने कार्यक्रम नहीं कर पा रहे थे. यहां तक कि कई बार मुख्यमंत्री को भी विरोध के कारण अपने कार्यक्रम रद्द करने पड़े.
2014 में पहली बार हरियाणा में पूर्ण बहुमत की की सरकार बनाने वाली बीजेपी ने 2019 में जैसे-तैसे जेजेपी को साथ मिलाकर सरकार बनाई थी. अब किसान आंदोलन के बाद उनकी राहें मुश्किल होना लाजमी है, जिसका असर हाल ही में हुए उचाना विधानसभा के उपचुनाव में भी देखने को मिला. जहां जेजेपी (जननायक जनता पार्टी) से गठबंधन और हलोपा (हरियाणा लोकहित पार्टी) से विवादित विधायक गोपाल कांडा के भाई गोबिंद कांडा को पार्टी में लेकर उम्मीदवार बनाने के बाद भी बीजेपी हार गई.
बीजेपी को कहां फायदा?
कृषि कानून वापसी के बाद बीजेपी उम्मीद लगाए बैठी है कि यूपी चुनाव में जो नुकसान किसान आंदोलन की वजह से होना था वो अब नहीं होगा. लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने कृषि कानून वापसी से पूरी तरह डैमेज कंट्रोल कर लिया है, ये इतना आसान तो नहीं है. क्योंकि जिस जाट-मुस्लिम समीकरण के टूटने ने बीजेपी को फायदा पहुंचाया था उसके बीच की कड़वाहट को किसान आंदोलन ने खत्म कर दिया है.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पिछले चुनावों में बीजेपी को वोट देने वाले लोग कृषि कानून पर कहते थे कि हमने ही वोट देकर इन्हें सत्ता में लाया और ये हमारी ही बात नहीं सुन रहे हैं. इसके अलावा गाजीपुर में राकेश टिकैत के आंसू अभी तक पश्चिमी यूपी के किसान नहीं भूले हैं. बीजेपी सरकार के इस कदम से इन सब सवालों पर चुनाव के दौरन ग्राउंड पर कहने के लिए कम से कम कुछ हो गया है. अब वो इसके सहारे अपने खसक रहे वोट बैंक को वापस ला सकते हैं.
हालांकि किसान नेता राकेश टिकैत ने क्विंट हिंदी से बात करते हुए कहा कि, जब चुनाव आएगा तो सरकार के कर्म के आधार पर बात की जाएगी. जो इस ओर इशारा करता है कि ये बात यहीं खत्म नहीं होती.
इसके अलावा अजय मिश्रा टेनी के सवाल पर किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूने ने भी क्विंट हिंदी से कहा कि लखीमपुर खीरी मामला हमने छोड़ा नहीं है, वो मामला सुप्रीम कोर्ट में है इसलिए उसे ज्यादा छेड़ना ठीक नहीं है, अब यूपी के किसान उस मामले को देखेंगे.
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